रवाई घाटी का सपनों का गाँव…! जहाँ एक भी ब्यक्ति शराब के नशे में नहीं दिखा!

क्या आज वर्तमान परिवेश में उत्तराखंड के किसी गाँव की ऐसी परिकल्पना कर सकते हैं जहाँ पूरा गाँव आबाद हो लेकिन नशा गाँव की सरहद तक न छूता हो! आज जबकि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद पूरे प्रदेश के गाँव गाँव के छोटे छोटे कस्बों की छोटी-छोटी दुकानों में शराब माफियाओं के काउंटर खुले हैं ऐसे में रवाई घाटी का कोई गाँव ऐसा भी है जहाँ शराब क्या कोई भी नशा गाँव में नहीं दिखता!


तिलाड़ी काण्ड के जननायक स्वतंत्रता संग्राम सैनानी दयाराम रावत (रवांल्टा) व उनके पुत्र सुप्रसिद्ध समाजसेवी जोत सिंह रवांल्टा का आवास

कंसेरू…………! एक ऐसा गाँव जहाँ की सौंधी माटी में पहुँचते ही आपको लगेगा कि क्यों पहाड़ में अतिथि देवतुल्य माने जाते है! यह वही गाँव हैं जहाँ तिलाड़ी काण्ड के जननायक स्वतंत्रता संग्राम सैनानी दयाराम रावत (रवांल्टा) व उनके पुत्र सुप्रसिद्ध समाजसेवी जोत सिंह रवांल्टा पट्टी मुगरसंती, तहसील बडकोट जिला उत्तरकाशी की धरती पर जन्मे उन पुरोधाओं में गिने जाते हैं जिनका नाम पूरी रवाई घाटी में बड़े आदर के साथ लिया जाता है….! अतिथि देवो भव: की लोक सामाजिक परिकल्पनाओं के इस गाँव में जब आपका स्वागत यहाँ के शुद्ध खानपान झंगोरे की खीर, मंडूवे की रोटी, पिंडालू के गुटके, हरी पालक, राई की सब्जी, तोर व राजमा की दाल के साथ हो तो सच कहिये सारी थकान क्षण में उतर गयी!

कंसेरू गाँव

यह पहाड़ का मेरी नजर में पहला गॉव मुझे दिखने को मिला जहाँ 150 परिवार रहते हों सभी घर सरसब्ज हों और शांयकाल में एक भी ग्रामीण के मुंह से शराब की खुशबु या बदबू आई हो! मैं हतप्रभ इसलिए भी था क्योंकि यहाँ राणा और रावत दोनों ही राजपूत बाहुल्य के लोग हैं उसके बाद भी एक मात्र हरिजन परिवार का व्यक्ति ग्राम प्रधान है! इससे भी बड़ी बात यह है कि इस गॉव के प्राथमिक विद्यालय की दोनों अध्यापिकाएं देहरादून व ऋषिकेश की हैं लेकिन मुख्य बाजार बडकोट से लगभग 8 किमी. दूरी स्थित गॉव में ही ये अध्यापिकाएं रहती हैं जिनका कहना है कि इस गॉव में कभी उन्हें ऊँची आवाज़ या गंदे लहजे में बात करने वाला व्यक्ति नहीं दिखा! ऐसी धरती को सचमुच चूमने का मन होता है.!

कंसेरू गाँव में आज भी गाँव की 100 प्रतिशत आबादी रहती है! यहाँ पलायन होता क्या है यहाँ के लोग नहीं जानते! ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के लोग ऊँचे पदों पर कार्यरत न हों, लेकिन अपने गाँव की माटी व उसकी उर्वरा शक्ति से इन्हें इतना प्रेम है कि इसे छोड़ने का मन एक पल के लिए भी इनके दिलोदिमाग में नहीं आता! ऐसे में भला अपना गाँव व उसमें जिये लकड़पन के पल किस इंसान को याद नहीं आते! यकीन मानिए रवाई घाटी के इस गाँव पहुंचकर मुझे तब अपना गाँव बहुत याद आया क्योंकि उसकी भौगोलिकता का मिलान काफी हद तक कंसेरू से मिलता जुलता है! मैं कई घरों में बैठा चाय पी, दूध पीया और पहाड़ जैसा आत्मीय शुकून भी पूरा पूरा लिया! तब से अब तक यही मन होता है कि – “आ अब लौट चलें गाँव की ओर…!”

विगत 2015 में “पलायन एक चिंतन” की टीम के संरक्षक रतन असवाल द्वारा यहाँ के जनसहयोग से इस गाँव में एक दो दिनी कार्यशाला आयोजित करवाई गयी थी जिसमें क्षेत्रीय समाजसेवी व कांग्रेसी प्रवक्ता विजयपाल सिंह रावत ने बड़ी भूमिका निभाई थी! तब इन ग्रामीणों से हमने कई जानकारियाँ जुटाई थी कि बिना पानी के उखड़ जमीन पर कैसे वे इतनी पैदावार उत्पन्न कर पाते हैं जो उनकी तमाम आय का जरिया बन जाती है! कैसे यह गाँव आपसी भाई चारे की मिशाल कायम करता है और किस तरह यहाँ छोटे बड़े को न्यायोचित्त सम्मान देने की परम्परा है! मेरा मानना है कि ग्रामीण परम्पराओं की सुचिता की जानकारी लेने के लिए हमें कंसेरू गाँववासियों से सीख लेनी चाहिए!

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