यहां अभी और बढेगी कांग्रेस में कलह ?
यहां अभी और बढेगी कांग्रेस में कलह ?
देहरादून 17 अप्रैल । कांग्रेस के लज्जाजनक रिकार्ड के साथ सत्ता गंवाने के बाद बडे नेताओं में सार्वजनिक कलह के आगे और बढने के लक्षण दिख रहे हैं । यह स्वाभाविक भी है । उपलब्धियों के लिये जहां कई दावेदार होते हैं तो नुकसान होने पर लोग उसका दोष औरों पर थोपने को आतुर हो जाते हैं ।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, जिन्होने तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के समय पार्टी का नेतृत्व भी किया है, ने पार्टी की हार की जिम्मेदारी जरूर ले ली ंलेकिन वे राजनीति से भी सन्यास ले लेंगें,यह कोई नही कह सकता। अपने लिये निजी आवास ढूंढने को भी जम कर प्रचारित करने वाले रावत ने आगे की अपनी भूमिका की तलाश में खुद को पार्टी के भावी कार्यक्रमों के लिये पार्टी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के सामने स्वयंसेवक के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन अध्यक्ष खेमे का मानना है कि रावत केवल स्वयंसेवक की भूमिका मंे तो रहने से रहे । अपुष्ट सूत्रों का मानना है कि उन्होने राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने अपनी राज्य में ही सक्रिय भूमिका के लिये प्रस्ताव भेज दिया है। इससे स्वाभाविक रूप से उपाध्याय खुद को असुरक्षित समझ रहे हैं जो अपने लिये दूसरा कार्यकाल चाहते हैं ।
समस्या यह है कि विधानसभा चुनाव हारने के बाद रावत और उपाध्याय दोनों के सामने सार्थक सक्रियता के लिये पार्टी मंच ही विकल्प है। उपाध्याय ने इसी रणनीति से पार्टी की हार के लिये नैतिक जिम्मेदारी अभी तक नही ली जबकि टिकट वितरण में उनकी भी पर्याप्त हिस्सेदारी रही है।
पार्टी में हाल यह है कि कांग्रेस विधायक दल की वरिष्ठतम सदस्य होने के बाद भी श्रीमती डाक्टर इंदिरा हृदयेश नेता कांग्रेस विधायक दल तथा उसके परिणामस्वरूप नेता प्रतिपक्ष विधानसभा पार्टी हाई कमान के हस्तक्षेप से ही बन पाई । वरना रावत और उपाध्याय दोनों ही अलग-अलग कारणों से इस महत्वपूर्ण कुर्सी पर विधायक करन माहरा को बैठाने को एकमत हो गये थे। रावत तो इसलिये कि माहरा उनके संबंधी हैं और उपाध्याय इस लिये कि कुमाऊ का एक राजपूत विधायक प्रतिपक्ष बन जाये तो पार्टी अध्यक्ष के रूप में गढवाल के ब्राह्मण नेता के रूप में उनके लिये रिपीट होना आसान हो जायेगा । संभवतः इसी कडुवाहट में डाक्टर इंदिरा हृदयेश ने हरिद्वार में बयान दिया था कि दो सीटों से तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत का चुनाव हारना कांग्रेस के इतिहास का काला पन्ना है। हालांकि बाद में उन्होने चतुराई दिखाते हुए इस तरह के किसी बयान से किनारा भी कर लिया ।
कांग्रेस में समन्वय के क्या हाल हैं, यह ’वंदे मातरम’ गायन पर कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के अनावश्यक जिद वाले बयान कि वे इसे नही गायेंगें और सरकार में दम है तो उन्हे प्रदेश से बाहर निकाल कर दिखाये, के जवाब में उन्ही की पार्टी के वरिष्ठ नेता गणेश गोदियाल के इस बयान में बताना पडा कि ’वंदे मातरम’ कांग्रेस के नेतृत्व में चले आजादी के आंदोलन में वह राष्ट्रीय तराना है जिसे गाते-गाते उसके नेता गिरफ्तारियां देते और फांसी की सजा स्वीकारते थे । जाहिर है, यह बयान उपाध्याय को उनकी जगह दिखाने को ही था । यह क्रम कहां जाकर रूकेगा, कहना मुश्किल हेै लेकिन यह तय है कि ध्वंस से उठकर दोबारा जनविश्वास पाने की जरूरत वाली कांग्र्रेस के लिये यह अशुभ ही है।
पार्टी नेताओं को यह भी लग रहा है कि सत्ता की साझेदारी में कतई रूचि न रखने वाले हरीश रावत चतुराई से उपाध्याय और डाक्टर इंदिरा दोनों की ही भूमिका सीमित करने में पूरी तरह समर्थ हैं ।