रवाई की बनाल पट्टी के पांसाई खेमे के लोग करते हैं पांडवों का श्राद्ध। खोलते तेल से निकालते है फल(पुवे) व पूड़ी।
रवाई की बनाल पट्टी के पांसाई खेमे के लोग करते हैं पांडवों का श्राद्ध। खोलते तेल से निकालते है फल(पुवे) व पूड़ी।
(मनोज इष्टवाल)
ये सचमुच आश्चर्यजनक है कि हमारी लोक परंपराओं में आज भी द्वापर युग में जन्में पांडव वंशी जीवित हैं क्योंकि आज भी ये लोग अपने वंशजों का तर्पण व श्राद्ध करते हैं। यह प्रचलन आज भी तमसा व यमुना घाटी क्षेत्र के जौनसार व रवाई जौनपुर के पांडव वंशजों में सदियों से चलता आ रहा है। और यहीं से शुरू होता है एक ऐसा पटाक्षेप जिसकी परत दर परत को समझने व उस पर शोध करने के लिए हमने समय नहीं निकाला।
यमुना क्षेत्र के रवाई का गैर गांव पट्टी बनाल में आयोजित होने वाले भव्य देवलांग मेले का सच सामने रखने से पूर्व में उस त्यौहार पर लिखना पसन्द करूँगा जिसकी बिषय वस्तु को आज तक ढंग से उकेरा ही नहीं गया। विगत 7 दिसम्बर 2018 को पत्रकार मित्र प्रदीप सिंह रावत रवांल्टा को मैंने पुजेली गांव पहुंचकर तब फोन किया जब रूमझूमी संध्या काल का पहर चल रहा था। उन्होंने मुझे कहा कि मैं सीधी रोड पकड़कर गडोली से दांयी सड़क होता हुआ उनके गांव बिगराडी पहुंच जाऊं। जब मैं उनके गांव पहुँचा तब वे अपने तिमंजले विशाल मकान की आंगन में चीड़ के ब्याठे (ओला/होला) बनाने में ब्यस्त थे जिन्हें रात को प्रकाश देकर प्रकाश पर्व के रूप में पुरानी दिवाली के रूप में परिणित किया जाना था।
शानदार आलू लहसुन की भरवा पूड़ी व दही घी भरे कटोरे के स्वाद के बीच बातों का दौर चला तो पता चला प्रदीप अभी दो तीन दिन गांव ही रहेंगे क्योंकि उन्हें पांडवों का श्राद्ध देना है। यह मेरे लिए चौंकाने वाली खबर थी। उन्होंने बताया उन पर अर्जुन का पश्वा उतरता है इसलिए भी उन्हें यहां देवलांग के तीसरे दिन यह सब प्रक्रिया करनी पड़ती है। यह सिर्फ उन्हें ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र के लगभग सभी गांव में होता है।
ज्ञात हो कि रवाई के बनाल पट्टी जिसे कोई कोटि बनाल कहता है तो कई गैर बनाल के 85 गांव में साथी (सौ कौरव) व पांसाई (पांच पांडवों) के वंशज आज भी रहते हैं जिनमे ज्यादात्तर गांव पांसाई थोक के हैं। और पांसाई देवलांग के दूसरे दिन गैंडी नृत्य करते हैं तदोपरांत अगले दिन पांडवों का श्राद्ध व तर्पण कर उनके स्वर्गलोक की कामना करते हैं।
प्रदीप बताते हैं कि उन्हें श्राद्ध वाले दिन सुबह 4 बजे उठकर नहा धोकर पांच गोली आटे के फल (पुवे) व पूड़ियाँ खुद बनानी पड़ती हैं। ढोली ढोल बजाता हुआ पांडव जागर लगाता है व जिस पर पांडव पश्वा उतरता है उसे फल व पूड़ी बनानी होती है। तब उन्हें किसी झरने से नहीं बल्कि खौलते तेल में हाथ डालकर स्वयं निकालना पड़ता है। यह देव कृपा ही है कि खौलते तेल में हाथ डालने के बावजूद भी हाथ नहीं जलता।
(फ़ाइल फोटो)
पांडवों के श्राद्ध से पूर्व पांडव मंडाण लगाया जाता है जिस में पांच भाई पांडवों के पश्वा उतरते हैं व खूब नृत्य करते हैं। तदोपरांत निर्पणि की खीर (बिना पानी मिलाए दूध की खीर), नमकीन भात, पूड़ी, पिसे चावल इत्यादि से श्राद्ध प्रक्रिया निबटाई जाती है व कांस घास का पुल बनाकर उसे नदी में बहाया जाता है।
प्रदीप इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि साठी खेमे के लोग पांडव श्राद्ध करते हैं कि नहीं लेकिन वे यह यह जरूर कहते हैं कि गैर गांव क्षेत्र में कोट की कोटाल्डी बनदेवियाँ (ऐड़ी/आँछरियाँ) होती हैं व वे ऐसे में अपना हिस्सा मांगने पहुंच जाती हैं व खूब झूलती नृत्य करती हैं लेकिन उनके क्षेत्र के डांडा दुनका की दुनकालियाँ (बन देवियां) व वीर बेताल उनके गांव बिगराड़ी की सरहद में पांडवों की केर (बंधन) के कारण घुस नहीं पाते।
यह सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है कि ये खेमे साठी व पांसाई के नाम से आज भी जाने जाते हैं लेकिन अपने को कौरव या पांडव कहलाना पसंद करते होंगे ऐसा संशय होता है। फिर भी पांसाई खेमे के लोग पांडव श्राद्ध देते हैं जिसका सीधा सा अर्थ हुआ कि ये द्वापर युगीन पांडव वंशज ही हुए।
Great sit jiii.. बहुत सुन्दर और सही बात