यह शख्स बहुत अनमोल और बेजोड है । फिर शोर शराबे में गुमनाम सा क्यों है?

(वेद विलास उनियाल)

जगदीश ढौॆडियाल जैसी प्रतिभा तलाशे नहीं मिलती। साज, राग, ताल, नृत्य की शानदार समझ। एक तरफ उनके मधुर स्वर में पहाडों के गीत, फिर चाहे वह उत्तराखंड के हो कश्मीर डोगरी के या हिमाचली दूसरी तऱफ उनकी जयपुर घराने से कत्थक की पारंगता।

हेमंत कुमार , मोहम्मद रफी ही नहीं , मुबारक बेगम का , कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी जैसा गीत इनसे बस सुन लीजिए आंखे नम हो जाएगी। केवल इतना ही परिचय नहीं भारतीय शास्त्रीय संगीत पर असाधारण जानकारी। दक्षिण भारत के राग रागनियों की भी गहरी समझ।
जगदीश ढौंडियाल की प्रतिभा के कायल चंद्र सिंह राही भी थे और उत्तराखंड की लोकप्रिय गायिका रेखा धस्मानाके वह गुरु रहे हैं। रेखाजी आज भी बिजी जावा बिजी हे मोरी का गणेश जैसी वंदना गाती है तो उन स्वरों में जगदीश ढौंडियाल का कराया गहरा रियाज है।

कुछ खलता है तो यही कि संगीत की इतनी बडी बडी महफिलें सजती है। इतने बडे़ शामियाने टंगते हैं, मंत्री से संत्री, सेलिब्रिटियों खासमखास को आमंत्रण होता है, लेकिन ऐसी विलक्षण प्रतिभा को देखने सुनने निहारने से हमारा समाज वंचित क्यों रह जाता है।

कहां तो इस विलक्षण कलाकार को राष्ट्रीय -अंतराष्ट्रीय शौहरत मिलनी थी, कहां वह देहरादून की गलियों में गुमनाम- सा है । टीवी कैमरों की चमक उन तक नहीं पहुंचती। वह अलबेला है मस्तमौला है, मगर इसका अर्थ यह भी तो नहीं कि संस्कृति पर्यटन की तमाम बातों के बीच हम समाज में ऐसे अनमोल सितारों को देख न पाएं। केवल उत्तराखंड की बात नहीं। हर राज्य क्षेत्र में ऐसे कुछ जगदीश जग्गू विचरते हैं जो चकाचौंध जिंदगी की रोशनियों में नजर नहीं आते। बस कोई निजी महफिल हो तो यह जिंदगी का सुकून दे जाते हैं। संगीत क्या है, संगीत की साधना क्या है और रुह को छूता संगीत कहां पहुंचा देता है उस छोटे से पल में समझ में आता है । जिंदगी के वे खबसूरत पल होते हैं जब जगदीश ढौंडियाल जैसे लोग आपके करीब होते हैं। फिर चाहे बात संगीत की हो या कत्थक की ।

पौडी के बेजरों क्षेत्र के जगदीश जी ने 1961 में इंटर कर लिया था। गीत संगीत के रसिया थे। बचपन में रामलीला में लक्ष्मण का अभिनय किया। फिर लोकसंगीत के प्रति उनका राग जागा। लोकसंगीत की विधा में बहुत गहरे चले गए। साजों में पारंगत हुए । उनको हारमोनियम बजाते देखना बिजली की चपलता को देखना है। जयपुर घराने से कत्थक में पारंगत हुए। फिल्म संगीत में कुछ रुझान के गीतों को इस तरह गुनगुनाया कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध होते रहे।

70 साल के जगदीश ढौंडियाल जैसे कलाकार हमारे बीच होना एक विलक्षण साधक का होना है। मंत्रमुग्ध करती उनकी कला और कला संगीत की समझ आज भी समाज को बेहतर दिशा दे सकती है। समाज को लाभ उठाना चाहिए। ऐसे पारखी को मंच मिलने चाहिए । फिर वह चाहे लोककला का मंच हो या कोई लिटरेचर फेस्टिवल या सरकारी आयोजन। उनकी क्षमताएं उस अभिनय की ओर भी ले जाती हैं जहां वह अपने फेवरेट देवानंद का अभिनय करते हैं। उनकी अदा में गाते भी हैं।

राकेश भाई ने कहा आओ तुम्हें जगदीशजी से मिलाते हैं। सचमुच एक शाम धन्य हो गई। आप भी मिलिए कभी इनसे। कई गीत सुनाए उन्होंने, तुम्हारी जुल्फ के साए में शाम कर लूंगा, कभी तन्हाइयों में, है अपना दिल तो आवारा, चढ गयो पापी बिछुवा, सुहाना सफर और ये मौसम हसी। उत्तराखंडी, कुछ डोगरी कुछ हिमांचली । आइए उनका गाया एक गीत आपको सुनाते हैं।— ये रात ये चांदनी फिर कहां , सुन जा दिल की दास्तां। आप भी सुनिये:-

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