रवांई लोक महोत्सव…! सरनौल का पांडव/जोगटा नृत्य! जो लाल सुर्ख गर्म लोहे की छड़ों को अपनी जीभ से चाटते है!
गतांक से आगे….!
(मनोज इष्टवाल)
23 दिसम्बर 2018 हमारी टीम रवांई भ्रमण पर पिछले दिन से थी जिसका ब्यौरा मेरे द्वारा पिछले लेख में रखा गया था ! आज भी हम घूम फिर कर उसी लोक संस्कृति के पंडाल में आ पहुंचे थे जहाँ रवांई लोक महोत्सव के सतरंगी रंग बिखरे हुए थे ! विगत दिन यह पीड़ा साल रही थी कि काश…हम रवांई घाटी की संस्कृति के दर्शन कर पाते ! काश…यहाँ की पोशाकों में लक-दक लोक समाज को देख पाते! लेकिन आज ख़ुशी हुई कि 10 प्रतिशत ही सही यहाँ का जनमानस अपनी लोक समाज,संस्कृति के रंगों में रंगकर मेले में पहुंचा है! आज अपेक्षाकृत दुगनी भीड़ थी! हम आपस में बात कर ही रहे थे कि आज तो कमाल की भीड़ इकठ्ठा हुई है तब बगल में खड़े एक व्यक्ति बिना पूछे ही जवाब देते हैं – होनी ही थी आज सरनौल गाँव से पंडो टीम जो आई है!

सच कहूँ तो मैंने भी सिर्फ सरनौल के पंडों का सिर्फ नाम ही सुना था जबकि सरनौल गाँव में पूर्व में कई बार जा चुका था! हम घूमते हुए पंडाल के पिछली तरफ की दुकानों की तरफ गए ! यही देखने की यहाँ लोकल उत्पाद आखिर हैं क्या? अभी पहली दूकान में पहुंचे ही थे कि एक खूबसूरत सी महिला का धमकता चेहरा मेरी ओर घूमा और बोली- नमस्ते भाई जी, कदि आई रोय तू! पछयाणी मूखै कि ना! मैं थोड़ा सा विस्मित हुआ फिर दिमाग पर जोर डाला व बोला- ठाणा से है ना! वह हंसती हुई गले मिलती बोली! – ओs, शुक्र है पहचान लिया! मैंने कहा जौनसार से इतनी दूर कैसे तो बोली- भाई जी, ये मेरे पति हैं ये मेरा बेटा है! और यहीं मेरी ससुराल है! चल दार कैs…! मैंने कहा- नहीं रे इतना ही काफी है कि तुमने मुझे इतनी दूर पहचान लिया! घर फिर कभी आउंगा!
सचमुच यह भुली (बहन) तब छोटी हुआ करती थी जब मैं जौनसार के ठाणा गाँव जाया करता था! शायद आठवीं या नवीं कक्षा में तब पढ़ती रही होगी! खैर मैंने उस से विदा ली! देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल जी ने चुस्की ली! भई, इस व्यक्ति के साथ आज तक मैं जहाँ भी भ्रमण पर गया वहां कोई न कोई इसका नजदीकी मिल ही जाता है!
इस दौरान रवाई लोक महोत्सव की स्वेता बधानी, अशिता डोभाल आई और हमें अतिथि देवो भव: की परम्परा के साथ “रवांई रसोई” में ले गयी! जहाँ एक दुबली पतली काया कि आकर्षक महिला ने हमारा अभिवादन कर सुंदर पत्तलों में हमारे लिए रवाई घाटी में बनने वाले पकवान परोसे! इतने स्वादिष्ट पकवान कि नौगाँव के पद से बहने वाली जमुना मानो उपर आकर हमारी भूख को तृप्त कर रही हो! मैंने जब उन्हें ठेठ रवांई की भेष-भूषा में देखा तो मुंह से निकल ही गया काश…आपके हाथ का स्वाद हम देहरादून में भी चख पाते! वह बोली- भाई जी, चिंता न करें मैं देहरादून ही रहती हूँ! जब कभी भी कोई ऐसी पार्टी वगैरह हो तो हमें बता दिया करें ! बातों बातों में परिचय हुआ तो पता चला इनका नाम खुद श्रीमती जमुना रावत है!

उनके हाथ से बने ठेठ रवांई के पकवान जिनमें सीडे, गिंडके, मास की दाल के पकोड़े,झंगोरे की खीर, मसूर की बड़ी, तिल की कुंचई, जम्यूँ दूध, घी इत्यादि प्रमुख थे ! अहा स्वाद इतना कि अंगुलियाँ चाटने को मन हो रहा था! अभी हमने यह भोज्य निबटाया ही था कि ढोल की आवाज सुनाई दी! हम पंडाल के पिछवाडे में थे आवाजें गूंजने लगी- चलो, चलो सरनौल के पंडों आ गए!
हम भी भीड़ के साथ भीड़ में शामिल हो गए! देखते क्या हैं कि इतनी सर्द ठंड के बावजूद चार पांच व्यक्ति जो पचास की उम्र पार के थे ढोल के साथ सिर्फ एक जांघिया पहने, बदन पर राख मले! गले सिर व कमर में केदारपत्री पहने मंच की तरफ बढ़ रहे हैं इसी उम्र की चार पांच महिलायें उनके साथ थी और वे ठेठ रवाई घाटी के पहनावे में थी! उनके बाल फैले हुए थे और वो भी मंच की ओर बढ़ रही थी! मंच में पहुँचते ही ढोली ने उनसे उनका परिचय जानना चाहा तो उनका जबाब था हम ठहरे जोगटे बस घूमना ही हमारा काम है! तू बता क्या तू हमें अपने ढोल में नाचा पायेगा! ढोली अपने संवाद में कहता है – नचा तो मैं दूंगा लेकिन अपनी शर्तों पर..! और यदि तुमने मुझे प्रसन्न कर दिया तो राजा से कहकर मैं तुम्हे अपने राज्य में रुकने की ब्यवस्था करूंगा!
इस दौरान ये जोगटे नृत्य करते हैं तो ढोली ब्यंग कसता है कि जरा पंडो नृत्य करके दिखाओ तो मानें! ये जोगटे पंडों नृत्य करते हैं इनके साथ महिलायें भी मंच में नृत्य करती हैं और तो और दर्शक दीर्घा से कई महिला-पुरुषों पर भी पांडव अवतरित होते हैं जो मंच की ओर बढना शुरू करते हैं लेकिन उन्हें वहीँ रोक दिया जाता है क्योंकि मंच इतना माकूल नहीं था कि बड़ी संख्या में लोग वहां नृत्य करते! एक पंडित कुछ मन्त्र बुदबुदाकर उनके सिर पर चावल लगाता और एक एक करके सब शांत हो जाते! इन पंडो को देखने के लिए मानों पूरा रवांई आज रवांई लोक महोत्सव में उतर आया हो! भीड़ बढती ही जा रही थी लेकिन मुझे निराशा यह हुई कि अभी पंडों का आधा ही नृत्य हुआ था और मंच से घोषणाएं शुरू होने लगी कि सरनौल के पंडों आपके बीच दुबारा से उपस्थित होंगे! मेरा मन था मैं उन्हें लोहे की गर्म लाल सुर्ख सलाखें चाटते देखता ताकि आँखों को विश्वास हो सकता कि आज भी इस देव भूमि में देवताओं का वास है! इधर इंद्र सिंह नेगी भार्गव चंदोला व दिनेश कंडवाल जी की चाबी कस चुके थे कि अब निकल चलो कुछ नहीं बचा देखने के लिए! दिनेश कंडवाल जी ने आव देखा न ताव बड़ी अजीब सी सिफारिश मेरे आगे रख दी- आपको देखना है तो बस पकड़कर लौट आना हम तो निकल रहे हैं! मैं आवाक रह गया क्योंकि ऐसा वे कैसे कह सकते हैं यह समझ से परे था क्योंकि यहाँ तक लाने की प्लानिंग तो मेरी थी फिर जाने की यह अचानक प्लानिंग कहाँ से बन गयी वह भी ऐसी आड़ी-तिरछी शर्त थोपकर! मैंने भार्गव चंदोला जी की तरफ देखा तो वो तपाक से बोले- भाई जी, मैंने तो कह दिया है कि मैं आपके कहने पर आया हूँ इसलिए जैसा आपका आदेश होगा वही करते हैं! मुझे लगा मुझे सर्व सम्मति के साथ चलना चाहिए व आधा कार्यक्रम छोड़कर उनके साथ हो लिया!
इस से पहले इतना कुछ तो कर ही लिया कि सरनौल से आये इन पंडो से पूछ चुका था कि आखिर यह भेष और इस नृत्य का क्या मतलब हुआ जिसका उन्होंने जबाब दिया कि यह पांडवों के गुप्तवास के दौरान रवाई घाटी के भ्रमण के दौर से प्रचलन में आया मुख्यतः जोगटा नृत्य है जो पांच पांडव द्रोपदी के साथ जोगी भेष में यहाँ निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे! और इसके पश्चात् ही वे राजा विराट के वैराठ गढ़ गए जहाँ उन्होंने विभिन्न रूपों में अपना गुप्तवास व्यतीत किया!
मेरी मन इच्छा तब पूर्ण हुई जब कोटि-बनाल के गैर गाँव में आयोजित देवलांग पर्व के रोज यहाँ सरनौल के पांडव दुबारा अवतरित हुए एवं मेरी आँखों ने उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आग की भट्टी से निकलती गर्म लाल सुर्ख लोहे की सलाखों को चाटते देखा! सच कहूँ तो यही असली लोक के दर्शन हुए जो रवांई लोक महोत्सव का मुख्य उद्देश्य भी है!
आप भी देखिये पांडवों का जोगटा नृत्य:-
https://youtu.be/6ZZ7J3cgDKM