मेरा पहला प्यार….(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) सातवां एपिसोड…!
मेरा पहला प्यार….(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ)
सातवां एपिसोड…!

हे आsss………….हे आsss..हे आsss…
कुछ इसी प्रकार की आवाज कानों में पड़ी..बहुत बुरी लगी अच्छी खासी नींद जो ख़राब कर दी थी…! ट्रेन की खिड़की से बाहर सिर निकाला तो देखा सामने गजरौला लिखा था. बगल के बुजुर्ग उठ गए थे…बोले चल अच्छा हुआ तू भी उठ गया ..ऐ चाय वाले दो चाय ..! उन्होंने जेब से पैसे निकाले और दो कुल्लड में चाय ले ली..!
अभी भुर्र्भुराती भोर का आगमन सा हो रहा था…गर्मियों के मौसम में भी मौसम में हलकी नमी थी..दूर स्टैंड पोस्टों पर प्रकाश टिमटिमा रहा था…रात्री खुलने के आसार नजर आ रहे थे…मैंने बुजुर्ग वार से पूछा समय क्या हुआ होगा..! उन्होंने अपने हाथ पर बंधी घडी को निहारते हुए बताया 4:44 हो गए हैं…!
उन्होंने एक कुल्ल्ड मेरी ओर बढ़ाया मैंने बड़े अनमने ढंग से कुल्लड हाथ में ले लिया पहली बार छोटे घड़े में चाय पीना मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था..! मैंने कुल्लड में लगभग मुंडी घुसाते हुए सा देखा. चाय का रंग चाय जैसा नहीं दिख रहा था…फिर इधर-उधर देखा की सभी उसी की चुस्की ले रहे हैं..!
मैं हंसने लगा और प्रश्नवाचक नजर से बुजुर्गवार को देखने लगा फिर बोला- इधर के लोग कितने गरीब होते हैं देखो छोटे से मिटटी के घड़े में चाय पी रहे हैं. इनके पास कांच का गिलास भी नहीं होता क्या…! वो बोले अरे ऐसे नहीं बोलते इसकी चाय ज्यादा स्वादिष्ट होती है..! मैंने सुडूक-सुडूक की आवाज निकालकर चाय पीना शुरू कर दिया. चाय समाप्त होने के बाद कुलल्ड वाले का इन्तजार करने लगा लेकिन वह नहीं आया अब तक ट्रेन ने धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू कर दिया था. मैं एक बार चिल्लाकर बोलना चाह रहा था कि उसका कुल्लड तो मेरे पास ही रह गया लेकिन फिर ध्यान आया साले ने इतनी गन्दी चाय बना रखी थी चलो इस बहाने चाय की वसूली तो हुई. जैसे ही ट्रेन रफ़्तार से आगे बढ़ी मैंने बुजुर्ग के कान में फुसुफुसाकर कहा – बोड़ाजी खूब व्हे साला चली गये.वेको गिलास भी नि दे मिन..ल्या तुम रखी ल्या चा का पैंसा वसूल ह्व़े ग्येनी..( ताऊजी अच्छा हुआ वो चला गया …उसका गिलास (कुल्लड) भी नहीं दिया मैंने ..लो तुम रख लो चाय के पैंसे वसूल हो गए..!
वो इतनी जोर से हँसे कि मैं अचकचा गया फिर बोले- अरे लाटा वो देख चारों ओर कुल्लड ही कुल्लड बिखरे हुए हैं..ये फ्री होते हैं..! चाय पी और फेंक दिए. मुझे बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ी . आज सोचता हूँ सच में कितना भोला बचपन था तब मेरे गॉव का. अब जब भी गजरौला होकर जाता हूँ तो वही कुल्लड याद आ जाते हैं. आज उनकी जगह प्लास्टिक के ग्लास हो गए.अब समझ पाया की वो हे आ…. नहीं बल्कि चाए..चा ए …यानी चाय चाय चिल्लाते हैं.
लगभग 6:30 बजे के आस-पास गाजियाबाद में ट्रेन रुकी यहाँ से दूध बेचने वाले , रोजाना नौकरी पर जाने वाले कई लोग ट्रेन में घुसे. एक ने बड़ी बदतमीजी से कहा -अबे वो भोंदू…परे खिसक बाप की ट्रेन समझी है का? जो फ़ैल के बैठा है..मैंने पहली बार बिना गुनाह किये इतनी बिशैली गाली सुनी थी किसी के मुंह से..! मन किया कि जाने क्या कर दूँ..! लेकिन एक साथ इतने मुस्टंडे जो आ गए थे..फिर पराया मुल्क..!
दिल्ली उतरा तो दिमाग घूम गया मैंने उन्हीं बुजुर्ग का सहारा लिया और शादीपुर डिपो की बस मैं जा बैठा. मेरी मंजिल वही थी. बस खाली हुई तो मैं भी उतर गया ! रिक्शा वाले को पूछा कि भैय्या मुझे मिल्क स्कीम कालोनी में इस पते पर जाना है.वह बोला बाबूजी बहुत दूर है पांच रुपये लगेंगे ! मैंने फ़ौरन हामी भर दी. वह जाने कितने चक्कर कटवाता रहा और फिर जयकिशन शर्मा भाई के घर में मुझे पटक गया ..!
मेरे आने की ख़ुशी उन्हें कितनी रही यह मैं नहीं जान सका क्योंकि तब अबोध सा था लेकिन उनके विस्मय का ठिकाना न रहा . उन्हें ताजुब इस बात का था कि मैं अकेला इतनी दूर कैसे पहुँच गया. खैर बहुत गर्मी थी. उनका छोटा बेटा शशि मेरा अच्छा दोस्त था वह गाँव जब भी आता तो मेरे ही साथ रहता. भले ही शशि से उम्र में मैं कम था लेकिन रिश्ते में चाचा लगता था. उसे बड़ी ख़ुशी हुई. भावी ने शशि को कहा कि मुझे अपने कोई अच्छे से कपडे पहनने को दे. और बाथरूम का फुहारा खोल दे यह नहा ले फिर नास्ता करेगा. मैंने घर से बाँधी माँ की पोटलियाँ खोलनी शुरू कर दी ये उड़द,ये गहथ, ये सोयाबीन ये मसूर, ये घिंडा मूला इत्यादि इत्यादि. उसमें कौन उनके लिए और कौन दीदी के लिए उसके हिस्से बना दिए..मैं फुहारे के नीचे लगभग आधे घंटे तक नहाता रहा. एक तो गर्मी ऊपर से फुहारे में पहली बार स्नान करने को मिला. पहाड़ी नदियों के झरनों के नीचे बहुत नहाए . खरगड नदी का ऐसी कोई ढन्ड (तालाब/स्वीमिंग पूल की तरह) नहीं थी जिसमें मैंने खूब गोते न लगाए हों. लेकिन यहाँ सब कृत्रिम था…!
नाश्ता करने के बाद भाई साहब व भाबीजी उनके बेटे जगमोहन बहु अलका बेटी अनीता मंजू सविता छुटकन व सबसे छोटा बेटा ज्योति मुझे घेरकर बैठ गए. सच कहो तो वो भी मुझे शायद उतना ही प्यार करते थे जितना मैं! घर गॉव की खबरसार लेने के बाद जयकिशन भाई बोले-मनोज तू रानी (मेरी बहन) के घर जाना चाहेगा तो बता. मैं ख़ुशी से उछल पड़ा..बोला- हाँ भाई जी कब से दीदी को नहीं देखा. फिर क्या था मेरे प्लास्टिक के जूते उसी समय बाहर फिंकवा दिए गए.शशि की काली पेंट और सफ़ेद शर्ट व पुराने चमड़े के जूते पहनकर में इतराने लगा.फर्श पर चलते समय वे खट-ख़ट की आवाज निकालते थे..मुझे लग रहा था कि मैं रातों-रात अमीर हो गया हूँ…!
फिर क्या था शशि को आदेश का पालन करना था वह तुरंत मुझे लेकर लोधी कालोनी अलीगंज आ गया. मुझे अचानक आया देख सभी अचंभित थे. दीदी की आंखें भर आई थी किसी अनर्थ की आशंका मन में लिए वह बोली कि तू अचानक बिना बताये ! घर में सब ठीक तो है न. मैंने जब सबको आश्वस्त कर दिया तो सभी खुश हुए…! दीदी की देवरानी मुन्नी दीदी बहुत खुश हुई! सचमुच तब रिश्ते कितने सजग और निश्वार्थ होते थे. हो सकता है तब पैंसा और टीवी नाटकों का इतना चलन न होने या शिक्षा पद्धति में मेकाले जैसे व्यक्तित्व के न घुसने से ये सभी संस्कार जीवित रहे हों!
शशि दिन का खाना खाकर चलता बना ! जब मैंने पूछा कि शशि कहाँ है तब पता लगा कि वह तो सिर्फ मुझे यहाँ छोड़ने आया था शायद इसीलिए उसने जाते समय मुझे बताया तक नहीं. मुझे भारी शर्मिंदगी थी कि अब क्या होगा ? अब कैसे जयकिशन भाई साहब मुझे नौकरी लगायेंगे! दीदी के यहाँ भरा पूरा परिवार था यहाँ दीदी के देवर मुन्नी दीदी (देवरानी) दीदी की ननद उर्मिला और मकान मालिक भगत सिंह भाई व उनका परिवार.अब तक पड़ोस को भी पता लग गया था इसलिए दादी, बीना, लज्जू , नीतू सब की सब मुझे देखने पहुँच गए. वो सब मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कोई अजूबा हुआ हो! शाम कब हुयी पता भी नहीं चला. मुझे नींद आ रही थी इसलिए जल्दी सो गया ..जब नींद खुली तो पाया ! दीदी जीजाजी व छोटे दीदी जीजाजी सभी बैठकर गप्प लगा रहे थे. जीजा जी कह रहे थे देखा उन्होंने उसे एक रात भी वहां नहीं रखा और आते ही यहाँ छोड़ने आ गए…ये भी कहता-फिरता था देखना जयकिशन भाई इंटर पास करते ही मेरी नौकरी लगा देंगे! अरे नौकरी ऐसे रास्ते में पड़ी मिलती तो वे शशि को लगाते पहले! दीदी बोलने लगी सही कह रहे हो आप. लेकिन ये भी नालायक है जाने कैसे उनकी बातों में आ गया..तब तक छोटी दीदी यानी दीदी की देवरानी बोली- तो क्या हुआ कितना भारी पड रहा है वो तुम पर ..! आखिर हम हैं तो यहाँ उसके और किसके पास आता.!
मुझे लगा मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी दिल्ली आकर..! यहाँ अभी से यह बातें शुरू हो गयी तब मुझे माँ याद आ गयी वह आते वक्त मुझसे बोली थी – बेटा आज तक तूने माँ की पकाई रोटी खायी हैं अब प्रदेश में बाप की पकाई खायेगा..! वहां कोई किसी का नहीं होता इसलिए वहां बात-बात पर किसी पर नाराज मत होना..संभलकर रहना..जयकिशन के घर अच्छा न लगे तो रानी के घर चले जाना…! पता नहीं तेरा भगवान् ही मालिक है!
माँ के ये बचन अब गुए से याद आने लगे थे जब उसने दो रात पहले भैंस के दूध का गरम गर्म गिलास मलाई मिलाकर चूल्हे के पास मुझे बैठकर समझाया था..अब ध्यान आया कि उसे तब धुंवा नहीं लग रहा था बल्कि वह रो रही थी..उस समय मुझे यही लग रहा था कि वह यह समझाते हुए पल्लू से आँखे क्यूँ पोंछ रही थी. प्यार का अँधा मैं यही सोच रहा था कि माँ को शायद धुंवा लग रहा है…माँ याद आये और आंसू न निकले यह हो सकता है क्या..! मैंने करवट बदली और आंसुओं से तकिया गीला करना शुरू कर दिया…सच में इस समय अपना प्यार नहीं बल्कि माँ बहुत याद आ रही थी…! माँ काश तू आज भी ज़िंदा रहती! .(CONTD…8)
Sir ji maza aa raha hai story phde k poori ak saath likhe daalo ak ak din wait nahi hota…………….
जय जप..