मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) दसवां भाग…!

पिछले अंक के अंत में …आँखों में ख़ुशी के आंसू..और कई अविश्मर्णीय यादें..! कुछ पल दिल्ली की रंगीन दुनिया भी धूल उडाती हुई आई और निकल गयी ..! बस महकने लगी तो प्यार की वह खुशबु…..! जो चार साल पुरानी थी..! .(contd..10)

गतांक से आगे…

(मनोज इष्टवाल)

डीटीसी की बस सुबह सबेरे जब कोटद्वार बस स्टेशन में रुकी तब वहां के संगीत ने मेरी उनींदी आँखों को खोलने में मदद की! और उकुडू सा सो रहा मैं थोड़ा ब्यवस्थित हुआ तो मेरे बदन ने हल्की सी  झुरझुरी ली….! ठंड जूतों की बगल से जुराबों के ऊपर से पतलून के अंदर घुसकर अपना अहसास करवा रही थी! बाहर कोटद्वार स्टेशन बिजली की जगमगाहट जग-मग कर रहा था! सामने गढ़वाली कैसेटों की दूकान दूसरी तरफ हलवाई मिठाई वाले और चाय वालों की ठेलियां जगमगा रही थी.! चार बजे के लगभग गाडी ने यहाँ छोड़ा! अधिकत्तर कैसेट विक्रेताओं की दुकानों में लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के सुर में बज रहे गीत सुनाई दे रहे थे जिनमें “उच्चा निस्सा डांडो मा, टेड़ा मेडा बाटोंमा, सरर ररा प्वां-प्वां! चली भैs मोटर चली!” या फिर चम चमकी घाम डांडयूँ मा..जैसे गीत बज रहे थे!   

मैं मिठाई चने और जाने क्या क्या मैंने दिल्ली से खरीद कर ही रखे हुए थे! यहाँ एक फौजी भाई को जो शायद अपनी पहली छुट्टी काटकर गाँव आ रहा था देखते ही एक पुराना इत्तेफाक याद आ गया! मिठाई की दुकान का एक हाकर पहले तो उन्हें सुबदार साब-नमस्कार करता है! फिर अपनी दुकान की मिठाई की तारीफ़ करता हुआ बातों-बातों में ही उन्हें सुबदार से कप्तान बना देता है! बस फौजी भाई यह सब सुनकर उसके पीछे उसकी दुकान में प्रविष्ट हो जाता है! मुझे हंसी आने लगी कि आज फिर मेरे ताऊ जी की तरह दूसरा भोला पहाड़ी फौजी इन काईयां टाइप के बणिया लोगों के हत्थे चढ़ गया! यहाँ मेरा मकसद यह बिलकुल नहीं है कि हर ब्यवसायी पर अंगुली उठाऊं लेकिन यह बताना भी एक सामाजिक दायित्व है कि किस तरह एक भोला भाला गढ़वाली तब अपने ही पहाड़ में आकर लुटता था! तब मैं  8वीं कक्षा में पढता था जब मेरे ताऊ जी छुट्टी काटकार घर आये थे! वे इस बार पांच किलो मिठाई लेकर आये थे तो ताईजी के मुंह से निकला- बक्की बात व्हे यूँकु भी! हे चुचों लाणी भि छई त एक आध किलु लांदा ..! इख द्याखदी पूरा पांच किलु कु डब्बा भोरी लयुंचा! बुदिन सर्या गौं म बंटणी हो! अरे ख्वाळ द्वार म एक किलु से भि कम लगदी! (इनके लिए भी ताजुब है! अगर लानी भी थी तो एक आध किलो लेकर आते, यहाँ देखो तो पूरे पांच किलो का डिब्बा भर लाये! जैसे सारे गाँव में बांटनी हो! अरे अपने मोहल्ले में तो एक किलो से भी कम लगती है) वो बर्फी क्या कहूँ कैसी थी! सुबह जब खोली और उसे बांटने से पहले मुझे बोला गया कि जरा खान्द (चूल्हे के ऊपर जो पितरों का स्थान होता है) में चढ़ाकर आ..! तो मैं जाते-जाते उस टुकड़े को हाथ से तोड़ने लगा ताकि उसका थोड़ा सा हिस्सा मैं भी चख लूँ और किसी को पता तक न चले! लेकिन यह क्या वह तो हाथ से भी नहीं टूट रही थी! खैर उसे खान्द में रखकर आया तो ताईजी ने एक टुकडा मेरी तरफ बढाकर बोला-ले अब जा यहाँ से! मैंने जल्दी से वह मुंह में डाला कि कोई मांग न ले! लेकिन यह क्या वह मीठा तो था लेकिन टूटने का नाम न ले! बाद में जब उसे पत्थर से तोड़ने लगा तब जाकर सब ने जो ताऊ जी का मजाक उड़ाया वह आज भी याद आता है तो हंसी निकल पड़ती है! ताऊ जी छज्जा में बैठे हुक्का गुडगुडाकर कह रहे थे! मैं छुट्टी काटने के बाद उसकी ऐसी तैसी करूंगा! साला तभी मुझ हवालदार को उसने पहले सुबदार और बाद में कप्तान साब बनाया! यह मिठाई कई दिन तक चर्चा का बिषय बनी रही! जिस दिन ताऊ जी वापस लौट रहे थे उस दिन मैंने उन्हें कहा उस दुकानदार की खबर अवश्य लेना! वे हंसते हुए बोले थे- सबसे ज्यादा तो वह तेरे पेट में ही गयी! अरे छोड़ भी..! मैंने उसे माफ़ कर दिया! बेचारे की मजबूरी होगी! सच में हम गढ़वाली कितने सहज दिल होते हैं क्योंकि इन दो माह की छुट्टी में उनका वह सारा गुस्सा जाने कहाँ चला गया था! ताऊ जी बहुत बलिष्ठ थे वो तीन किमी. दूर स्थित जखेटी व अगरोड़ा बाजार की चढ़ाई नापकर एक कुंतल चीनी की बोरी कंधे में यूँ लादकर लाते थे मानों दस किलो सामान हो! खैर प्रसंगवश जुड़े इस इत्तेफाक ने बर्षों पुरानी उस व्यवस्था को अब कोटद्वार शहर में भी बदल दिया है अब शिक्षित समाज के साथ सूचना क्रान्ति ऐसे लालाओं के चक्कर में नहीं पड़ती और ना ही अब ऐसे ठग वहां दीखते हैं!

पौड़ी-पौड़ी बस की आवाज सुन मैं उधर लपका और बस में जा बैठा…! अब पहाड की सोंधी महक थी जो पूरे दो बर्षों में यादों के झरोंकों के साथ महकती हुई बस के हॉर्न के साथ हर मोड़ काटते हुए मेरे गॉव का सफ़र कम करने को आतुर लग रही थी…! मेरी उजड़ी नींद के शयनागारों में वह ख्वाब बन हर पल मेरे साथ-साथ आगे बढ़ रही थी…! कभी अपनी सी नजर आ रही थी तो जाने कभी गैर सी जाने क्यों नजर आ रही थी!  सच पूछिए प्यार पर बस नहीं रह गया था..! मन था कि कब गॉव पहुंचूं और वहां से उस सरहद को अपनी आँखों से जी भर देखूं जिसकी खुद (याद) के हर पल दो साल तक मेरे से जुदा नहीं रहे..!
गुमखाल की ठण्ड ने हड्डियां कंपकंपा दी थी..! अब बस की जोरदार हुंकार में कमी आ गयी थी क्योंकि चढ़ाई समाप्त ही उसका दम फूलना अब बंद हो गया था!  अब चढ़ाई की जगह ढलान शुरू हो गयी थी..! कुर्र्बुर्री (सुबह-सवेरे) का वक्त था..! दूर चोटी का आभास दिलाता भैरों गढ़ी का साया सा दिखाई देने लगा था! मैंने ह्रदय से नमन किया और फिर खो गया अपनी भूली बिसरी बिस्मृतियों को ताजा करने में…!  बस अब हुंकार नहीं ले रही थी बल्कि ऊंघ सी रही थी यानि हूँs हूंs..घूंs-घूंs की आवाज करती सतपुली की ढलान की ओर उतर रही थी!  मेरी बगल पर बैठे सज्जन ने जब उबकाई ली और बस से बाहर सात अनाजों की धबडी उड़ेलनी शुरू की तो मेरा मन भी खराब होने लगा था! छि: वह याद आते ही अभी भी नाक और आँख बंद करने का मन हो रहा है क्योंकि उसकी उल्टी में इतनी खटास थी कि उसके मुंह से ऊँहs और नीचे से पुंहs साथ-साथ स्वर बजा रहे थे! जैसे-तैसे सतपुली आया और उसकी ऊँहs-पुंहs के स्वरों की व्यंजना से बिगड़े मेरे शरीर के उद्भावों ने मुंह से सारा देशी व्यंजन सतपुली की सड़क के किनारे उलट दिया! उल्टी करते समय में इधर-उधर भी देख रहा था कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा है! इन्सल्ट की बात थी यार..! जब रिलेक्स हुआ तो शुकून मिला कि किसी की नजर मुझ पर नहीं थी! किसको फुर्सत थी कि वो मुझे देखें ..! लेकिन तब अल्हड़ जवानी का जोश था कोई देखता तो मरना बचना एक हो जाता! सफ़ेद सूट में लाल टाई लगाया मुझ जैसा सांवला युवक जाने तब अपने को क्या सोचता रहा होगा! उस जमाने में लाल और सफेद दो कलर बहुत पॉपुलर थे! कोई मारुती 800 जो तब नई नई लाँच हुई थी भी खरीदता तो उसे लाल कलर ही चाहिए था! उल्टी करके दिल हल्का हुआ तो अपनी आँखों से आये आंसू पोंछे! सफ़ेद सूट को व्यवस्थित किया मुंह का कुल्ल़ा किया और चाय पकोड़ी खायी ..! सतपुली की पुरानी यादें ताजा की! काला होटल के माछा-भात भी याद हो आया! वह पहली बार तब खाया था जब धांदण गाँव के चंदोला ताऊ जी स्वर्ग सिधारे थे! वे कृषि विभाग में कार्यरत थे और रात अंगीठी जलाकर कमरे में सोये थे! बंद कमरे में अंगीठी के धुंवे से ही उनकी मौत होना बताया गया था! खैर अभी भला सुबह सबेरे कहाँ मिलता माछा-भात और कौन खाता! बस ड्राईवर ने हॉर्न बजाया और हम बस में जा बैठे! बस ने शुरू कर दिया मेरी मंजिल का सफ़र..!

ठीक साढ़े सात बजे बस जखेटी स्टेशन पर रुकी! सामान उतारा और जरूरी सामान साथ लेकर घर के लिए मैंने लगभग दौड़ सी लगा दी!  सामने मेरा इंटर कालेज का गेट दिखाई दिया जिसकी पहली सीढ़ी पर मैंने घुटने टेके और बेहद अनुनय भाव से माँ सरस्वती का स्मरण कर अपने 12वीं कक्षा तक के वे सभी पल अपनी दिमागी फ्लोपी में फीड किये व सभी गुरुजनों का स्मरण किया!
कभी सुना था कि स्वामी विवेकानंद जी जब अपनी अमेरिका की यात्रा समाप्त करके हिन्दुस्तान लौटे थे तो वे अपनी धरती पर लोटने लगे..! उन्हें अपनी मातृभूमि से इतना अगाध प्यार था! मेरा भी यही हाल हुआ…! मैंने सडक से जैसे ही चढ़ाई का रास्ता पकड़ा पास पड़ी धूलि को अपने माथे लगाते हुए अपनी मातृभूमि के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की…! समनख्यात, जाखाल का लांघता फांगता जब मैं गॉव पहुंचा तो सच मानिए जो जहाँ जैसे था वैसे ही मुझे देखने मेरे घर पहुँच गया..! तब कितना प्यार हुआ करता था आपस में…! आज उसी गॉव में वह सब क्यों नहीं है? यह विषय चिंतन का है…!

12 जातियों का यह गॉव भाई चारे की मिशाल कायम करने में कभी बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था! आज भी वही हुआ! घर के आँगन में टाट-बोरे बिछने शुरू हो गए तिरपाल-मांदरी पहले ही स्थान ले चुकी थी…! हमारे औजी भी अपना ढोल बजाते हुए मंगलगान करने पहुँच गए! मल्या ख्वाळ की मंगला बोडी, रघु भैजी, शिबदे दीदी, गजपाल भैजी (ठाकुर सिंग), भैरों ख्वाळ के खिम्मा चाचा (तब छुट्टी आये थे), झंग्वरिया ख्वाळ के गबरू चाचा, सुपाल चाचा, राजेसिंग चाचा व बीना बौजी! बिचल्या ख्वाल से सूर सिंग काका, गोविन्द काका, प्रिमि भैजी, राजू जीजा, उमेदु चाचा, आनन्द चाचा, तिलगु ब्वाड़ा, मंदडी बोड़ी, रामदे ब्वाड़ा (बलवंत सिंग), तल्या ख्वाल यानि हमारे ख्वाळ से कबोत्री चाची, लक्ष्मी भैजी, जगु चाचा, विक्रा भैजी, दौन्थी फूफू, कुकरी फूफू, गणानन्द बोड़ा, जगरु भैजी, जुंग्याळ बोड़ा व शिल्पकार मोहल्ले से जत्रु बोड़ा, भुन्द्रा बौ, बिमला बौ, सुबागी बोड़ा, सूना-सिंधा काका-बोड़ा, रघु, आनन्द दिल्लू व गम्धीरू इत्यादि! सच कहूँ तो ऐसा कोई नहीं बचा था जो घर पर न आया हो! था भी तो मैं सारे गाँव का लाडला..! ऐसा लगा जैसे सालों बाद आज घर में खुशियों का सैलाव आया हो..! बहनों के पाँव जमीन में नहीं थे तो माँ रसोई में चाय के केतली का पानी बढ़ाती ही जा रही थी..! ताईजी अपनी ही रंगत में ढन्ड्याली में फिर्किनी (नृत्य) सा कर रही थी, जबकि मैं एक ओर से बूढ़े बुजुर्गों से लेकर बड़े भाई भावियों, चाचा, चाचियों, ताऊ, ताईयों, दादा-दादियों, फूफू मामाओं इत्यादि के चरण स्पर्श पर लगा हुआ था! थोड़ी देर में थालियाँ भर-भर कर मेरे लाये चने व मिठाई सब में बाँटने लगी थी! फर्क सिर्फ इतना था कि चने मुट्ठी भरकर मिल रहे थे और मिठाई कतरी (छोटे टुकड़े) मिल रही थी…! पूरे दो साल कुछ महीनो बाद घर आया था लेकिन गॉव कुछ नहीं बदल़ा था! वही रास्तों में गाय-भैंस का गोबर..! वही छोटे बच्चों के मैले-कुचैले गरीबों जैसे कपडे!  सो उठकर बिना मुंह धुले ही बहती नाक और कमीज के आस्तीनों में चमचमाती सीम्प/सिंघाणा (नाक का मल) वैसे ही था जैसा ठेठ मेरा बचपन था! हाँ…कुछ अंतर आया था तो अब तूंगा के पेड़ के डंठल की जगह कुछ लोग दांत चमकाने के लिए पेस्ट इस्तेमाल करने लगे थे…! लेकिन भाई चारा आहा….क्या बोलूं!

सारे दिन एक दूसरे से मिलता रहा शाम प्रहर मित्रों के साथ क्रिकेट भी खेली! अभी मैं चूल्हे के पास बैठा सांध्य काल का गर्म-गर्म मलाई वाला दूध पी रहा था कि माँ ने कहा- चल तेरी एक आदत तो छूटी! कढाई के गर्म दूध से कठगी (पतली लकड़ी) से मलाई निकालने की..! ओहो मुझे अफ़सोस हुआ कि मैं भूल गया तब तक घर के आँगन से ढोलक बजने की आवाज आई और हर्ष हर्ष जय जय..के नारों से घर आँगन गूंजने लगा..फिर गीत शुरू हुआ..! मुझे पता था कि सबसे बुलंद आवाज गज्जू की है! स्वागत प्यारे बन्धु हमारे, हम सब स्वागत करते हैं! स्वागत करके श्रीमानों का पथ पर पलक बिछाते है..स्वागत गुरुवर स्वागत श्रीवर ..हम सब स्वागत करते हैं..!

माँ बोली-देख अब तेरे बाल-मंगलदल वाले आ गए..! उन्हें 5 रुपये देना और गुड चना लड्डू तो मैं दे ही रही हूँ! अब तक सब एक या दो रुपये ही देते रहे हैं! तू पूरे दो साल में आया इसलिए पांच रुपये से कम मत देना! बच्चे खुश होंगे तो उनका आशीर्वाद लगेगा तुझे…!

मैंने तो पहले ही बीस रुपये रखे हुए थे! ताकि ये एक क्रिकेट की बोल और किल्लियाँ भी मांगा लें! सब इतने खुश हुए कि क्या कहें! सारे गॉव में दूसरे दिन चर्चा रही- देखी तुमन,धन्नासेठ होलू जन..! बीस रुपया दीनी वेन बल..! हम थैं दिखाणुकु.. (देखा जैसे धन्नासेठ हो..हमें दिखाने के लिए उसने बीस रुपये दिए.)!
हाs हाs हाs खैर ये तो हर गॉव में होता ही है…! जरुरी नहीं है कि हर कोई आपको पसंद ही करता हो…!

आज जब अतीत के उन पन्नों को खोलने लगा तो आँखें छलक पड़ी..! मन ने बार-बार कह रहा था कि आखिर ऐसी क्या शिक्षा और सभ्यता ग्रहण कर ली हमने कि अब गॉव-गॉव न रहा! वह भाई चारा न रहा और न ही वह प्यार प्रेम..! न अब वो खेत खलिहान रहे जिनमें देर रात तक बाजू बंद थडिया, चौंफला, झुमैलो को गीत और नृत्य गूंजते रहते थे…! जाने कहाँ खो गया मेरा वह ग्रामीण बचपन..! जिसकी कोख में मैंने अपनी सभ्यता के आईने को पाल पोसकर बड़ा होते देखा था!
रात्री जागरण की तरह ही गुजरी! सालों बाद सभी परिजन इक्कट्ठा हुए थे और सब अपनी आँखों की प्यास बुझाने को आतुर भी…! छोटी बहनें तो ऐसे चिपकी हुई थी जैसे शहद में मक्खी हों! भाई छोटा था लेकिन माँ की काख (बगल) में बैठा अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से टुकर-टुकर मुझे ही निहारे जा रहा था! जब मैं उसकी तरफ देखता तो वह शरमा जाता..! सच में जीतू (छोटा भाई) की आँखें बचपन में बहुत प्यारी थी..! शशि भी कहता था चाचा…! छोटे चाचा की आँखें कितनी प्यारी हैं…!

माँ ने फिर वही राग अलापना शुरू कर दिया- मल्या ख्वाल कुलदीपैकी नौनी ह्वेग्ये, मनी कु भी ब्यो ह्वेग्ये, धिर्गु की भी शादी ह्वेग्ये! त्वे दगडया सबी बिवये ग्येनी..ई दां चा तेरा पिताजी कुछ भी बोलिन मिन त त्वेकू भी नौनी देखण..! हमल ब्वारी कु सुख तब दिखण जब हम मोरी जौला (ऊपर के मोहल्ले के कुलदीप की लड़की हो रखी है, मनी की भी शादी हो गयी है, धिर्गु (धीरज) की भी शादी हो गयी है ..तेरे साथ के सब दोस्तों की शादी हो गयी…इस बार तेरे पिताजी कुछ भी बोलें मैंने तो तेरे लिए लड़की देखनी ही है…हमने बहु का सुख कब भोगना है जब हम मर जायेंगे.) माँ की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि पिताजी जो सिर के पीछे दोनों हाथ बांधे कनस्तर की आड़ लिए आधे लेटे हुए बंद आँखों से जाने क्या चिंतन कर रहे थे बोले- तेरु त दिमाग खराब ह्वेग्ये, अबी थौs बि नि खाणी दे वैथैन अर करडाट शुरू ह्व़े ग्ये तेरु…जरा ढंग से जम-जम्मौ त कन दे व्हे थैंsन…(तेरा तो दिमाग ख़राब हो गया, अभी उसने ढंग से आराम भी नहीं किया और तेरी बरड-बरड शुरू हो गई…जरा ढंग से उसे व्यवस्थित तो होने दे)!

तब तक बाहर से भारी भरकम आवाज सुनाई दी – बारा बजण वळई छन अर तख द्याखदी तौन्कू नींद बि हर्ची ग्याs…! हे मेरी गजबा..अच्चाचकळई ह्व़े ई मौकू बि…! जन बोलिंद युन्को ही नौनु ऐ हो- फ़्रांस जर्मनी भट्टी लाम जीतिकी…! कन सीण नि पाणई तुमला…! मेरी बि निसिणी करीं छ..! तैकु त क्वी काम काज छ नीछ..! बुबन ढुंगी चिफळई करिन्नी पूठा घिस-घिसकी..! सुबेर हैळ बि जाण मिन..! (बारह बजने वाले हैं और वहां इनकी नींद भी खो गई, हे मेरी गजब …बड़ा अनूठा सा आश्चर्य हुआ इस परिवार के लिए..जैसे इन्हीं का लड़का आया हो फ़्रांस जर्मनी से लड़ाई जीत के..पिताजी (मेरे) बैठ बैठ के पत्थर घिस दिए हैं…सुबह हल चलाने भी जाना है मैंने) ताऊजी का हुक्का जो पहले से गुडगुड कर रहा था इन शब्दों को बोलते हुए बंद हो गया था..! उनकी आवाज सुनते ही जैसे कमरे में सन्नाटा सा छा गया..! माँ के मुंह से आवाज तक न निकली पिताजी ने सुरक (चुपके) से मुझे बोला- जा अब तू भी जा के सो जा…!

मैं चुपचाप उठा और गाना गुनगुनाता हुआ अपने तिमंजले वाले कमरे की तरफ लपक गया जहाँ मैं अपने बचपन से युवावस्था के स्वर्णिम पल गुजारे थे…! दरवाजे की कुण्डी जैसे ही नीचे हुई और दरवाजे की चर्र आवाज उभरी..! एक चिरपरिचित कम्कम्पाती सी आवाज आई- हे मनोजाs…. ? मेरी आश्चर्य की सीमा न रही फूफू की वो पुरानी आदत गयी नहीं..! जरुर उसने चाय की केतली अंगीठी के ऊपर रखी होगी जिसके अंगार (कोयले) वस्तुतः मृतप्राय हो चुके होंगे लेकिन केतली जांति के ऊपर न होकर गर्म राख के अंदर आधी से ज्यादा घुसी होगी..!
मुझे अपनी भूल पर प्रायश्चित सा होने लगा मैंने एक बार भी नहीं सोचा था कि सुलोचना फूफू आज भी बिना रात की चाय पिलाए सोएगी नहीं..! 12 बजने के बाद भी वह ऐसी सर्द रात में अखेटी (अंगीठी) के पास बैठकर मेरा इन्तजार कर रही होगी..?  मैंने दरवाजा पुन: बंद किया और जैसे ही खुळ्यागाल (रास्ते का नाम) लांघने के लिए अपने कमरे की मुंडेर से छलांग लगाने के लिए पैर बढ़ाया मेरे होश-फ़ाक्ता हो गए..! चूड़ियों के खनकने की आवाज ने मुझे बुरी तरह डरा दिया…!

किशन भाई की श्रीमती तेजी से अपना बंठा खाली कर पानी के लिए लाने के लिए लपकती हुई तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी! उन्होने मुझे देखा और हँसते हुए बोली- हे शुक्र हुआ तू उठ गया और जीs (सासू जी/मेरी माँ) तेरे लिए चाय लेकर आ गयी होंगी! आज कैसी नींद पड़ी..! ओहो… चलो अच्छा है झंगरियों ख्वाळ (गॉव के मोहल्ले का नाम) से भी अभी कोई नहीं आया! मैं जोर से हंसा तब तक कूड़ा पिछने (मकान के पिछवाड़े) की दौन्थी ताई जी भी उठ गयी थी…! मैंने भाभीजी से कहा- भाभी अभी मैं सोने जा रहा था और आप पानी लेने इस बारह बजे रात…? वो अचकचा सी गयी फिर उन्हें लगा कि देवर है मजाक कर रहा होगा..! फिर अविश्वनीय नजरों से मेरी ओर देख कर बोली – झूठ नि बोल हो…!
तब तक दौन्थी बोड़ी ने ही कहा – हे ब्वारी, तेरा दिमाग खराब है अभी देख बियाणा (एक तारा) भी नहीं आया और आसमान में पूरे तारे चमक रहे हैं…! इसकी पुरानी आदत अभी तक छूटी नहीं है..! यह जब सोने आता है तो सारे ख्वाल (मोहल्ले) को पता चल जाता है..! यह गीत गाकर ऊपर आता है..! शायद इसे खुळ्यागाल देखकर डर लगता है.!

भावी भी उलटे पाँव अपना सा मुंह लेकर लौट गयी..! तब तक न गॉव में बिजली ही थी न पानी ही था..! सुबह चार बजे से उठकर गॉव की माँ बहनें गॉव से आधा किलोमीटर दूर पानी भरने जाया करती थी! गर्मियों में तो वह धारे में ही दो-दो नींद सो लेती थी जब तक दो बर्तन भरते थे…! मेरा दरवाजा बहुओं के लिए अलार्म का काम करता था क्योंकि उसकी चूल को चिंघाड़ने की आदत जो थी! चलो अब पानी और बिजली सड़क सब कुछ है लेकिन पलायन ने गॉवों की कमर तोड़ दी है!  गॉव तेजी से खाली हो रहे हैं..! हमारा गॉव अभी भी 80 प्रतिशत सुरक्षित है..! वहां से पलायन नाम मात्र का हुआ है!  यह सौभाग्य की बात है!

फूफू को आग में अपनी जांघे सेंकते हुए देखा…! बुजुर्ग हो गयी थी मुझे देखते ही बोली- क्या भूल गया था कि मैं जिन्दी भी हूँ कि निबट गयी..! उसकी बात कलेजे को चीरती सी महसूस हुई..! मैंने फूफू की झप्पी ली और दो गरम गर्म आंसू के बूँद उसकी झुर्री वाले चेहरे पर टपकाए! उसने लाड जताते हुए अपने कंटीले (हथेलियों का स्वरुप काम करते करते कुछ यूँही हो जाता है अक्सर बुढापे में ग्रामीण महिलाओं के) से हाथों से मेरे मुलायम गालों का स्पर्श कर मेरा चुम्बन लिया और कम्कम्पाती आवाज में बोली- चल बंडी स्वांग न कैर..(चल ज्यादा ड्रामा मत कर)…! वह प्यार अभी भी अपलक मेरी आँखों में समाया मेरी फूफू जो सगी भी नहीं थी, का अक्स आँखों के आगे ले आया है! वह अनमोल स्पर्श याद आते ही आँखे भर आई हैं! भगवान् उस पवित्र आत्मा को स्वर्ग में शान्ति दे!

चाय लगभग ठंडी सी हो चुकी थी..! जाने कब की बनी हुई थी..! केतली भी कई दिनों से सही अखाली (साफ़) नहीं गयी थी शायद..! इसलिए चाय की पत्तियों में भी बास सी आ रही थी लेकिन वह अमृत मैंने अतृप्त होकर पीया..!
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अब मैं बिस्तर में था नींद कोंसों दूर…! आखें छत्त को निहारती जहाँ घुप्प अँधेरा था! करवटें बदल-बदल कर मैं यह तैयारी में लगा था कि किस प्रकार पिताजी से बात करूँ कि मुझे फलां गॉव की फलाने की लड़की पसंद है आप जन्मकुंडली मांग कर ले आना..! इसी अधेड़बन में कब नींद आई पता भी नहीं चला! माँ ने भी आज उठाना उचित नहीं समझा..! वरना वह जब मैं पढता था चार बजे सुबह चाय के साथ मुझे जगा दिया करती थी! उसकी सोच थी कि सुबह पढ़े आखर याद रहते हैं!

धूप जब आँखों पर चमकी तो पता चला कि कितनी देर हो गयी है…! हडबडाकर उठा..! माँ ने चाय बनाकर रखी हुई थी! पिताजी बाहर बैठकर फटालों में हुक्का गुडगुडा रहे थे जबकि ताऊजी हल चलाने चले गए थे..! मैंने पानी की बोतल भरी और चल दिया खेतों को खाद देने…! गॉव में खुले में शौच का आनंद ही अलग है! यहाँ से वह गॉव दिन दोपहर भी ऐसे टिमटिमा रहा था जैसे हीरे जगमगा रहे हों..! आखिर प्रेमिका का गॉव जो ठहरा!  वहां के रास्ते कई बार नापे थे…! शौच बैठे-बैठे मेरी नजर वहीँ थी कि कोई दिखे तो सही…! खैर अब मैंने आखिर ठान ही लिया था कि मुझे बेशर्म बनना ही पड़ेगा! घर जाकर पिताजी से अवश्य इस सम्बन्ध में बात करनी होगी!

माँ चैंसा (उड़द की दाल) रेग रही थी..! चैंसा मुझे बेहद पसंद था..! माँ इसमें मूला (पहाड़ी गोल मूली) मिलाकर जब इसे कढाई में पकाती थी तो उस स्वाद की बात ही नहीं की जा सकती..! वैसे फाणा (गहथ की दाल को रेककर) फूफू जब चीनी मिट्ठी की कढाई में बनाती थी तो यह समझ नहीं आता था कि किसे छोडू और किसे खाऊँ ! माँ से पूछा कि पिताजी कहाँ गए..! माँ ने कहा- कल तेरे जाने के बाद कह रहे थे कि वो बचपन में बड़ा शिकरिया (मांस खाने वाला) था और जिस दिन गॉव में बकरा कटता था वह स्कूल नहीं जाता था आज जरा उसे कचमोली (भुने बकरे का मांस) खिलाते हैं..! इसलिए पता नहीं कहाँ गए..! माँ ने मेरे चेहरे की गंभीरता पढ़ते हुए कहा कि क्या बात है…! मैंने कहा -कुछ नहीं माँ, पिताजी दिखे नहीं इसलिए पूछ लिया…!

फिर अटकती आवाज में बोला- तू कल रात शादी-शादी क्यों चिल्ला रही थी…! जब होगा देखा जाएगा..! अभी क्या जल्दी है!  माँ को तो जैसे मन की मुराद मिल गई हो! वह बोली हर माँ का सपना होता है कि औलाद जवान हो और उसकी बहु आये..! मेरा भी सपना है! जाने तू कब पूरा करता है!  मैं चुप रहा तो माँ बोली- बेटा तेरे दिमाग में कुछ न कुछ तो चल रहा है..! कहीं ऐसा तो नहीं है कि तूने दिल्ली में कोई देशवाली बहु पसंद कर दी है! मुझे माँ के ये शब्द बड़े बुरे से लगे…! मैं झल्लाता हुआ सा बोला- यही उम्मीद थी तुझको मुझसे…!
माँ बोली नाराज मत हो मैंने तो यूँही मजाक किया था! फिर बडबडाती बाहर निकल गई! मैं अपनी बेवकूफी पर पछताया कि अच्छा ख़ासा मौका मिला था माँ को बताने का…?

खैर दिन मैं नहाना धोना और 2 बजे बाद बकरा काटा गया! ताऊ जी आज तीन बांठी (3 किलो) और पिताजी दो किलो उठाकर ले आये! यूँ तो परिवार बड़ा था लेकिन ताऊजी को ये लगता था कि पता नहीं मेरे पिताजी के पास रुपये हैं भी कि नहीं! एक और बात आपसे शेयर करने का मन है! मेरे पिताजी ताऊजी की डांट खाकर शौच करते वक्त ही घर से भागकर बंगाल इंजीनियरिंग में भर्ती हो गए थे और जब रिटायर हुए तो पूरा गॉव गाजे-बाजे के साथ उन्हें लेने दूर गॉव की सरहद तक गया! पिताजी जब रिटायर हुए तब ताऊजी की उम्र चालीस साल हो गयी थी वे फिर सीआरपी में भर्ती होने गए..! इन भाईयों का आपस में क्या भाइयों का प्रेम रहा होगा…! आप कल्पना कर सकते हैं. जबकि चाचा जी बिलासपुर (ऊ.प्र.) में पशुपालन में थे! और जिस दिन मुझे यह पता चला कि मेरे ताऊ जी अलग दादा के व पिताजी व चाचा जी अलग दादा के यानि ताऊ जी के पिता जी बलदेव प्रसाद व पिता जी व चाचा जी के पिता शंकर दत्त हुए तो बड़ा दुःख हुआ क्योंकि कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता था कि दो अलग अलग बाप की औलादों में इतना अधिक भाई चारा होगा!

खैर शाम को जब खाना शुरू हुआ तो बहनों ने अपने-अपने थाल में एक एक टुकड़ा मांस का मेरे लिए बचाकर रखा हुआ था! जब मैंने सबकी थाली पर नजर मारी तो जोर-जोर से हंसा..! सबको बोला – यार अब रहने दो अब मैं बड़ा हो गया हूँ..! इस तरह कब तक खिलाते रहोगी..! खैर बहनों का प्यार था उसे कबूलना जरुरी था…! (लेख ज्यादा विस्तृत हो रहा है अत: अन्य प्रसंगों का विस्तारित वर्णन न कर पुन: लीक पर आता हूँ..)

अचानक छोटी बहन ने भरी महफ़िल में बोल दिया..! भैजी व पल्या गौं की रोज आंद जान्द तेरा ही बारम किलै पूछणी रैंद…! (भाई जी उस गॉव की वह लड़की रोज आते जाते तेरे ही बारे में पूछती ही ही रहती है.)

बस फिर क्या था कुछ समय तक बिलकुल शान्ति रही फिर माँ बोली- किसकी लड़की…? मैंने बहन को घूर कर देखा और पूछा- कौन है वो मैं उसे पहचानता हूँ क्या…? बस प्रसंग आया था तो बढ़ता ही चला गया! माँ बोली- अगर तेरी क्वी पसंद कर्रीं छ त बोल (अगर तूने कोई पसंद की हुई है तो बता)..? पिताजी भड़क गए! बोले तेरा दिमाग खराब ही रहता है शायद, तुझे भले से पता है कि तेरा बेटा कैसा है..! फिर भी तू ऐसी उटपटांग बातें क्यूँ करती है…! अब माँ के भड़कने का समय था माँ बोली- तुम हमेशा मुझ पर ही चिल्लाते क्यों हो! एक बार पूछने में क्या हर्ज है..! फिर चुप्पी..! आखिर बात मुझ पर आकर अटक गयी..! मैंने पिताजी को अटक-अटक कर आखिर कह ही दिया कि एक लड़की उस गॉव की उनकी भी है..! मुझे वह सरीफ लगती है..! दिखने में भी अच्छी है! घर परिवार आप जानते हैं! अगर आपको लगता हो कि वह आपकी बहु बनने के काबिल है तो …?

माँ तपाक से बोली- कौन, किसकी..! किसकी बात कर रहा है तू…? जबकि पिताजी एकदम शांत हो गए..! उनके चेहरे का रंग उड़ सा गया था! आखिर बोले- तूने ढूँढा तो ठीक था पर…? मैं बीच में ही बोल पड़ा- न, न मैंने तो सिर्फ ये कहा कि उनकी भी लड़की है..! कौन सामैंने ये कहा कि वह मुझे पसंद है…! और यह कहते ही टूटे दिल से गुस्सा जताते हुए खडा हो गया..! माँ अब पिताजी पर बरस गयी! तुम्हारी भी इतनी लडकियां हैं! हम गरीब हैं फिर भी तुम कहते हो कि किसी ऐरे-गैरे को थोड़े अपनी बेटियाँ दे दूंगा..वो जातवान-थातवान सब हैं फिर भी आप..?

पिताजी बोले- वहां सब कुछ ठीक है लेकिन अब देर हो चुकी है…! मैं कमरे से बाहर निकल ही रहा था कि बोले रुक जरा..! मुझे लगा अब शायद बात बन गयी..! माँ ने जो चोट की थी वह सही जगह लग गयी..! अब पिताजी जरुर यह कहेंगे कि वो ताऊजी से बात कर इस बारे में बिचार बिमर्श करेंगे और मैं अच्छे से जानता था कि ताऊजी मुझे धर्माजोगी जरुर बोलते थे लेकिन मेरी ख़ुशी के लिए कुछ भी कर सकते हैं…!

मेरी सोच-सोच ही रह गयी..! पिताजी ने कुन्ना (अनाज रखने का बांस निर्मित भण्डार) के पास रखा एक शादी का कार्ड मेरी ओर बढाते हुए कहा- ये ले, कल तूने इस शादी में सरीक होने जाना है..! अब यह तुझ पर है कि तू हमारा मान बढाता है या डुबाता है..!

मैंने जब कार्ड में नाम देखा तो पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई मैं जड़वत सा रह गया..! पहली बार पिताजी ने मुझे आकर कंधे से पकड़ा और बोले..! तू समझदार है, तुझे समझाने की जरुरत न मुझे पहले कभी हुई न आज ही होगी…! होनी को कोई नहीं टाल सकता! काश… कि तूने कुछ दिन पहले यह सब बताया होता..! .यह कहकर वह बाहर निकल गए! अब तक शायद माँ भी समझ गयी थी..! मेरी आँखों से जैसे ही आंसू निकले मैं पलट कर तेजी से अपने कमरे की ओर बढ़ गया! आज मेरी चाल में तेजी थी लेकिन होंठों पर गीत के बोल नहीं थे…! दरवाजे पर खुंदक निकाली चर्र की आवाज उभरी! फूफू की आवाज भी सुनी जो चाय के लिए इन्तजार कर रही थी लेकिन बदन में इतनी ताकत कहाँ बची थी जो अपने पैरों पर खड़ा रह पाता..! निढाल सा बिस्तर पर लेटा! देर तक रोता रहा..! माँ कब आकर सिर सहलाने लगी पता भी न चला! माँ पूछती रही कि आखिर ऐसा हुआ क्या जो तू रो रहा है! न तेरे पिताजी ही बताते हैं न तू ही..! आखिर सब मर्द ऐसे ही क्यूँ होते हैं…! माँ को क्या बोलता? यह कि मेरी दुनिया लुट गयी है…!

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