रमेश पहाड़ी के पत्रकारिता के 50बर्ष!

रमेश पहाड़ी के पत्रकारिता के 50बर्ष!

पत्रकारिता को 50 बर्ष देने वाले वरिष्ठ पत्रकार रमेश पहाड़ी ने इन पचास बर्षों में पत्रकारिता को किस रूप में जिया, पढ़िए स्वयं  रमेश पहाड़ी की कलम से-

2 मई है. आज से 50 वर्ष पहले यानी 2 मई 1967 के दिन मैंने पहली बार एक समाचार अपने हाथों से लिखा था. तब मैं छपाई के बारे में तो बहुत जानने लगा था लेकिन समाचार कैसे लिखना है, यह बिल्कुल नहीं जानता था. पत्रकार बनूँगा, यह तो कभी कल्पना भी नहीं की थी.
तब मैं नागपुर (महाराष्ट्र) में एक छोटे से प्रिन्टिंग प्रेस में काम करता था. दिन भर काम करने के बाद रात को जवाहर नाइट कॉलेज में पढ़ने जाता था. तब मैं 10वीं का छात्र था. वहाँ सरकारी दफ़्तरों के दो कर्मचारी, अवस्थी जी और शुक्ला जी भी पार्ट टाइम टीचर के रूप में पढ़ाने आते थे. अवस्थी जी हमें हिन्दी पढ़ाते थे और उ. प्र. का होने तथा मेरी हिन्दी ठीकठाक होने के नाते मुझे अच्छा मानते थे. वहाँ हम हिन्दी भाषियों का एक संगठन भी था और हम नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य भी साथ-साथ थे.
मैं गोविंद राव नामक अपने एक दोस्त के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्यालय भी कभी चला जाया करता था, जहाँ सी पी आई के नेता ए बी बर्धन और आसन दास कल्याणी जी से भेंट होती. कल्याणी जी बुकसेलर थे और उनका एक छोटा-सा प्रेस भी था. पार्टी के कार्यालय में कई ट्रेड यूनियन नेता आते, उनसे भी मुलाकात होती. 2 मई को मैं गोविंद के साथ वहाँ गया तो ट्रेड यूनियनों द्वारा 1 मई को जो जुलूस निकाला गया और जो सभाएँ कीं गईं, उन पर समाचार बनाने की चर्चा हो रही थी. मुझे देख कर अवस्थी जी ने कहा कि रमेश की हिन्दी अच्छी है, समाचार ये बनायेगा. वे मुझे बताने लगे और मैं उस पर समाचार लिखता चला गया. समाचार ट्रेड यूनियन की पत्रिका के अलावा दैनिक नव भारत में भी छपा. उसके बाद वे लोग मुझसे समाचार बनवाते रहे और मैं अनचाहे-अनजाने पत्रकार बन गया. पहले तो मुझे यह काम बोझिल लगता लेकिन जैसे-जैसे खबरें छपती, मेरी तारीफ़ होती, मैं इसमें रमता चला गया !
कुछ साल फ़िर अंशकालिक और पूर्णकालिक संवाददाता रहने के बाद मैं दिसंबर 1971 में पत्नी को साथ ले जाने के बहाने घर आया लेकिन फ़िर वापस लौटने की बजाय यहीं का होकर रह गया. 9 फरवरी 1972 से देवभूमि, 1 नवंबर 1974 से उतराखंड आब्जर्वर तथा अक्तूबर 1977 से अनिकेत के प्रकाशन-संपादन के बाद अब छुटपुट लेखन हो रहा है.
अभावों और संघर्ष के बीच पत्रकारिता के कर्म और धर्म का निर्वहन करने में कोई समझौता नहीं किया. पत्रकारिता की समाज के प्रति प्रतिबद्धता को कभी कम नहीं होने दिया और पत्रकारिता के सम्मान तथा जनता के विश्वास को भी कम होने नहीं दिया. अन्याय, उत्पीड़न, शोषण व विषमता के खिलाफ हमेशा आवाज़ उठाता रहा, इसके लिए लड़ता रहा, समाज के संघर्षों में यथाशक्ति मनोयोगपूर्वक भागीदारी की और इस सब में समाज के हितों पर अपने हितों की बलि चढ़ाने में ज़रा भी संकोच अथवा सोच-विचार नहीं किया, इस बात का भरपूर संतोष है. सामाजिक उद्देश्यों में कितने सफल रहे, इसका मूल्यांकन प्रबुद्‌धजन करेंगे लेकिन अपने काम से मुझे पूरी संतुष्टि है.

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