रवाई घाटी की देवलांग…..! साठी-पान्साई का नहीं अपितु कौरव-पांडव वंशजों का अंतिम ध्वन्ध युद्ध!

रवाई घाटी की देवलांग…..! साठी-पान्साई का नहीं अपितु कौरव-पांडव वंशजों का अंतिम ध्वन्ध युद्ध!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग)
यकीनन आज भी द्वापर युगीन सभी अवशेष गाथाएँ हमारे सामने मौजूद होती हैं लेकिन हम या तो उतनी गहराई में उतरकर उसका अनुशरण नहीं करते या फिर शोध खोज करने की जहमत नहीं उठाते क्योंकि अगर हम ऐसा करते तो रवांई घाटी की देवलांग का प्रयोजन बड़ी आसानी से समझ लेते!
विगत 6 दिसम्बर 2018 को आखिर मन बना ही लिया कि मैं इस बार इस उत्सव को देखने जाऊं! कई मित्रों की राय भी पूछी लेकिन सब ठंड व आपसी व्यस्तता व रहने ठहरने की अव्यवस्थाओं के चलते साहस नहीं जुटा पाए! मुझे एक बार यह उम्मीद जरुर जगी थी कि हमारे अड्वेंचर के शौक़ीन मित्र दिनेश कंडवाल साथ चल देंगे लेकिन वह अपनी व्यस्तताओं के कारण टाल गये! समाजसेवी व कांग्रेसी प्रवक्ता विजयपाल ने महीनों पहले मुझे कहा था कि भैजी- इस बार मैं आपको देवलांग ले चलूँगा! लेकिन विजयपाल भी जाने किस कारण बहाना मार गए! जौनसारी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले इंद्र सिंह नेगी के गाँव में खुद पुराणी दियाई (पुरानी दीवाली) थी इसलिए वे भी आने में असमर्थ रहे! अन्य मित्रों में राजेन्द्र जोशी सहित कई अन्य को टटोला लेकिन इन सभी के लिए बिलकुल आलिशान व्यवस्थाएं होनी जरुरी हैं इसलिए किसी को ज्यादा कम्पेल नहीं किया और आखिरकार प्रांजल कंडवाल की सदाबहार बाइक जिसे लेकर मैंने कई हिमालयन टूर कर लिए हैं चल पड़ा यमुना नदी के साथ-साथ उसके उदगम स्थल की ओर!

विगत दिनों जब हम रवाई लोक महोत्सव में सम्मिलित होने समाजसेवी भार्गव चंदोला की कार से निकले थे तब उनकी बगल में मैं बैठा था व वे कहते सुनाई दे रहे थे! इष्टवाल जी, यह सडक बेहद खतरनाक है क्योंकि एक तो कई जगह सिंगल लेन है और ऊपर से खतरनाक व तीखे मोड़! इस बार बाइक के साथ मुझे भी महसूस हुआ कि वास्तव में खतरनाक सडक में खतरनाक बिना लाइसेंस के बने बेतुके मैक्स टैक्सी ड्राईवरों से खुद को बचाने के लिए आपको हरदम चौकना रहना पडेगा! देहरादून से बडकोट तक लगभग 142 किमी. की दूरी अगर आप देहरादून हर्बर्टपुर विकास नगर के रास्ते से होकर तय करते हैं तब यह दूरी आपको लगभग 20 से 25 किमी. अधिक तय करने पड़ती है जबकि मसूरी से यही दूरी लगभग 115 किमी. ले आस पास है! लेकिन इस से विकास नगर वाले रूट से आपका पेट्रोल माइलेज व पहाड़ी उंचाई मार्ग स्पीड, व समय सभी ज्यादा बचता है! आपको बडकोट तक तीन तंग सड़कों व तीखे मोड़ से अपने को बचाव करना जरुरी है व ऐसे स्थानों पर लापरवाही जिन्दगी के लिए ठीक नहीं! कट्टापत्थर से खरसोंनक्यारी, डामटा व नैनगाँव के बीच या फिर लाखामंडल मोड से लेकर नौगाँव तक! यहाँ एतिहातन आप ज्यादा ध्यान से ड्राइव करें!
 
बहरहाल 6 दिसम्बर को मेरा आश्रय सरनौल गाँव था! अत: गंगनानी से यमुनोत्री नेशनल हाई वे को छोड़कर मैं दांया मोड़ काटता हुआ पुल पार डक्याटगाँव की सरहद में घुसा! अभी लगभग साधे तीन बजे का समय था और राजगढ़ी तक पहुँचते पहुँचते चार बज गए थे! यहाँ मैंने अल्प बिराम लिया! लगभग साढे चार बजे मैं गंगटाडी सरनौल के लिए यहाँ से निकल पडा! राजगढ़ी से गंगटाडी की दूरी लगभग 10 किमी. है! यहाँ लोक निर्माण विभाग की मेहरबानी व ठेकेदारों की लूट से सडक का पुराना डामरीकारण हुआ है इस बात के चिह्न अवश्य तब मिलते दिखाई देते हैं जब आपकी गाड़ी उन कंकण-पत्थरों में रपटने लगती है वरना यहाँ अंधेर नगरी चौपट राजा वाली सडक है! इन 10 किमी. सफर को अगर आप ऐतिहात से ड्राइव करना चाहते हैं तब 20 किमी. गति से चलिए और यहाँ से आगे सरनौल तक तो आप कोशिश करके देख लीजिये गाडी बमुश्किल 10 से 15 किमी. की गति से उपर अपना अग्रिम 11 किमी. का सफर तय नहीं करती क्योंकि यह सडक नहीं बल्कि गाय भैंस के लिए पैदल चलने वाले किसी रास्ते से कम नहीं है! सच कहूँ तो मेरे ब्रिटिश गढ़वाल की गाय बैल  भी इस सडक या रास्ते पर पैदल चलने से मना कर दें! गंगटाडी से आगे लगातार चढ़ाई है और बेहद खतरनाक सडक भी! अन्धेरा यहीं घिर गया था और यहाँ से सरनौल की 11 किमी. दूरी में भरी सर्दी के बावजूद जो पसीने आये उसका प्रमाण यह है कि मेरे बाजू अभी तक दर्द कर रहे हैं! आप आगे बढ़ते हैं तो सडक के तीखे व खड़ींचा रुपी पत्थर आपकी गाड़ी के पहिये को पीछे धकलने का पूरी शक्ति से काम करते हैं! तीन चार जगह तो ऐसा रास्ता है कि जरा सा लापरवाही किसी भी तरह की दुर्घटना का सबब बन जाए! सचमुच यहाँ कितने सरल स्वभाव का जनमानस रहता होगा जिनकी आवाज इस क्षेत्र से बाहर तक नहीं सुनाई देती!

अगली सुबह जब सरनौल से निकला तो माँ रेणुका का स्मरण करते हुए निकला! बेहद ऐतिहात से ड्राइव करता हुआ मैंने पाया कि नेपाली मजदूर सडक के पुश्तों को कई स्थानों पर चुन रही है! गंगटाडी पहुंचा तो देखा मंदिर में कुछ लोग इकट्ठा हैं व ढोल बज रहा है! यहाँ महासू का बेहद खूबसूरत मंदिर अभी हाल के बर्षों में ही बनकर तैयार हुआ है जिसकी औस्तन लागत लगभग 60 लाख के आस-पास होगी! खूबसूरत देवदार की लकड़ी पर नक्काशी व देवदार व पत्थरों की चुनवाई बड़ा सा मंदिर प्रांगण व महासू/रघुनाथ मंदिर के बांये छोर पर बजरंगबलि हनुमान की स्थापना ! यह जरा सा अटपटा लगा क्योंकि हनुमान त्रेता युगीन थे जबकि यहाँ की लोक संस्कृति के ज्यादात्तर प्रमाण द्वापर युगीन कहे जा सकते हैं ! फिर भी यह कहा जा सकता है कि जैसे जैसे इंसान शिक्षित होता गया वह देवी देवताओं के मानकों में भी तब्दीली करता रहा जैसे पर्वत क्षेत्र में समसु देवता पहले दर्योधन के रूप में पूजे जाते थे और वर्तमान में सोमेश्वर के रूप में! वहीँ यहाँ महासू रघुनाथ लिखना भी कुछ अलग संकेत करता है!

गंगटाडी मंदिर प्रांगण पहुंचकर पता चला कि यहाँ भी आज देवलांग है ! आपको जानकारी दे दें कि देवलांग यमुना घाटी के गैर, गंगटाड़ी, कुथनौर में सुबह तथा गंगा घाटी के धनारी पुजार गांव में शाम को देवलांग पर्व मनाया जाता है! यहाँ मंदिर प्रांगण में ढोल पर नौबत्त के स्वर गूँज रहे थे! लोगों से परिचय हुआ तो सबने आग्रह किया कि आज यहीं हमारा आतिथ्य स्वीकार करें देवलांग पर्व है लेकिन मेरी मंजिल तो गैर बनाल के देवलांग की थी! आगे बढ़ा तो मंदिर की निचली ओर एक घर के पिछवाड़े में ओखल में चूढ़े कूटे जा रहे थे! अक्सर पहाड़ी प्रदेशों में यह देखने को मिलता है कि ऐसे पर्वों पर अपने आवद स्नेही जनों के लिए उपहार स्वरूप कुछ पकवान बनाए जाते हैं! यह चौहान जी का आवास था जिनकी बिटिया शिवा चौहान ने मुझे न सिर्फ पानी के लिए पूछा बल्कि भैंस के दूध की शानदार चाय भी पिला दी और बहुत बार बोली- अंकल जी, आज यहीं रुक जाओ ! गैर बनाल की देवलांग अगले बर्ष देख लेना इस बार हमारी देवलांग देखो! मैं पहले ही तय कर चुका था कि मेरी मंजिल गैर बनाल है इसलिए बहाना मारकर बोला- राजगढ़ी तक जा रहा हूँ वहां से लौट आऊंगा लेकिन शिवा समझ गयी कि मेरे बढ़ते कदम थमेंगे नहीं! अंदर गयी और एक प्लेट भर कर चूड़ा देती हुई बोली- अंकल जी, आपके सफर में काम आयेंगे और हम दे भी क्या सकते हैं! वास्तव में लाल धान के कुटे ये चूढ़े बेहद स्वादिष्ट थे! सचमुच बदलते वक्त के साथ हमारे गाँवों के समाजिक बदलाव की बयार में हमारा आतिथ्य सत्कार भले ही कुछ कम हुआ है लेकिन शिवा के आतिथ्य सत्कार ने पुनः गदगद किया और मुझे गर्व हुआ कि ऐसी बेटियाँ सिर्फ पहाड़ में ही जन्म ले सकती हैं जो निस्वार्थ भाव से अपने लोक व्यवहार, लोक स्वभाव से अपने समाज व लोक संस्कृति का परचम लहराती हैं!
आज गैंग बीट उन्हीं कंकण-पत्थरों को बांज देवदार के पत्तों से साफ़ कर रही थी जो सडक पर ख़तरा बने हुए थे क्योंकि आज लोक निर्माण विभाग को पता चल चुका था कि यहाँ वन मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत व शिक्षा राज्य मंत्री अरविन्द पांडे आ रहे हैं! खैर विधान सभा सत्र एक दिन बढ़ने के कारण दोनों न आ पाए फिर भी कुछ दिन के लिए ही सही कम से कम इस सडक के कुछ कंकण पत्थर तो हटे!
राजगढ़ी से 9 किमी. दूरी पर पुजेली गाँव जब पहुंचा तब किसी ने बताया कि गैर बनाल के लिए अगले मोड़ से एक सडक ऊपर की ओर कटती है! मैंने फोन निकाला और पत्रकार मित्र प्रदीप रवांल्टा के लिए फोन किया ! प्रदीप बोले- सीधे बिगराड़ी गाँव आ जाओ कहीं जाने की जरूरत नहीं है! बस डेढ़ किमी आगे गड़ोली है वहां से दांयी तरफ उपर चढ़ देना वहां से भी इतना ही आगे आकर मेरा गाँव पड़ता है! यहाँ समस्या यह हो गयी कि मुझे कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में अध्ययनरत एक बेटी का पूर्व में ही अपने घर आने का आमन्त्रण था इसलिए उसके घर भी जाना जरुरी था क्योंकि यहाँ की परम्पराओं में मेहमान का आतिथ्य सत्कार अलग ही बात है! खैर मैंने सीता के घर अपना झोला रखा और बिगराड़ी जा पहुंचा जहाँ प्रदीप के गर्म गर्म आलू लहसून के भरवे स्वाले, भैंस की गुन्द्क्याला पीला घी व दही भरी कटोरी मेरा इन्तजार कर रही थी! सचमुच भूख तो लग ही गयी थी इसकी महक ने वह और बढ़ा दी! प्रदीप रवांल्टा का परिवार पूर्व से ही शिक्षित है उनके पिता जी हाल ही में अध्यापन से सेवानिवृत हुए हैं!
प्रदीप रवांल्टा को दोहरी ब्यवस्थायें देखनी थी! एक देवलांग से सम्बन्धित व दूसरी देहरादून से आई दूरदर्शन की टीम की ब्यवस्थायें अत: बिगराडी गाँव से जल्दी निकल वे गैर बनाल देवलांग स्थल जा पहुंचे जबकि मैं सीता/ममता के घर! जहाँ मेरा खूब आतिथ्य सत्कार हुआ देर रात तक गप्पें चलती रही और प्रातःकाल 3 बजे कडकडाती ठंड में मैं बाइक लेकर गैर गाँव के देवलांग पर्व स्थल पर जा पहुंचा! जहाँ हजारों-हजार लोग मन्दिर प्रांगण में उपस्थित थे! ज्ञात हुआ कि इस से पूर्व यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे! बहरहाल मंदिर प्रांगण के दाहिनी ओर देवदार का लगभग 40-42 हाथ लंबा पेड़ लिटाया गया था जिसमें सूखे चीड़ देवदार के लम्बे लम्बे फनेटे (लकड़ी को फाड़कर बनाया गया) लगे हुए थे! जो भी व्यक्ति आता उसे छूता व नमस्कार करके आगे बढ़ जाता. कई तो उसकी बांये से दांये तक परिक्रमा करते दिखे! भीड़ अधिक होने के कारण हर कोई परिक्रमा नहीं कर पा रहा था! अब मुझे प्रदीप दूरदर्शन के चंद लोगों के साथ दिख गए थे! ठंड अधिक थी व भौम्पू चिल्ला रहा था- जिन मेहमानों ने खाना नहीं खाया हो तो वह पटवारी चौकी के पीछे बने भोजन पंडाल में जाकर खाना खा ले! मुझे चाय पीनी थी इसलिए प्रदीप जी मुझे लेकर पंडाल जा पहुंचे जहाँ आदमकद कड़ाईयों में भोजन बन रहा था और परोसा जा रहा था! इन बर्तनों को देखकर तो लग रहा था कि ये सब बहुत पुराने काल के निर्मित हैं क्योंकि इतने बड़े बर्तन ज़रा कम ही दिखने को मिलते हैं! ग्रामीणों को भला कहाँ फुर्सत थी कि वह कुछ कह सकें क्योंकि वे सब यंत्र चालित अपने मेहमानों की सेवा भक्ति में लगे थे! बाहरी गाँवों से आये मेहमान रघुनाथ मंदिर प्रांगण में ही महासू की आराधना में रात गुजार रहे थे और लाउडस्पीकर पर स्वर गूँज रहा था –
साठीयो-पान्सायो रात बियाणी, मासू का ओलों न रात बियाणी!
गोइरा-नठाणा देवलांग लाई! बियाली खबरेटयूँन देवलांग सजाई!

लगभग पौने पांच बजे! सच कहूँ तो मेरी घड़ी तब 4 बजकर 48 मिनट का समय बता रही थी! अँधेरे से उजाले की ओर बढ़ते क़दमों के साथ चांदी के ढोल व चांदी के ही रणसिंघा के साथ शोर गुंजायमान हुआ! भीड़ इतनी की मुझे सुरक्षित स्थान तक पहुँचने के लिए भीड़ के धक्कों से गुजरकर खुद व कैमरे को बचाने की भारी मशक्कत करनी पड़ी! बड़े-बड़े ओले/ब्याठे/छिल्ले (चीड़ देवदार की लकड़ी के उस भाग से बनी मशाले जिस पर उनका गोंद लगा होता है व वह तेजी से जलता है!) लिए ढोल की धुन के साथ लोगों ने प्रवेश किया! पता चला ये साठी के लोग हैं जिन्होंने मंदिर प्रांगण में पहुंचकर अपनी लाठियों व ओलों के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया और फिर मंदिर परिक्रमा भी! दूर से सिर्फ झुमाइलो का ही समूह गान सुनाई दे रहा था लेकिन जैसे ही नजदीक पहुंचा तो शब्द कुछ यूँ कानों तक पड़े! सतफुलटिया झुमाईलो, झुमाईलो भई झुमाईलो! ऐसे शब्द मैंने कहाँ सुने होंगे अभी मन ह्रदय यहीं ढूंढ रहा था कि परिकल्पना व सोच जौनसार के आंगनों में जा पहुंची जहाँ पुरानी दीवाली में मैंने ये शब्द कुछ यों सुने थे!
सुनफुलटिया झुमाइलो, झुमाईलो मेरो झुमाईलो!
कति रूपाईलो रुमाईलो! रुमाईलो मेरो रुमाईलो!
बहरहाल यह लोक संस्कृति के रूप हैं जिसमें मदमस्त नृत्य करते साठी खेमे के लोग उल्लास मनाते नजर आये! प्रदीप रवांल्टा बताते हैं कि इन मशालों को बनाने के लिए ज्यादात्तर लोग सूखे चीड के पेड़ों के अंदरूनी भाग का इस्तेमाल करते हैं जिन्हें मजबूती से बाँधने के लिए रिंगाल को छीलकर लपेटा जाता है जबकि देवलांग पर बाँधने वाली लकड़ियों को मालू की बेल को छीलकर बाँधने का उपक्रम होता है ताकि वे जले नहीं!
अभी इधर परिक्रमा चल रही थी कि दूर मन्दिर के पिछले भाग से मशालों के बिशाल जलूस के साथ ढोल की आवाज के साथ हल्ला गूंजा पता चला पान्साई खेमे के लोग आ गए हैं! यहाँ मंदिर के पुजारी सियाराम गैरोला बताते हैं कि साठी अर्थात सौ कौरव और पान्साई यानी पांच पांडव! लोगों का मानना है कि इसमें 85 गाँव के लोग सम्मिलित होते हैं जबकि 32 गाँव गैर बनाल के साठी-पान्साई इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं! आपकी जानकारी को बता दें कि देवलांग जंगल से लाने का जिम्मा गैर-नठणा के लोगों पर होता है! जबकि बियाली खबरेटी इसको सूखी लकड़ियों से सजाते हैं! और कोटि-बखरेटी के इस पर तिलक लगाते व तिलक पाते हैं!
आपको बता दें कि पौराणिक काल में देव डोखरी नामक स्थान जो कोटि गाँव में है वहां इस क्षेत्र के ग्रामीणों का पुराना देवता निवास स्थल बताया जाता रहा है लेकिन कालान्तर में नया मंदिर गैर में रघुनाथ का बनाया गया है ! आज भी वह देव डोखरी खेत देवता को चढ़ाया हुआ बंजर खेत है! कोटि गाँव के चौखट इस बात की प्रमाणिकता हैं कि सर्व प्रथम देवता ने अपने लिए वही स्थान चुना होगा! कहते हैं देवडोखरी में यहाँ भी महासू या रघुनाथ की मूर्ती  हल लगाते हुए  प्रकट हुयी थी व उनकी नाक में हल का फल लग गया था! जिसकी खरोंचे वास्तविक मूर्ती व मोहरों पर थी जिसे बाद में चुरा लिया गया था!
अब तक पान्साई का खेमा भी मंदिर प्रांगण में पहुँच चुका था और भीड़ इतनी की एक दूसरे पर चढने को आतुर! बस मैं दूरदर्शन के पत्रकार किसी तरह मंदिर के बाहर स्थित नंदी बैल की ओट लेकर खड़े थे जबकि माइक पर मंदिर समिति के कोई सज्जन बहुत ही शिष्ट शब्दों में दिशा निर्देश दे रहे थे ताकि उन्माद में बहकर कोई झगडा न बढ़े! साठी-पान्साई के लोगों के हाथों में डंडे और ओले लहरा रहे थे! लगभग साढ़े पांच बजे सुबह का वक्त हो चुका था साठी –पान्साई के खेमे ढोल बाजों के साथ मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे! सच कहूँ तो युवा अपनी अपनी ताकत का परिचय देने के लिए हवा में आपसी लाठियां भांजते हुए यह जता रहे थे कि साठी वालों सावधान और साठी वाले मानों कह रहे हों –पान्साईयों सावधान ! हम मुकाबले के लिए तैयार हैं!
मेरी हमेशा ये आदत रही है कि किसी भी पर्व में जाने से पहले उसके बारे में कुछ न कुछ टटोल लेता हूँ इसलिए मैं बेहद सावधानी के साथ हर कदम पर चौकन्ना था या यूँ कहूँ खुद से खुद की सुरक्षा के लिए हर समय सुरक्षित स्थान मेरी आँखें तलाश रही थी! मैंने एक व्यक्ति को पूछा आखिर अभी तक देवलांग खड़ी क्यों नहीं की गयी! वह बोले- अभी जरा हल्का उजाला होने दो वरना साठी-पान्साई में कोई भी कभी भी कुछ कर देता है तो पता नहीं चलता किसने किया!
मैं समझ गया था कि यह सब क्या कहना चाह रहे हैं! दरअसल साठी के सौ कौरव भले ही कहलाये जाते हैं लेकिन उनके पास पान्साई यानि पांच पांडवों से औसतन बहुत कम गाँव हैं! साठी खेमे में कोटि, गैर, बियाली, गौल, अरुण, घंडाला, हिडक, सेडक, छत्री, भानी, थानकी, बिस्याटगाँव, गडोली, पौड़ी व चौंसाल आते हैं! जबकि पान्साई खेमे में बखरेटी, पुजेली, गुलाड़ी, कूणी, जेष्टाड, करनाली, बिगराडी, कांडा, डेल्डा, सिसाला, नथैडगाँव, कोटला, जखाली, धौंसाली, घुण्ड, नाल्ड, कूड, छीटी व सेना इत्यादि गाँव आते हैं!
पूर्व में देवलांग का मतलब साठी और पान्साई दोनों खेमों में झगड़ा प्रमुख वजह मानी जाती थी! शायद यह इसलिए भी होता था कि तब पढ़ा लिखा शिक्षित समाज कम था और हार जीत ही प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा हो! उस समय प्रातः काल तीन बजे देवलांग चढ़ाई जाती थी ओलों की जितनी रोशनी हो उसी में यह सब होता था! सडक बिजली तो क्षेत्र में दूर दूर तक नहीं होती थी! ऐसे में जिसका जैसा दांव लगा वही होता था! कहते हैं परम्पराओं में साठी के लोग देवलांग खड़ी करते समय भरसक कोशिश करते थे कि पान्साई खेमे के लोग उनके मंदिर को नुक्सान न पहुंचा सकें! क्योंकि पान्साई खेमा देवलांग को मंदिर में गिराने की चेष्टा करता था ताकि मंदिर के मुख भाग के उपर बनी काष्ठ की बकरियों को हानि पहुँच सके व वे तोड़ी जा सकें! यह परम्परा आज से 30 या 40 बर्ष पूर्व तक रही हैं और कई बार ऐसा हुआ भी जब पांसाईं इस मामले में कामयाब भी हुए! बस यही झगडे की वजह बनती थी और लाठियां एक दूसरे पर बरसने लगती थी! तब अँधेरे में यह पता ही नहीं चलता था कि कौन किस पर लाठी भांझ रहा है! साठी खेमे के घंडाला व हिडक दिखने के छोटे गाँव थे लेकिन यहाँ कई दबंग पैदा हुए हैं ! ऐसा ही एक घंडाला गाँव का हरीशाह हुआ जिसकी चौड़ी पीठ चौड़ी छाती पर बड़े बड़े कान थे! वह अक्सर देवलांग गिरने से बचाने में महारथी समझा जाता था! एक बार जब यह सब देवलांग बचाने गिराने का खेल हो रहा था तब किसी ने हरी शाह पर लाठी से वार किया यकीन उसे पता तक नहीं चल कि उसका कान कटकर कहीं गिर गया है! खून बहाना या बहना वीरता की निशानी जो ठहरी सुबह देखा तो हरिशाह का एक कान लापता है! फिर कान ढूंढा गया!
ग्रामीण बताते हैं कि देवलांग काटते समय कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है! जैसे वह सीधी हो कहीं से उसका कोई अंग-भंग न हो! इसे गैर गाँव के उपर मडकेश्वर नामक स्थान व उसके आस-पास से काटा जाता है! एक बार तो चार बार देवलांग गाँव तक पहुंची लेकिन रास्ते में टहनी टूटने के बाद पुनः वापस जाना पडा! ग्रामीण बताते हैं कि हाल के ही कुछ बर्ष पूर्व साठी पांसाईं के ध्वन्ध में देवलांग चढाते वक्त उसका एक सिरा टूट गया तब रातों-रात देवलांग काटकर लाई गयी!
बहरहाल इसे कुछ लोग पुरानी दीवाली से जोड़कर देखते हैं तो कुछ गढ़ सेनापति माधौ सिंह  भंडारी की जीत से  तो कुछ राजा राम के राजतिलक से! यहाँ कई तो यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि माधौ सिंह भंडारी ने गोरखा आक्रमण में विजयी पाई तब यह मनाया गया ! जितनी मुंह उतनी बातें लेकिन मेरा अपना मानना है कि यह प्रथा द्वापर युगीन है क्योंकि साठी और पान्साई दो धडों का इस तरह इकठ्ठा होना और फिर अपनी अपनी जोर आजमाइश करना यह साबित करता है कि कहीं न कहीं यह पौराणिक पर्व द्वापर के कौरव पांडव वंशजों से जुड़ा हुआ है! आपको बता दें कि सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र (गढ़-कुमाऊँ, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर) यों भी कुबेर का माना जाता है और कुबेर के रूप में द्रयोधन को भी देखा गया है क्योंकि पांडव जब लाखामंडल में बसाए गए थे तब द्रयोधन को ही पांडवों ने अपना भण्डार सौंपा था! द्रयोधन जानबूझकर ज्यादा से ज्यादा अन्न धन गरीबों को बाँट रहा था लेकिन वह कम नहीं हो रहा था यह बात श्रीकृष्ण को पता थी इसलिए उन्हीं के कहने पर उन्हें यह सब करने को कहा गया था अर्थात श्रीकृष्ण जानते थे कि द्रयोधन कुबेर का स्वरूप है! इसलिए आज भी गढ़वाल के पर्वत क्षेत्र के राजा समसू को आज से लगभग 20-25 बर्ष पूर्व तक ही दर्योधन के नाम से जाना जाता रहा है! शिक्षित समाज ने अपने को दर्योधन वंशज कहलाने में शायद शर्म महसूस की इसलिए इसका स्वरुप बदलता हुआ अब सोमेश्वर हो गया है जो न सिर्फ यमुना घाटी बल्कि गंगा घाटी के कुछ स्थानों में पूज्य है! यहाँ भी साठी खेमा आज भी अपने को कौरवों का वंशज कहता है और पान्साई पांडव वंशज! कहते हैं जब महाभारत हुआ और पांडव विजय हुए तब भी बचे हुए कौरवों ने हिमालयी क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाया पीछे पीछे पांडव भी आये और एक के बाद एक क्षेत्र जीतते रहे! हो न हो साठी पान्साई भी इसी ओर इशारा कर रहा हो क्योंकि पान्साई आखिर क्यों मंदिर को नुक्सान पहुंचाना चाहते थे क्यों फिर देवलांग पर आग लगाकर विजयी पर्व मनाया जाता है! आज भी यह परम्परा चलती आ रही है कि साठी जब पान्साई के साथ मंदिर प्रांगण में देवलांग खड़ी करते हैं तब अपने बड़े बड़े लाठी-बलिचों के साथ मंदिर की ओर से हर सम्भव कोशिश करते हैं कि देवलांग मंदिर में न गिरे! देवलांग खड़ी करके साठी के लिए पान्साई के लोगों को विजयी तिलक लगाकर पहले उन्हें देवलांग पर आग लगाने का अधिकार देते हैं! वहीँ साठी के कोटि व पांसाईं के बखरेटि के लोग एक दूसरे को तिलक करते हैं!
यह बहुत सुंदर परम्परा हो गयी है कि शिक्षित समाज के मन से वह सब भाव दूर हो गए हैं जिसमें सामाजिक बुराई की झलक थी अब यह पर्व बेहद भाई चारे के साथ मिलजुल कर पूरा किया जाता है! अर्थात आखिर बुराई पर सच्चाई की जीत होती है! देवलांग जलाने के दिन जहाँ पान्साई खेमे के लोग उसी दिन अपने अपने घरों में पांडव अवतरण करते हैं वहीँ उसके अगले दिन अपनी जीत का जश्न खत्म कर जिन पर पांडव पश्वा अवतरित होता है वे अपने पूर्वज पांडू व उनके वंशजों का श्राद्ध करते हैं! आप भी vedio देख उठाये इस पर्व का लुत्फ:-

4 thoughts on “रवाई घाटी की देवलांग…..! साठी-पान्साई का नहीं अपितु कौरव-पांडव वंशजों का अंतिम ध्वन्ध युद्ध!

  • December 30, 2018 at 6:49 am
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    बहुत सुन्दर लिखा है सर। । कुछ जानकारी हम भी आप से साझा करते अगर आप से मुलाकात होती।।।।।।।9756603803 Neeraj Chauhan Bakhreti banal!!!!??

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  • January 4, 2019 at 4:07 am
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    Its my humble request ,before writing some facts you should be aware about the real history and cite some real reasearchers who has done ph.D . Please never write some myths so that my area is potrayed differently as only becauase of you point of view

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    • January 4, 2019 at 4:46 am
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      कृपया दिशा निर्देश देने का कष्ट करें! वह कौन से तथ्य प्रमाणिकता के साथ आपके पास उपलब्ध हैं जिनकी आप बात करना चाह रहे हैं और अगर हैं तो आज तक उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करने में इतनी लेटलतीफी क्यों हुई! यह सब जितना भी लिखा गया है मेरे द्वारा अपने मनमर्जी का नहीं लिखा गया है बल्कि क्षेत्रीय कई विद्वत जनों से राय के बाद लिखा गया है! आप स्पष्ट करने की कृपा करें कि साठी पंसाई दो धड़े नहीं हैं! कृपया जिन फैक्ट्स को आप लाने के बाबत कह रहे हैं उन्हें विस्तारित समझाने का कष्ट करें क्योंकि घर में राखी जानकारियाँ कभी किसी के काम नहीं आती और अगर ऐसी जानकारियाँ उपलब्ध हैं तो समाज को देने की कृपा करें!
      रही पीएचडी करने वाले शोधार्थियों की बात तो सच मानिए कई लोग मुझसे उत्तराखंड की लोक संस्कृति व लोक समाज की जानकारी के लिए राय लेते हैं! पीएचडी करके डॉक्टरेट का तमगा हासिल तो किया जा सकता है लेकिन सिर्फ किताबी संदर्भों से संदर्भ ग्रहण कर नहीं! मान्यवर, हम सबकी पुरातन परम्पराओं का लेखा जोखा हमारे पास किताबों से कम बल्कि किंवदन्तियों,जागरों,लोकगाथाओं में ज्यादा वर्णित रहा जिन्हें सुनाने वाले ज्यादात्तर जन अनपढ़ कालिदास रहे और ये सब एक सदी से दूसरी सदी तक गुजरती हुई आगे बढती गयी! मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि मैं ऐसे मुद्दों पर हर पहलुओं पर चिंतन मनन और शोध के बाद ही लिखूं! देवलांग पर लिखा गया साहित्य शायद कहीं भी पूर्ण नहीं है इसलिए उसकी पूर्णत: का यह प्रयास मात्र है!

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