रवाई लोक महोत्सव…..!क्यों जरुरी हैं रवाई घाटी में ऐसे सामाजिक व सांस्कृतिक उत्सव?
रवाई लोक महोत्सव…..!क्यों जरुरी हैं रवाई घाटी में ऐसे सामाजिक व सांस्कृतिक उत्सव?
(मनोज इष्टवाल)
सचमुच जब आप लाखामंडल का वैभव निहारते हुए एक संकरी सी घाटी को पार कर नौगाँव पहुँचते हैं तब आपके हाथ खुद-ब-ख़ुद फैलते चले जाते हैं जैसे यमुना और कमल नदी के दोनों छोरों पर फैले रवाई घाटी की लोक संस्कृति का आलिंघन कर पानी-पानी होना चाहते हों जैसे इस घाटी को आलिंघन में जकड़कर यहाँ से दिखाई देने वाले उतुंग हिमालय का मस्तक चूम अपनी खुद बिसराना चाहते हो! यहाँ की ठंडी बयार मानों आपका इन्तजार कर अपने प्रकृति सौन्दर्य के गीत गाना चाह रही हो! यहाँ के मानव सुर जैसे पक्षियों की तरह कलरव कर कह रहे हों-“बाजी जालो बाणो मामा बाजी जालो बाणों रे…ओ मेरे रंजिया मामा बाजी जालो बाणों हे”! मानों रसोई से उठता इस क्षेत्र का धुंवा की लोक पर्व लोक त्यौहार की पैरवी में असके, पिनवे, उलूवे व लाल चावल, झंगोरे की खीर,तिलकुचाईं आपका मन तृप्त करना चाह रहा हो!
(वो 22 दिसम्बर की सुबह थी जब हम लोग देहरादून से निकले थे! रवाई लोक महोत्सव की टीम के शशिमोहन रवांल्टा, प्रेम पंचोली व नरेश नौटियाल द्वारा दिए गए आमन्त्रण के बाद संस्कृति के चितेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार दिनेश कंडवाल, वेद विलास उनियाल व समाजसेवी भार्गव चंदोला आखिर रवाई महोत्सव जाने के लिए तत्परता के साथ तैयार हुए! ऐसा नहीं था कि मेरे द्वारा अपने अन्य मित्रों को इस लोक महोत्सव में शिरकत करने के लिए अपनी ओर से न कहा हो लेकिन ज्यादात्तर का जवाब था हम बिन बुलाये मेहमान बनकर क्यों जाएँ! विकास नगर से हमने जौनसार बावर क्षेत्र के समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी को भी साथ लेना था इसलिए हमने मसूरी की सडक की जगह विकास नगर होकर यमुना के साथ साथ रवाई घाटी में प्रवेश करना उचित समझा! खुद की कार चला रहे भार्गव चंदोला व वेद उनियाल ज्यादा उत्सुक थे क्योंकि उनकी परिकल्पनाओं में रवाई के अप्रितम लोक समाज व लोक संस्कृति की छवि परिदृश्यित थी इसलिए वे यहाँ जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहते थे जबकि मैं, दिनेश कंडवाल व इंद्र सिंह नेगी इस लोक समाज से बहुत पहले से घुले मिले हुए लेकिन मुझे भी उत्सुकता थी कि क्या आज लोक महोत्सव में वह 25-30 साल पहले वाला समाज दिखने को मिलेगा जिसे देखने के लिए मेरी आँखें अब तरसने लगी हैं!
लगभग एक साढे बारह बजे हम यमुना पुल लांघते हुए जौनसार सरहद छोड़ जौनपुर में दाखिल हुए! यहाँ यमुना जल की तरह दिनेश कंडवाल जी का बंगाली कनेक्शन प्रेम छलचलाने लगा और सामने बंगाली बाबू को बोले- बाबू मोशाय माछा भात है कि नहीं! भला ऐसे कैसे हो सकता था कि यहाँ बिना मछली भात खाए आगे बढ़ जाते! ऐसे में बेचारे इंद्र सिंह हमेशा बेचारगी के शिकार होते हैं क्योंकि उनके दाड़ों ने कभी मांसाहारी रस्वादन नहीं लिया है!
यहाँ रास्ते भर वामपंथ और दक्षिणपन्थ के सुर गूंजते रहे! यह सच है कि वामपंथी अपने तर्क सही साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं लेकिन मेरी तरकस में ऐसा इकलौता तीर था कि उन्होंने दिनेश कंडवाल व भार्गव चंदोला जैसे धुर्र वामपंथी विचारकों की बोलती बंद कर दी! वेद विलास हों तो मनोज इष्टवाल को बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती! बेचारा इंद्र नेगी किसी नाव में सवार हों यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था क्योंकि आज मनोज इष्टवाल को हुर्याने वाले उनके साथी कम थे इसलिए उनके ठहाके जरा कम ही गूँज रहे थे! भार्गव चंदोला व दिनेश कंडवाल, वेद विलास उनियाल से शायद पहली बार मिल रहे थे इसलिए उन्हें लग रहा था कि बहस जल्दी शांत हो खैर ऐसे ललचाते इठलाते लगभग पौने तीन या तीन बजे हम नौगाँव पहुँच गए! तय हुआ अब हम पंथ की बात न कर निरपंथी बन आगे की यात्रा का आनंद लेंगे! हलकी सी चढ़ाई चढ़ हम अभी सांस रोकने उस मैदान पर खड़े ही हुए थे जहाँ रवाई लोक महोत्सव की धूमधाम थी कि लाउडस्पीकर चिंघाड़ मारने लगा! हमारे बीच देहरादून से हमारे बड़े भाई वरिष्ठ पत्रकार मनोज इष्टवाल, मेरे लोकल गार्जन दिनेश कंडवाल, वरिष्ठ पत्रकार वेद उनियाल व समाजसेवी भार्गव चंदोला पहुँच गए हैं उनका रवाई की इस पावन धरती पर रवाई लोक महोत्सव में स्वागत है! यह आवाज पत्रकार प्रेम पंचोली की थी! कई चेहरे पीछे घूमे जो मुझे जानते थे हाथ जोड़ते हुए हम दर्शक दीर्घा की दायीं तरफ की कुर्सियों पर पसर गए! मंच पर खड़े शशि मोहन रवांल्टा आये और कुशल क्षेम पूछी कुछ देर बाद पानी की बोतलें लपकती हुई हम तक पहुंची! ये तो था संक्षिप्त यात्रा वृत्त)
मैं काले चश्मों के अंदर से भीड़ के बीच व किनारे खड़े उन चेहरों को टटोलने लगा जिन्हें जानता था ! कई नजरें मिलती व अभिवादन की बनावटी मुस्कानों से दोनों ओर से हाथ जुड़ते व गर्दन झुकती! अभी कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय की मैडमें वहां दिखाई दी थी जिनकी छात्राएं मंच पर अपने प्रदर्शन के लिए बेताब खड़ी अपनी बारी का इन्तजार करने में लगी थी! मंच पर अब बडकोट की नवनिर्वाचित नगर पालिका अध्यक्ष अनुपमा रावत की आवाज गूँज रही थी जो कह रही थी कि इस महोत्सव का प्रतिफल हमें तब प्राप्त होता जब हम अपने लोक परिधानों में सज संवरकर यहाँ पहुँचते! भार्गव चंदोला मेरे कान में फुसफुसाए- भैजी, देखो तो जरा …! अध्यक्ष महोदया, खुद लोक परिधान पहनकर नहीं पहुंची और अपने भाषण में वह पारम्परिक भेष भूषा पहनकर पहुँचने की बात कर रही हैं! मैं प्रत्युतर में सिर्फ मुस्कराया क्योंकि मेरे चेहरे पर भी निराशा के भाव थे क्योंकि 25-30 साल पहले का रवाई अब पूरी तरह बदल चुका था! भीड़ में सिर्फ पांच प्रतिशत ही लोग ऐसे दिखे जो अपने पारम्परिक परिधानों में रहे हों वह भी मात्र 60 से 70 प्रतिशत तक! थोड़ी देर बाद हम चाय पीने के लिए नीचे बाजार को उतरे तो भार्गव चंदोला बोले- मेरे दिमाग में तो यह चल रहा था कि रवाई के ऐसे लोकोत्सव में ठेठ वहां की बात होगी! कई चेहरों को अपने कैमरे में कैद करूंगा खूब यहाँ की संस्कृति पर लिखूंगा लेकिन…! वेद उनियाल बीच में ही बोल पड़े- हाँ चंदोला भाई, सही कह रहे हो यार! सचमुच मुझे भी निराशा हुई क्योंकि मेरे मनमस्तिष्क में भी यही सब था! इंद्र सिंह नेगी तो भीड़ में लापता हो गए थे लेकिन दिनेश कंडवाल साथ थे बोल पड़े- अरे अब कहाँ रवाई! यहाँ तो देहरादून जैसे महानगरों की आवोहवा ने सब चौपट कर दिया है! अब यहाँ के लोग भी हमारी तरह अपने पारम्परिक परिधानों को पहनकर आने में शर्म महसूस करने लगे हैं! यह तय मानिए जैसे हम पौड़ी वाले आज अपनी लोक संस्कृति के गायब होने से दुखी होते हैं वैसे ही आने वाले सालों में यहाँ भी होने वाला है लेकिन ये लोग इसी को बचाने के प्रयास में जुट गए हैं हमने तो अपने मेले कौथीग तक समाप्त कर दिए हैं! हाँ मैं खुश हूँ कि मेरे यहाँ का गिंदी का मेला अभी भी अपनी अंतिम साँसे गिन रहा है!
सचमुच सभी के तर्क अकाट्य थे! पौड़ी ने जहाँ शिक्षा दीक्षा में अपना अग्रणी योगदान दिया वहीँ ब्रिटिश काल ने यहाँ की संस्कृति व लोक परम्पराओं को खुर्द बुर्द करने में ज़रा भी देरी नहीं की! आज के किसी भी 30-35 बर्षीय ब्रिटिश गढ़वाल निवासी को पूछा जाय कि उनकी पारम्परिक भेषभूषा व लोक गीत लोक नृत्य क्या क्या हैं तो बमुश्किल 10 प्रतिशत ही इसका जवाब दे पायेंगे! वह भी 20 प्रतिशत से ऊपर नहीं बता पाएंगे यह मैं शर्तिया कह सकता हूँ! इसी परिपेक्ष्य में मेरा मन हुआ क्यों न नौगाँव बाजार में इस बात की तहकीकात की जाय कि यहाँ के पारम्परिक परिधानों के बारे में यहाँ के लोग कितनी समझ रखते हैं! और चाय की चुस्कियां लेते रहे और मैं अपना सर्वे करने में ब्यस्त रहा!
बड़ा आहत हुआ जब यहाँ का भी यही हाल देखा! दुःख तब हुआ जब 50 बर्ष की आयु सीमा के व्यक्ति भी यह नहीं बता पाए कि उनकी लोक संस्कृति के पारम्परिक परिधान व रूप सज्जा क्या क्या थी या है? हाँ लोकगीतों लोक नृत्यों व खान-पान पर जरुर ये लोग 80 प्रतिशत तक बता पाए!
इस सम्बन्ध में मेरी बात रवाई लोक महोत्सव की टीम के कुछ चुनिन्दा लोगों से हुई! लोक महोत्सव के अध्यक्ष शशि मोहन रवांल्टा, उदघोषक प्रेम पंचोली व अन्य ने दिनों-दिन ह्रास की तरफ अग्रसर रवाई क्षेत्र की वैभवपूर्ण परम्पराओं पर खेद व्यक्त करते हुए कहा कि-“महोत्सव का मुख्य उद्देश्य क्षेत्र की संस्कृति को विश्व पटल पर पहुँचाना हैं। स्थानीय कलाकारों को मंच देने के अलावा स्थानीय वेशभूषा और पहनावे सहित खानपान को पहचान दिलाने के लिए सांस्कृतिक विरासत को बचाए और बसाए रखना भी महोत्सव का मुख्य लक्ष्य है। महोत्सव के माध्यम से अपनी भाषा बोली, वेशभूषा और संस्कृति को बचाए रखने का प्रयास भी है!”
वहीँ जौनसार से आये इंद्र सिंह नेगी व बावर क्षेत्र के सुभाष तराण इस बात से संतुष्ट दिखे कि कम से कम उनके क्षेत्र में अभी उनकी लोक परम्पराएं व लोक संस्कृति के 80 प्रतिशत अंश तो बचे हैं! लोकसभा में कार्यरत सुभाष तराण बोले- सचमुच हमें अपने लोक के लिए वक्त रहते ठीक रवाई महोत्सव की तरह खड़ा होना पडेगा ताकि हमारी लोक पहचान जीवित रह सके वरना हम भी ऐसे समाज में आने वाले समय में शामिल समझे जायेंगे जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं!
चिंतामग्न इस समाज के लिए मैंने औषधि पादप का कार्य करते हुए उनके बोझ को हल्का करना शुरू कर दिया क्योंकि जब समाज के पास लोक संस्कृति की शून्यता हो तो जो थोड़ा बहुत भी उस लोक समाज लोक संस्कृति को करीब से जानता हो वह अपने को “अहम ब्रह्मसी” घोषित करने में भला पीछे कहाँ रह सकता है! फिर मुझे अक्सर ये शब्द दीवारों से भी सुनाई देते हैं – अरे मनोज भाई तो यूँ भी इनसाइक्लोपीडिया है! तो दूसरा स्वर भला दिनेश कंडवाल जी का न सुनाई दे वे कहते दिखेंगे अरे भई इष्टवाल जी को तो लखनऊ में “वास्कोड़ीगामा ऑफ़ उत्तराखंड” का सम्मान मिला है इसलिए यह उनकी ड्यूटी बनती है कि वे इस पर प्रकाश डालें!
अब भला जंक खाई तलवार को मैं म्यान से बाहर क्यों न निकालता! मैंने रवाई लोक महोत्सव की पैरवी वाले इन कर्णधारों का उत्साह बढाते हुए कहा कि देखना अगले बर्ष कई पुरुष यहाँ आपको ठेठ अपनी पारम्परिक भेषभूषा जिसमें सिर में शिकोई, बदन में फर्जी, सूतण, कमर में लखोटा, कोट व कानों में दुरोटू पहने हुए दिखेंगे जबकि महिलायें सूतण, कुर्ती, पच्युड़ी (चौखाना धोती), फर्जी, फराग, सिर में ढान्टू/ ढान्टूली या लखुटी/पंटी (चौड़ी ऊनि दुपट्टा सा) और सदरी बननी नजर आएँगी जबकि कानों में गोखुरू या गुखुरु, नाक में बुलाक, कानों में लाबी, गले में टटूडी(लाल दानों की माला), खगई, चन्द्रिहार (चन्द्रहार) व अँगुलियों में पुलडी (अंगूठी) इत्यादि के साथ अपनी धमकती छटा बिखेरने पहुंचेंगी! सब मंत्रमुग्ध सुन रहे थे! एक सज्जन बोले- भैजी, हम रवांल्टियों को नहीं पता कि इतने सब हमारे अंग वस्त्र अंग आभूषण हैं! आपने तो कमाल कर दिया! मैं बोला- काश…आप लोगों का यह मकसद पूरा हो जाता कि आप अपनी लोक संस्कृति लोक परम्पराओं लोक समाज की वानगी को जिस सजगता के साथ ले रहे हैं आने वाले बर्षों में समाज भी उसकी गंभीरता समझ पाता! मुझे हृदय से दुःख होता है कि बचपन में जो सामाजिक व सांस्कृतिक सभ्यता मेरे गाँवों के मेल जोल को बढाने के लिए घर-घर आँगन आँगन में जुटती थी वह अब आँखों से ही नहीं बल्कि समाज से भी गायब हो गयी है! अब हम लाख कोशिश करेंगे तब भी उन प्रयत्नों में सफल नहीं हो पायेंगे आप भाग्यवान हैं कि आप लोगों ने इसे समय पर सम्भालने की जिम्मेदारी ले ली है!
देर रात उस दिन जहाँ हम भाई वेद विलास उनियाल के सुरीले स्वरों का आनंद लेते रहे वहीँ रवाई जौनसार जौनपुर व हिमाचल के गीत हमारे इर्द-गिर्द हमारी जुबान से बहते हुए उस यमुना नदी की तरह थे जिससे कुछ ही फर्लांग की दूरी पर हमारा आशियाना था!
(क्रमशः)