राजशाही व उत्तराखंड सरकार की पर्यटन नीति को मुंह चिढ़ाते राजगढ़ी के दरकते खंडहर!

राजशाही व उत्तराखंड सरकार की पर्यटन नीति को मुंह चिढ़ाते राजगढ़ी के दरकते खंडहर!


(मनोज इष्टवाल)
कभी रवाई क्षेत्र में राजदरवार का हिस्सा रही राज गढ़ी बिरासत की अवहेलना के ऐसे आंसू बहा रही है जिन्हें पोंछने वाला कोई नहीं है. टिहरी राजशाही ने यहीं बैठकर कई निर्णय लिए जिन्हें पूरे रवाई क्षेत्र ने सिर आँखों पर लिया. लेकिन आज यही विरासत खंडहर खंडहर हो रही है जिसे सरकारी हुक्मरानों ने अब ध्वस्त करने के आदेश जारी कर दिए हैं. जिसका सीधा सा अर्थ है कि अब राजगढ़ी का यह विशालकाय महलनुमा भवन वह अर्थी बन जाएगा जिसके काँधे देने के लिए न टिहरी राजदरवार ही खड़ा है न उत्तराखंड सरकार! क्योंकि इसकी जगह कुछ समय बाद सीमेंट कंक्रीट का कोई भवन होगा. ये भी हो सकता है उसे तहसील मुख्यालय बना लिया जाय! क्योंकि यह टिहरी राजकाल के दौरान भी टिहरी नरेश का रवाई परगने की तहसील महल कहलाता था जिसे रज्जागढ़ी कहा जाता था जो अपभ्रंश होकर राजगढ़ी हुआ. अक्सर टिहरी नरेश इस क्षेत्र में जब भी भ्रमण पर होते थे तब यहीं उनका दरवार लगता था.

यहाँ तक पहुँचने के लिए आपको राजधानी देहरादून से यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग होते हुए बडकोट पहुंचना होता है. बडकोट से आगे नन्दगॉव से बांया टर्न लेकर यमुना लांघते हुए आप लगभग 10 किमी. दूरी पर बसी राजगढ़ी पहुँचते हैं. पट्टी बनाल व ठकराल की सीमा पर बसी राजगढ़ी बेहद रमणीक स्थान पर स्थापित है यहाँ से आप हिमालय की खूबसूरती के दर्शन कर सकते हैं.

राजगढ़ी के एक तरफ ठकराल पट्टी के फरीकोटि गंगटाड़ी है। दूसरी तरफ डरव्याट गांव धराली मिंयाली गांव हैं। डरव्याट गांव में जयाड़ा जाति के राजवंशीय राजपूत रहते हैं। बनाल व राम सराई तक में इस जयाड़ा जाति के लोग रहते हैं।

राजा सुदर्शनशाह द्वारा राजगढ़ी का निर्माण इसलिए किया गया था ताकि रवाई के कास्तकारों की समस्याओं का निबटारा यहीं आकर किया जाय व कर वसूली इत्यादि भी यही आकर राजा किया करते थे. इसे राजा की सैरगाह के रूप में भी माना जाता रहा है. राजगढ़ी 52 गढ़ों में इसलिए शामिल नहीं समझी जाति क्योंकि इस गढ़ का गढ़पति स्वयं राजा हुआ करता था. लेकिन इस गढ़ की रेख-देख के लिए राजा ने टिहरी क्षेत्र के आस-पास निवास करने वाले थोकदार जयाड़ा को यहाँ का सर्वे सर्वा बनाया हुआ था जो राजशाही के हर हुक्म का पालन करता था. जिन्हें डख्याट गॉव का बिशाल भूभाग खाने कमाने के लिए दिया गया.

राजगढ़ी की भवन निर्माण की शैली मुख्यत: रवाई घाटी के भवन निर्माण शैली से मेल खाती है लेकिन इसका निर्माण चूंकि महलनुमा हुआ है इसलिए यह थोड़ा सा रवाईशैली से हटकर कहा जा सकता है. इस भवन को पत्थरोंव देवदार की लकड़ी से चुना गया है जिसकी छत्त फटालों की है. टिहरी राजशाही के समाप्त होने के बाद सन 1960 में इस पर तहसील भवन खोला गया. बाद में भवन की जर्र-जर्र होती स्थिति को देखकर इसकी मरम्मत का कार्य करने की जगह इस से तहसील भवन हटा लिया गया. इसके कुछ कमरों में इंटर कालेज की कक्षाएं भी संचालित हुई और कई कमरों में अध्यापक आवास भी रहे. इसके दो कमरों में अभी भी पोस्ट ऑफिस चलता है जबकि भवन का आधा हिस्सा खंडहर में तब्दील हो गया है.

राजगढ़ी के ठीक सामने यमुना नदी के बाईं तरफ नंदगांव हैं। यह एक बड़ा राजस्व ग्राम है। इस गांव का गोविंद सिंह बिष्ट रवाईं का फौजदार था। इसी बिष्ट फौजदार ने सन् 1815 में गोरखों को सिगरोली की संधि के अनुरूप यहां से सुरक्षित टनकपुर के रास्ते नेपाल भिजवाया था। डोडड़ा क्वार में आराकोट की व्यवस्था यहीं फौजदार गोविंद सिंह देखता था। नन्द गांव के बिष्ट परिवार के लोग वरसाली से आए हैं। 30 मई 1930 को राजगढ़ी से 5 मील की दूरी तिलाड़ी ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड हुआ था। जिसमें निर्दोष जनता पर रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल द्वारा गोली चलाई गई थी। राजगढ़ी से यमुना घाटी का हरा-भरा क्षेत्र दिखाई देता है। सन् 1960 में उत्तरकाशी जिला बनने पर राजगढ़ी को कोट तहसील मुख्यालय बन गया था। राजगढ़ी से मियांली, जरवाली, जखाली, घौंसाली तक अभी भी देवदार के जंगल हैं।

पुरातन विरासतों को जमीदोज कर उन्हें नवनिर्माण के माध्यम से वजूद शून्य कर देना मानों उत्तराखंड सरकार ने अपनी पालिसी में शामिल कर रखा हो. क्योंकि ऐसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के वजूदों के पुनर्निमाण की जगह उसे जमींदोज करने के आदेश देना व राजगढ़ी जैसी सुरम्य महल को तबाह करना कौन सी नीति है यह समझना कठिन है. क्यों नहीं इसे राज्य सरकार उत्तराखंड पर्यटन से जोड़कर इसके मूल वजूद को यथावत रखकर इसे ग्रामीण पर्यटन से जोड़कर पर्यटन व्यवसाय का माध्यम बनाती क्योंकि एक तो यह बेहद सुरम्य स्थान पर है और दूसरी बात ऐस्तिहासिक है. इन दोनों से महत्वपूर्ण बात यह है कि यह गंगोत्री यमनोत्री यात्रा मार्ग पर है जहाँ धार्मिक पर्यटक के अलावा साहसिक पर्यटक भी आकर शुकून से ठहरना चाहेगा. राजगढ़ी तो सिर्फ एक उदाहरण है ऐसे कई और भी ऐतिहासिक महत्व की गढ़ी किलों के खंडहर हैं जिन्हें हम पर्यटन व लोक संस्कृति का माध्यम बनाकर स्थानीय रोजगार को बढ़ावा दे सकते हैं.
 

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