मेरी गाजणा…..तेरी दांत्युं लागलो मूसू..आंख्युं खालो बाघ!
(मनोज इष्टवाल)
जागर व पांवडा शैली में जो अंतर है वह जल्दी से आम व्यक्ति को समझ नहीं आता क्योंकि जागर शैली अक्सर देवी देवताओं व अन्य आत्माओं को प्रकट करने का माध्यम है जबकि पांवडा शैली वीर भड़ो को प्रकट करने उनके प्रेमालापों के उदगारों का वह माध्यम है जिसके माध्यम से हमारी आम लोगों की रगों में भी ढोल की थाप में इनके उदगारों से जोश चढ़ता है और कभी कभी यह जोश इतने चरम पर होता है कि हम होश ही खो लेते हैं! जाने क्यों पांडवों के पांवड़ों को आम भाषा में जागर कहा जाता है जबकि वे भी पाँवडे ही हुए!
जागर सम्राट डॉ. प्रीतम भरतवाण का अगर सानिध्य हो तो मैं उनसे पूछते नहीं थकता और वो जवाब देते नहीं थकते! विगत दिनों ऐसा ही एक इत्तेफाक आया कि वे गुनगुना रहे थे…“मेरी गाजणा…..तेरी दांत्युं लागलो मूसू..आंख्युं खालो बाघ!” फिर क्या था मैं उनकी इस चोरी को पकड़ गया व तपाक से बोल पड़ा- प्रीतम भाई, ज्ञानमाला, की आँखें खा गया बाघ या दांतों को चूहा कतर गया!

डॉ. प्रीतम भरतवाण बेहद सहज हृदयी जो ठहरे अपने चमचमाते दांतों की दन्तु-पाटी खोलकर मुझे गले लगाते बोले- इष्टवाल जी, आप से बच निकलना मुश्किल है! फिर गंभीरता से बोले! हाँ..यह ज्ञान माला का ही पांवडा है जो कुछ इस तरह है – मेरी गाजणा रे चित्तो को चंचला, मेरी गाजणा मेरी ऐ भोराणी! …और जब प्रेम की अति में नायक पगला जाता है तो वह कह उठता है – मेरी बौराणी …तेरा मैती मोरला, मेरी गाजणा तौंs दांत्युं लगालो मूसो, अरेs तेरी आंख्युं खालो बाघ!

सच में शब्द कितने भी कडुवे क्यों न हों और अगर कहें कि इस से ज्यादा भी कोई गाली नहीं हो सकती तो सही रहेगा लेकिन यह ऐसा प्रेम है जिसमें आतुर प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्रत्यक्ष तो देख रहा है लेकिन सामाजिक मान मर्यादा के बंधनों को न प्रेमिका लांघ सकती है न प्रेमी ही! जहाँ वह कहता है कि तेरे मायके वाले मरेंगे..! वहां सत्य यह है कि प्रेमिका के मायके वालों के साथ होने के कारण मजबूरीवश दोनों मिल नहीं पा रहे हैं! जहाँ वह कह रहा है तेरे दांतों को चूहा कतर दे तो सीधी सी बात है कि वह हंसकर उसका जी जला रही है और वह प्रेम की अग्न में वशीभूत हुआ पागल प्रेमी है! फिर वह कह रहा है कि तेरी आँखों को बाघ खायेगा तो सीधा सा अर्थ है कि आँखें मिल रही हैं वह भी आँखों के इशारे देकर कुछ समझाने का प्रयास कर रहा है लेकिन वह या तो आँखें फेर दे रही है या फिर जान बूझकर नासमझ बनने का अभिनय कर रही है!
कई बार मैंने ऐसे बाजगी औजी समाज के गुनीजनों को ढोल बजाते वक्त वार्ता में ऐसी गालियाँ निकालते सूना है कई बार तो वह प्रसंगवश नहीं होती क्योंकि अगर कुछ शराबियों का जत्था उन्हें टक्कर गया और वे मजबूरीवश उनसे जोर जबरदस्ती पांवड़े में पंडो बजवाने की बात करते हैं कभी ढोल खींचकर रिन्गौण लेने के अभिनय में दास की कंधा दर्द कर देते हैं तब वे पांवड़े का स्वरुप बदलते हुए कैसी कैसी गालियों को पांवड़े में सजाकर प्रस्तुत करते हैं किसी को पता नहीं चलता और तो और शराबी या उत्पाती युवा उन शब्दों को सुने बगैर और जोश खरोश से नाचना शुरू कर देता है! मैं अब इस भाषा को समझ गया हूँ कि सचमुच यह कलिष्ट भाषा कब और क्यों औजी, बाजगी समाज के लोग प्रयोग में लाते हैं! मुझे पहले लगा था कि जो डॉ. प्रीतम भरतवाण अपनी रौ में गा रहे हैं वह उसी का एक हिस्सा है लेकिन जब उसके प्रस्तुतिकरण का अंदाज देखा तो पाया यह गालियाँ नहीं प्रेम का वह वशीभूत समन्दर है जिस से तैरकर पार जाना बिरले प्रेमियों के ही वश की बात है!