मेरा पहला प्यार…..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ ) छठा एपिसोड…….
मेरा पहला प्यार…..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ )
छठा एपिसोड…….
मन बड़ा उदास था क्योंकि एक तो उसकी माँ की पिटाई की बात कानों तक पहुंची थी दूसरी अब थके उदास मन से बिछोह का वह पल आ गया था जब मुझे अपने गाँव लौटना ही था! मामी, फूफू और दीदी के पास प्याज की अलग-अलग पन्नियाँ पैक होकर मेरे झोले में ठूंस ली गयी थी. दरअसल में इस बार खाली हाथ तो आया था लेकिन लज्जू बहुत पहले एक थैला लेकर आया था जाने उस पर माँ ने क्या दिया होगा. प्याज लगभग 5 किलो या इस से अधिक ही रहा होगा जिसे अब मजबूरी थी कंधे में ले जाना ही था! वैसे ही गर्मियों के दिन और खरगढ़ नदी पार की दम फुला देने वाली चढ़ाई! मुझे इस समय वह बोझ कुछ भी नहीं लग रहा था शायद इसलिए भी क्योंकि इस समय लज्जू भी मेरे साथ वापस गाँव नहीं लौटा था! उसके मिलने की उम्मीद अब कतई नहीं थी क्योंकि अभी अभी उसके घर से मेहमान विदा हुए थे और उसकी ना के कारण उस पर बंदिशें भी लग गयी रही होंगी फिर भी में पूरे रास्ते भर पलटकर पीछे जरुर देखता कि शायद वह कहीं दिखे! लेकिन भला ऐसा होना कहाँ संभव था. पूरा रास्ता यादों, झंझावतों और सपनों की डोर के साथ यूँहीं कट गया!
गर्मियों की छुट्टियां मैं यूँहीं बर्बाद नहीं होने देना चाहता था. पिताजी और भाइयों की यह इच्छा थी कि मैं अपनी पढ़ाई बदस्तूर यूँहीं जारी रखूं लेकिन मुझे तो यह लगने लग गया था कि आज नहीं तो कल उसकी मंगनी कहीं न कहीं हो ही जायेगी. जवान बेटी है कौन घर में ज्यादा दिन रोक सकता है! तब बहुत कम लडकियां ऐसी हुआ करती थी जो इंटर के बाद भी अपनी पढाई जारी रखती थी वरना घर वाले उन्हें जल्दी ही शादी के बंधन में बाँधकर मुक्ति पाने की सोचते थे. मैंने भी घर में एकहरी जिद पकड़ ली कि अब मैं आगे की पढाई दिल्ली से ही करूँगा. दिन में नौकरी और इवनिंग कालेज से पढाई जारी रखूँगा.
थक हार कर एक दिन पिताजी ने सहमती दे दी लेकिन उस समय घर में एक भी रूप्या नहीं था. पिताजी को पेंशन लाने के लिए अभी महीने के एक हफ्ते का और इन्तजार करना था. मुझे लगा कहीं कल होते-होते फिर पिताजी विचार न बदल दें इसलिए अपने गॉव के गार्ड साहब (रेलवे में नौकरी करने वाले राम दयाल भाई साहब) से 70 रुपये मांगकर लाया. जिसमें घर से दिल्ली तक जाने का किराया बड़े आराम से होता था और 10-15 रुपये बच भी जाते थे. फिर क्या था अगली सुबह मैं अपने प्लास्टिक के जूतों के साथ घर से दिल्ली के लिए विदा हुआ. सच पूछिए उस जमाने में दो जोड़े कपडे होने भी बहुत बड़ी बात हुआ करती थी. मेरे पास भी दो जोड़े कपडे थे और बैग में अपनी मार्कशीट…सर्टिफिकेट वगैरह…!
कोटद्वार पहुंचा और वहाँ काशीरामपुर में अपनी फूफू जी की लड़की कान्ति दीदी के घर रुका. फिर याद आया कि जयकिशन भाई साहब जो दिल्ली मिल्क स्कीम में ट्रांसपोर्ट इंस्पेक्टर हुआ करते हैं, वे तो जब भी घर आते हैं चिट्ठी में हमेशा मुझे ही सामान उठाने के लिए बस स्टेशन पर बुलाते हैं. और मैं ख़ुशी ख़ुशी जाता भी हूँ. घर का दो किलो तेल लाना भारी समझता था लेकिन उनका 15-20 किलो का थैला उठाकर 3 किलोमीटर पैदल चलता था शाम को दो मिठाई के पीस और कुछ चने मिल जाते थे. जिन्हें खाकर मैं खुश रहता था. खुश इसलिए भी की फुफुजी के बेटे हैं और बहुत दिनों बाद घर आये हैं! दूसरा खुश इसलिए भी कि वो हर बार जब भी घर आते थे मुझे कहते थे बस तू 12वीं पास कर दे! तू देखना मैं तुझे ऐसी नौकरी लगाऊंगा कि सब देखते ही रह जायेंगे. उस ज़माने में ख्वाब हुआ ही कितने बड़े करते थे. लड़का हाई स्कूल कर दे तो फ़ौज और पुलिस के सपने और इंटर पास कर दे तो किस दफ्तर में बाबूगिरी के सपने! सच पूछिए तो इससे ज्यादा उसके पास कोई बिकल्प भी नहीं हुआ करते थे. वैसे भी पहाड़ का मानस बाहरी आबोहवा से कटा हुआ रहता था…! वह इन सपनों को ही अपना सबसे बड़ा ख्वाब समझता था. पिताजी हमेशा कहा करते थे कि हो सकता है जयकृष्ण तेरे को कहीं नौकरी लगा दे लेकिन कोई और आके उन्हें कह देता था कि जयकिशन अपने बेटों की ही अब दिल्ली मिल्क स्कीम में नौकरी नहीं लगा सकता क्योंकि अब वह वक्त गया जब ऐसा होता था.
मैं खुश था कि बस दिल्ली जाते ही मेरी नौकरी तो पक्की है ही है .मुझसे रात्री ट्रेन का इन्तजार भी नहीं हो पा रहा था. जबकि कोटद्वार में बहुगुणा जीजाजी ने टिकट कटवा दी थी. मैंने यूँ तो ट्रेन बहुत पहले जब मैं आठवीं या नौवीं कक्षा में पढता था तब जय किशन भाई साहब के बड़े लड़के जगमोहन की शादी में ही देख ली थी लेकिन बैठना पहली बार था. ट्रेन की ह्रदय विदारक सीटी ने कलेजा कंपा दिया था. ट्रेन आई चढ़ने में भी डर सा लग रहा था. दिल्ली कभी देखा नहीं था और अकेला सफ़र…! बस मन में भय था कि हे भगवान् मुझे सही सलामत पहुंचा देना…! फिर खुद ही मुस्करा देता था और आंखों में सपनों की प्रेम डोर उभर कर उसके शर्म से लाल हुए चेहरे व उठती गिरती पलकों के बीच उन आँखों में तैरते प्यार का अथाह सागर सामने आकर मेरा हौसला बढ़ा देता. मैं गार्ड साहब को हर समय दुआ देता कि उन्होंने मेरे सपने को साकार करने के लिए पैंसे की व्यवस्था तो की है. बस वही उसकी आँखें मेरे सफर की साथी थी और वह रेंगती चेहरे की हरपळ मुस्कान जिसमें जमाने भर की खुशियाँ मुझे दिखाई देती थी.
घर से जब निकला था तब मन भारी था माँ व बहनों को आंसू देखकर आया था पिताजी रोये जरुर होंगे लेकिन मर्द की भाँती रोये. ताई जी की आँखे भी छलछला रही थी…एक बार बाड़यूँ गाँव के नीचे से पलटकर अपने गाँव की सरहद देखी फिर घर देखा. माँ और बहनें छज्जे के किनारे से खड़े होकर मुझे ही तक रही थी. भला ऐसे में मैं अपनी रुलाई कैसे रोक सकता था. मैं आंसू पोंछता तेजी से अदृश्य हुआ लेकिन जाखाली से फिर अपने गॉव पर नजर डाली यहाँ से भी घर के बाहर मजमा दिखाई दे रहा था. यूँ तो हर रोज स्कूल जाने का भी यही रास्ता हुआ करता था लेकिन आज प्रदेश जाते वक्त ऐसा लग रहा था जैसे मेरे घर आंगन जंगल पशु पक्षी पानी हवा मुझे विदा करते समय रुक सी गयी हों. जाखाल में बहने वाली ठंडी बयार भी आज शायद यही निश्चित करके रुकी हो कि प्रदेश मत जा ! यही बहुत कुछ है तेरे लिए! यही सब सोचते सोचते अब मेरी सुबकाई निकलने लगी थी. जाखाल धार के अंतिम छोर पर पहुँचने के बाद अब गाँव दिखना बंद हो जाना था इसलिए रूककर घर गाँव सरहद गाँव के बीच अपनी कुलदेवी बालकुंवारी, उसके ऊपर भैरों देवता और गाँव के और उपर स्थित कुलदेव नागराजा को अंतिम प्रणाम कर में भावविभोर हो गया था. धार की हवा की सांय-सांय के साथ जाने सुबकाई के सुर कहाँ शून्य में अलोप हो रहे थे. यहाँ से मन भारी होने लगा था. आज महसूस हो रहा था कि बेटियों का दिल कितना बड़ा होता होगा जब वह शादी के बाद हमेशा के लिए अपनी ससुराल चली जाती हैं. उनकी अंतरात्मा का घाव कैसे भरता होगा. मुझे अपने बचपन से जवानी तक के सारे पल सेकंडों में घटना क्रम के अनुसार याद आने लगे. बचपन के उलाहने, हंसी मजाक..और जाने क्या क्या..! मन व्यथित जो था.
अब ट्रेन ने जैसे ही कोटद्वार छोड़ा, मुझे लगा मेरी जिंदगी छूट गयी दूर छूटती बस्ती ने आंसुओं की झड़ी लगा दी. मेरी बगल में बैठे बुजुर्ग ने सांत्वना वाले शब्दों में कहा – बेटे ये क्या बेटियाँ भी नहीं रोती ऐसे तो…?
मैंने भी अपने को संभाला और सॉरी बोलकर ट्रेन की खिड़की के बाहर से आ रही जुलाई माह की गर्म हवा के झोंकों से अपने माथे के पसीने को सुखाने की कोशिश के साथ उन्हीं यादों में खो गया. फिर अपना प्यार याद आया तो वही मीठा-मीठा दर्द पूरे तन बदन में रेंगने लगता. मैं मुंह के अंदर ही उसका नाम लेकर बडबडाया-देख मैं जितनी जल्दी होगा तेरा रिश्ते मांगने अपने पिताजी को भेजूंगा. चाहे दुनिया की लाज शर्म क्यों न छोडनी पड़े. बस तुम इतना अहसान कर देना कि तब तक मेरा इन्तजार करना.
ट्रेन नजीबाबाद पहुंचकर रुक गयी! ऐसी गर्मी से पहली बार पाला पड़ा था. गर्मी से बुरा हाल…वैसे ही पहाड़ी जीवन जीने वाला मैं इस गर्मी से परेशान ऊपर से तेरीकोट की पेंट और कमीज बदन पर पसीने से ऐसे चिपकी हुई थी कि क्या कहने…! ट्रेन काफी देर रुकी रही. मैंने उन्हीं बुजुर्ग को कहा कि मुझे पानी पीना था तब उन्होंने कहा चिंता मत कर वो देख प्लेट फार्म के पास नल लगा है वहां जाकर पानी पी ले. मैं पानी पीने के लिए उतरा तो सोचा आगे चलकर सुसु भी कर लूँ. साथ ही ट्रेन को भी देख रहा था! प्लेट फॉर्म से नीचे उतर कर मैंने मूत्र-विशर्जन करना शुरू ही किया था कि ट्रेन आगे खिसकने लगी. बस फिर क्या था हडबडाहट में मैंने पेंट भी गीली कर दी और लगा पटरी-पटरी रेस लगाने. मुझे पता ही नहीं चल रहा था कि पीछे से उसी पटरी पर रेल का इंजन भी सीटी बजाता हुआ आगे बढ़ रहा है..मुझे तो सिर्फ अपने सर्टिफिकेट की चिंता थी…!
अचानक एक जोर का झटका देकर किसी ने मेरी बांह पकड़कर अपनी ओर खींचा. और खींचती ही इतनी जोर का थप्पड़ मेरे गाल पर मारा कि मुझे तारे दिखाई देने लगे. वह गुस्से में बोला – आत्मह्त्या करने के लिए तुझे यही मिला. साले मरना था कहीं और जाकर मरता. मैंने पहली बार लाल कपडे में सजा कोई फौलाद देखा था मेरी घिग्घी बांध गई. फिर उसको हाथ जोड़कर बोला – ट्रेन निकल गई तो मेरी जिंदगी बर्बाद हो जायेगी मेरे सालों की कमाई मेरे सर्टिफिकेट हैं उसमें. प्लीज उसे रोकिये..उसने कहा और अगर वो डिब्बा ऊपर चढ़ जाता तो तुम्हारी जिंदगी ही चली जाती. अरे बाबू हाथ मत जोड़.! कहा मैं निरा कुली ठहरा..वो देखा नहीं तुम्हारे अब्बा तुम्हे हाथ देकर रुक जा रुक की आवाज दे रहे थे. ट्रेन अभी पटरी बदल रही है वह दूसरे प्लेटफॉर्म पर रुकेगी और अभी दो घंटे बाद चलेगी.उस पर देहरादून से मसूरी एक्सप्रेस के डिब्बे जुड़ेंगे. इसलिए चिंता मत करो..चलो मैं छोड़ देता हूँ….!
फिर समझाता हुआ बोला.बेटा सीधे लग रहे हो वरना मुझ कुली को साहब कहकर नहीं पुकारते! हमारे कान तो रोज यही सुनते हैं-ए कुली..हो कुली अबे हो कुली…बस यही अब हमारा नाम भी है…! लेकिन किसी ने मुझे सर कहा यह जाकर आज अपनी घरवाली को बताऊंगा. फिर वह मुझे डिब्बे तक छोड़ गया! वो बुजुर्ग मेरे कारण चिंतित थे. उन्होंने भी डांटा.वो कोई थपलियाल जी थे. सबसे पहले मैंने अपने कागज देखे सब को सुरक्षित पाकर मैं खुश हुआ. कुली भी आगे बढ़ गया. मानव प्रवृत्ति देखिये..और उसकी संकीर्णता भी..जब मुझे पता लगा कि जिसे मैंने सर बोला वह कुली था तो मुझे अपने आप से शर्म होने लगी और जब यह ध्यान आया कि एक कुली ने थप्पड़ मारा तो आत्मग्लानि होने लगी! खुद से खुद बोलने लगा उस कुली की ये मजाल. फिर सोचता चलो अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं, लेकिन फिर ध्यान आया की ये बूढा तो मुझे ही देख रहा था.. फिर उनकी तरफ देखा तो पाया कि उन्हें कुछ नहीं पता. देखा जिसने प्राणों की रक्षा की उसने थप्पड़ मारा तो अब ग्लानी हो रही थी क्योंकि वो कुली था..हे भगवान् ये नहीं कि उसने मुझे नया जीवन दिया..क्या सोच है मनुष्य की भी. खैर फिर वही ख्वाबो-ख़याल कभी घर के तो कभी अपने प्यार के…देखते देखते कब नींद आई पता भी नहीं चला…(cont.7)