मेरा पहला प्यार…(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) ग्यारहवां एपिसोड..!

मेरा पहला प्यार…(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ)
                      ग्यारहवां एपिसोड..!

आज का दिन निकला और कैसे निकला यह शायद आसमान को भी गंवारा न हुआ…! सुबह से ही बादल छाए हुए थे…वैसे ही नवम्बर का महिना ! पहाड़ की ठण्ड का अनुमान लगाया जा सकता है..माँ ने मेरे बैग में एक थाली एक लोटा और एक साड़ी-ब्लाउज डाला और साथ में दुल्हा, दुल्हन के हाथ में रखने के लिए दो लिफ़ाफ़े.भी! दो किलो लड्डू का डिब्बा शगुन के तौर पर माँ ने मामा जी के लड़के कमल किशोर को अगरोड़ा-पैदुल भेजकर कब मंगाए थे मुझे पता भी नहीं चला. शायद तब पयासु दीदी का छोटा बेटा रुपेश व कमल किशोर प्राइमरी में पढने हमारे घर ही आ गए थे.
माँ भरे मन से बोली ..जा रहा है तो समय पर जा…! आज मौसम भी ख़राब है जाने कब बरस पड़े, और हाँ ऐसा कुछ ऊँच-नीच न होने देना जिससे दोनों खानदानों की नाक नीची हो..तू खुद समझदार है.
 
माँ ने ये शब्द शायद अपने दिल पर पत्थर रखकर कहे थे..क्योंकि उसके हर शब्द में लाचारी नजर आ रही थी..! मैं थके से क़दमों से तैयार होकर चल पडा उस राह पर जिसे मैंने अपने प्यार को देखने भर के लिए जाने कितनी बार रौंदा होगा. अपने गॉव की आबाद सरहद पार कर जैसे ही में बेर-धार में पहुंचा तो लगा टांगों को लकवा मार गया है. कभी हम नीचे नदी से आते वक्त सुस्ताने के लिए यहाँ बैठा करते थे…आज घर से मुश्किल से 300 मीटर दूरी पर ही पाँव थक गए थे. मैंने बेरी के काँटों के बीच पक्की बेरियाँ देखी.फिर उसके उन काँटों को भी जिन्होंने कई बार मेरी अंगुलिओं को बेरी तोड़ते समय छलनी किया था. एकटक एक बेरी को देखा वह और बेरी से हटकर लग रही थी. अपना बादामी रंग छोडकर लाली लिए हुए थी लेकिन मुरझाई सी भी..! कल्पनाएँ कहाँ से कहाँ पहुँच जाती हैं..वह बेरी मुझे मेरी प्रेमिका का वह रूप दिखाई देने लगा जैसे वह सुर्क जोड़े में सजी मंडप में बैठी हो..वहीँ दूर उस गॉव में मंडप पूजा के लिए बज रहे ढोल के शब्द हवा के झोंकों के साथ तैरते हुए मेरे कानों तक पहुँच रहे थे. हा हा हा पागल प्रेमी ऐसा ही होता है शायद..! मैं उस बेरी को देख ही रहा था और कल्पनारत ही था कि मेरी आँखें भर आई..! यह क्या ऋतुराज प्रकृति भी मेरे इस दीवानेपन की पीड़ा नहीं झेल पायी. अनायास ही एक कड़कदार आवाज के साथ घनघोर बादलों की ओट से बिजली कडकी, तेज हवा का झोंका नदी तट से शांय-शांय की आवाज में तूफ़ान बन ऊपर को उठता हुआ चला आया. धूल-मिटटी और अंधड़ गोल चर्खी सा गोले बनाता हुआ चक्रवात का रूप ले बड़े-बड़े पेड़ों को उखाड़ने में आमादा हुआ दिखाई देने लगा. हवा की आवाजें विभिन्न प्राकृतिक पौधों के बीच से झरती हुयी बड़ी डरावनी आवाज के साथ मुझे भी उड़ाने को आमदा दिखाई देने लगी. बेरिधार के बेरी के झाल ऐसे हिलने लगे मानो प्रलय आ गयी हो. मैंने फिर भी अपनी एकटक नजर वहां से नहीं हटाई. लेकिन प्रकृति शायद मेरे इस रूप से खिन्न थी. उसने हवा को आदेश दे ही दिया था कि वह रंक्तिम बेरी वहाँ आसपास नहीं दिखनी चाहिए. मेरे देखते ही देखते वह बेरी अपनी साख से टूट कर कांटो से उलझती गिरती उस अंधड़ के साथ अनंत में जा समाई जो हवा ने पेंग बढ़ाकर नभ को छूने के लिए रचा हुआ था. बेरी ने भी आज मुझे अपना बैरी समझ लिया था यह देख होंठ मुस्करा दिए थे.
 
अंधड़ चक्रवात के शांत होते ही मैंने अपनी आँखों के अन्दर घुस आये मिटटी के कणों को मसलना शुरू कर दिया. पास से गुजरते पक्षियों के झुण्ड भी प्रलाप करते हुए दूर उड़ते चले गए. दूर जंगल के राजा बाघ की गर्जना सुनाई देने लगी..वहीँ धान्दण गॉव की सरहद से गुजरता सियारों का झुण्ड भी वां वां का बिलाप करता तेजी से आगे बढ़ रहा था. सच पूछिए तो जितना बिचलित मैं था उतना ही बिचलित प्रकृति का सारा संतुलन भी नजर आ रहा था.
धूप असवालस्यूं की सरहद लांघकर मेरी सरहद की तरफ खिल कर फिर लोप हो गयी. शायद वह यह संकेत देना चाह रही थी कि एक तो मौसम खराब है ऊपर से वन राज का विचरण और जंगल की बात..! समय गंवाना ठीक नहीं है, इसलिए जल्दी से अपनी मंजिल की तरफ बढ़…!
 
मैं अब अपने बिलाप प्रलाप की मुद्रा की तन्द्रा तोडकर चेतन अवस्था में लौट आया था. आसमान की तरफ सर उठाकर देखा तो हलकी बूंदे चेहरे पर गिरती महसूस होने लगी. काला और भूरा आसमान बड़े ही डरावने तेवर में दिखाई दे रहा था. मुझे कुछ नहीं सूझा और झोला उठाकर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता हुआ दिल को समझाने के लिए गीत गाने लगा; – दिल के आसमां पर गम की घटा छाई आई आई आई तेरी याद आई…तेरी याद में सारी दुनिया भुलाई.आई आई आई तेरी याद आई…!
 
जाहिर सी बात है कि दिल की आवाज के साथ खुमार भी आंसुओं की तड़फ के साथ नदी की धार बन बहकर दिल ही दिल गुनगुना रहा होगा..ओ माझी रे नदिया की धारा…दूर है किनारा माझी रे…!
 
घाट उड़यार जो की खरगड नदी के ऊपर की पैनी धार है. यहाँ पहुँचते-पहुँचते बारिश तेज हो गयी थी! मुझे अपने स्कूली दिन याद आ गए जब हम गाय चुगाने के लिए इस ओर आया करते थे. मैं उस छोटी सी गुफा की ओर बढ़ गया जहाँ लेट-लेट कर मैं अपने स्कूली दिनों में सीटी बजाकर सरहद के पार दूसरे गॉव की लड़कियों को सीटी बजाता था, और बदले में उनमें से कोई एक लड़की भी सीटी में ही जवाब देती थी. वो तभी हमारी सरहद में घास लकड़ी काटने आती थी जब मैं होता था अन्यथा नहीं आती थी क्योंकि गॉव के लड़के उनकी दरांतियां लूट लिया करते थे. एक और सूल खूबसूरत ख्वाब बन आँखों के आगे रेंगने लगा. वो लड़कियों का ग्रुप जब बरसात में एक बार घास काटकर नदी पार कर रहा था तो अचानक एक लड़की घास के गट्ठर सहित बहने लगी. सब चिल्लाने लगे मैं भी तब अन्य गाँव के लड़कों के साथ नदी की ढन्ड (तालाबनुमा/ स्विमिंग पुल नुमा) से नहाकर चढ़ाई नाप रहा था. उसने सबसे अच्छा काम यह किया कि बहते हुए घास को सिर पर ही थामे रखा. लडकियां उसके साथ-साथ चिल्लाती नदी की ओर बढ़ रही थी.मैंने आव देखा न ताव और पहाड़ी ढाल को लांघता हुआ उसके ऊपर छलांग लगा दी. फिर उसे कमर से पकडता हुआ किनारे की ओर तैरने लगा. वह पानी के अन्दर बाहर गोते खा रही थी. अचानक उसकी साडी एक पत्थर पर फंस गयी पानी के बेग से अब मैं भी चक्रवात की तरह घूमने लगा!  शुक्र है कि साडी का कोना फट गया और हम जल्दी छूट गए. वरना उस दिन एक नहीं दो-दो मौतें तय थी. जैसे-तैंसे मैं उसे लेकर नदी तट पर पहुंचा. वह वजन में मुझसे भारी थी. गॉव का नाम और लड़की का नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूँ क्योंकि यह किसी की निजी जिन्दगी का सवाल है..जिसमें हमें दखल देने का कोई अधिकार नहीं है. यह बता दूँ कि उस समय जवान लडकियां सूट नहीं बल्कि साड़ियाँ पहना करती थी भले ही वह कुंवारी रही हों.
वह घुटनों से व कोहनियों से कई जगह छिल गयी थी मामूली मुझे भी नुकसान हुआ था लेकिन पहाड़ की वीर बाला जो ठहरी. एकदम लम्बी-लम्बी साँसे लेकर अपनी सहेलियों से बोली घर में कोई मत बताना वरना खामख्वाह का हल्ला होगा. शायद वह वही थी जो ग्रुप में सीटियाँ बजाना जानती थी क्यूंकि उन लड़कियों में से एक ने कहा – रांडै छोरी म्वरी ग्ये छई आज..अच्छु व्हे यु भैजी रैग्ये निथर आज झणी क्य होंदु, तेरी सीटी बजाणी सुफल व्हे ग्येनी ( हे छोरी मर गई थी तू आज …अच्छा हुआ ये भाई रह गया वरना आज पता नहीं क्या होता.तेरी सीटी बजानी सफल हुई).
 
यूँ तो इस सरहद नदी आर-पार से जुड़े कई प्रसंग हैं लेकिन मैं कहानी से भटकना नहीं चाहता हूँ. यह घटना याद आते ही मेरे होंठ मुस्कराने लगे. होंठ गोल-गोल हो सीटी बजाने लगे. मैं उस पहाड़ी गुफा में उसी मुद्रा में लेट गया जिस मुद्रा में लेटकर मैं उन्हें देखकर सीटी बजाता था. मैंने दो बीच की अंगुलियाँ मोडी और जोर से सीटी बजा दी. दूर दो सरहदों में गूंजती मेरी सीटी की आवाज अभी थमी भी नहीं थी कि दूसरी छोर से सीटी गूंजी. मैं एकदम खड़ा हुआ ..सीटी की दिशा में झाँका लेकिन कुछ न दिखाई दिया क्योकि एक तो मौसम खराब ऊपर से कोहरा व अँधेरे ने अपनी हलकी चादर फैलाना शुरू कर दिया था. मैंने अब वही वाली सीटी बजाई जिसे सुनकर लडकियां प्रत्युत्तर में वैसी ही सीटी बजाती थी लेकिन मेरा बहम निकला. इस बार दूसरी सरहद से आवाज गूंजी- ओह भाई साहब कु होला व्वे छाला…तथैं बखरा भी होला दिखैणा…पांच जीबन नि छन मिलणा… (हो भाई साहब कौन हो उस पार,..उधर कहीं बकरियां भी दिख रही हैं…पांच प्राणी नहीं मिल रहे हैं.) मैं प्रत्युत्तर में कहा – न भाईजी नहीं हैं…बाघ भी गर्जना दे रहा है जरा ध्यान से…!
 
मुझे भी लगा कि अब ज्यादा देर ठहरना ठीक नहीं है. बरसात भी हलकी हो गयी थी हाँ इतना जरुर हो गयी थी कि मेरे चमड़े के जूते और सफ़ेद पेंट ख़राब कर देती क्योंकि रास्ते के दोनों छोर ऊँची-ऊँची घास थी और रास्ते की चौड़ाई का माप एक से डेढ़ फिट रहा होगा. ठण्ड होने के बाद भी मैंने पैंट उतारी और कंधे पर लटका दी ताकि गीली न हो. जंगल के रास्तों से गुजरने में यह अच्छा तरीका है. बशर्ते आप ऐसा करने में पारंगत हों. आगे तीखा ढाल था और मिटटी चुपड़ी थी. जूता फिसला और बैठने के स्थान में मिटटी जहाँ अपना बड़ा सा तिलक लगा गयी वहीँ मुंह से दर्द की आवाज भी उभरनी लाजिमी थी. लचकता हुआ नदी में पहुंचा. अंडरवियर उतारा और उस पर चिपकी गीली मिटटी को धोया. मजबूरी थी अब पेंट पहननी ही पड़ी जबकि गीला अंडरवियर ठीक उसी तरह सर पर रुमाल बन गया जिस तरह हम गर्मियों में नदी से नहाकर ऊपर चढ़ते हुए रखते थे और वह रास्ते में ही सूख जाता था..लेकिन आज उसके सूखने की संभावनाएं कम थी. अपनी भूल पर बड़ा पश्चाताप भी हुआ. क्यूंकि शादी में पहनने के लिए सूट तो रख दिया था लेकिन अंडरशर्ट अंडरवियर रखना भूल गया था.
 
आखिरी पड़ाव गॉव के पास का वह पत्थर था जहाँ मैंने दो साल पूर्व दिल्ली जाते समय उसे अंतिम बार देखा था .जहाँ उसकी आँखों से अंतिम आंसू झरे थे. जहाँ उसने अपनी सहेली को सोटी से मारा था. मैंने उसकी सहेली की पीड़ा का आभास करने के लिए रास्ते के ऊपर लपलपाती एक तूंगे की सोटी तोड़ी और घुमाकर अपने पिछवाड़े में मारा.. आह के शब्द निकले पीड़ा थी लेकिन सुख देने वाली. मेरे होंठ मुस्कराए. आज सोचता हूँ कि यार प्यार भी कितना अंधा बहरा होता है, क्योंकि इतने साल भी उस प्यार के एक एक कदम एक एक हंसी एक एक उदासी एक एक आंसू, एक एक क्रियाकलाप की याद तो है लेकिन कल शाम मैंने क्या किया क्या खाया कहाँ कहाँ गया याद करने के लिए बहुत देर लग जाती है और कई बार याद तक नहीं आत़ा.
 
मैं उसी चट्टान से अपने अतीत की बातों में मशगूल हो गया अब मैं रो नहीं रहा था बल्कि मुस्करा रहा था. या यों कहें हंस रहा था एक ऐसी हंसी जिसमें जमाने के गम, जमाने की बेबसी और पूरे जहाँ की बेकशी थी. कुछ देर बाद मैंने ठहाके लगाने शुरू कर दिए. मैं शायद अपने को संतुलित करने की चेष्टा में असंतुलित सा हो रहा था. उन ठहाकों की गूँज ने फिर नीरस आँखों की पोर भिगो दी थी. उफ़ कितना डरावना था वह सच…वह सच्चा प्यार वह सच्ची तपस्या वह अलौकिक सौन्दर्य और वह पत्थर की सी मूरत…!
 
ऐसे जड़वत स्वप्न में जाने कितने घंटों उसी पत्थर में लेटा अपने चेहरे का नक्शा सुधारने की कोशिश कर रहा था. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस गॉव की ओर कदम बढाऊं जहाँ पहुँचने के लिए मैं न दिन देखता था न रात !  यकीन मानिए हो सकता है यकीन न भी आये..लेकिन दीवानगी क्या होती है ये मैं आपको बताता हूँ..कई बार मैं रात को चुपके से उठकर यह देखने उस ओर आ जाया करता था जिधर वह गॉव था. पहाड़ों के गॉव जो ठहरे..एक गॉव से दूसरे गॉव नजर पढ़ ही जाती थी..भले ही मेरे गॉव तब बिजली नहीं आई थी लेकिन वह जगमगाता रहता था..वह गॉव और उस घर का आँगन मुझे रात्री के 12 बजे भी साफ़ नजर आता था. इसे आप मुहब्बत नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि गर्मियों की रात्री में मैं रात्रीचर सा हो गया था! ठीक क्वीली गढ़ के गढ़पति अमरदेव सजवाण की भाँती..! जो तैडी गॉव की तिलोका तडयाली के दीये के इशारे पर गंगा को पार कर मीलों पैदल चलकर तैडी गॉव मिलने पहुँच जाता था. सच मानो तो कभी मेरी प्रेमिका का भी ऐसा इशारा मुझे मिल जाता तो मैं भी मीलों पैदल चलकर उससे मिलने उसके गॉव पहुँच जाता क्योंकि यह प्यार पागलपन की हद तक पहुँच चुका था. मैं उन्हीं भूली बिसरी यादों को मिटाता सोच में पड़ा था कि मैं कितनी देर तक उसके घर को इसलिए ताकता रहता था कि अब उसकी बत्ती बंद हो तब उसकी बत्ती बंद हो..तब जाने रात्रिचर जानवरों और प्रेतात्माओं का डर कहाँ था…!
 
अचानक नानसू गॉव के जंगल से शेर की गर्जना सुनाई दी. यह गर्जना मुझे इसलिए भी याद थी कि सुबागी ब्वाड़ा के साथ जब भी गाय चुगाने गया तो उन्होंने ही बताया था कि नानसू के जंगल में आज भी बर्बर शेर रहता है. यह अब और आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि बर्बर शेर तो सिर्फ बंगाल में पाए जाते हैं. गढ़वाल के जंगल में तब शेर गरजता था यह अकाट्य सच है. वर्षों पहले वह गर्जना वर्तमान के अंधेरों में जाने कहाँ खो गयी..उस दिन भी जब वह गर्जना सुनी तो चेतना शून्य से लौटकर चेतन अवस्था में लौटा. सिंह गर्जना से दिन में भी  हृदय कांप जाता था ..आज की गर्जना से चेतना जरुरी लौटी थी लेकिन डर जरा भी नहीं लगा था. बस सूखे होंठ एक बार मुस्करा दिए..पलटकर नजर उधर मारी जहाँ से गर्जना सुनाई दे रही थी..लेकिन घुप्प अँधेरे में कुछ भी नहीं दिखाई दिया..हाथ नीचे कुछ गीला-गीला जरुर लगा..तब ध्यान आया कि यह तो मेरा अंडरवियर है जो गीला हो गया था. अब मैंने आखिर निर्णय ले ही लिया कि आखिर जाना तो है ही…टूटे कदम फिर बढ़ चले मंजिल की ओर…!
 
गॉव की सरहद लांघते ही गॉव आज जुगुनू की तरह चमक रहा था..महिलाओं का कोलाहल हो रहा था जिससे साफ़ जाहिर था कि आँगन में साझे की रोटीयां बनायी जा रही हैं. वहां बारात अभी दूर-दूर तक नहीं थी लेकिन दुल्हन के घर में ढोल और स्पीकरों में गाने बज रहे थे. मैं जैसे-तैसे गॉव तक पहुंचा और एक घर में बैठा रहा..वहां से भी सभी लोग शायद वहीँ गए थे. बस बुजुर्गवार थे जिनके पैर छुवे उनसे कुशल क्षेम पूछी और घर की कुशल;क्षेम बतायी. कुछ लडकियां अब परोंसा ( जो पंगत के खाने में जाने से असमर्थ हो उसके लिए खाना) लेकर आई और बोली कि दादाजी ये आपके लिए परोंसा (खाना) भेजा है बाकी सब वहीँ खायेंगे. मुझे देखकर पहले सब शरमाई लेकिन उनमें से एक ने पहचान लिया..फिर खुसुर-पुसुर शुरू हुई. एक दूसरे के कान से गुजरती बातें अब मेरे कानों तक ऐसे पहुँच रही थी…हाँ बे वी छ…दूसरी बोली – चल बे वू त कालू छ..यु ग्वारु लगनु छ…तीसरी – पक्का वी भैजी छ… (हाँ भई हाँ वही है. दूसरी बोली- चल बे वो तो काला था ये गोरा लग रहा है. तीसरी- पक्का वही भाई है)!
 
मैं अभी मुस्करा ही रहा था कि बुजुर्गवार की आवाज आई..हे बेटियूँ ह्या ये नौनोकू भी यखमै ही लया द्वी रव्टी..टैमन खै लेलु ..बिचारु थक्युं सी दिखेणु छ..( हे बेटियों इस लड़के के लिए भी यहीं ले आओ दो रोटी ..समय से खा लेगा…बेचारा थका हुआ सा दिख रहा है) मैंने झटपट बोला न जी भाई जी न..मैं वहीँ जाऊँगा…मेरी आवाज सुनते ही उनमें से एक लड़की किलकारी मारती सी बोली देखा- देखा मैंने बोला था न कि वही भैजी है…?
 
मैं उन्हें देख कर हंसा और बोला -हाँ रे मैं वही हूँ जिसके बारे में तुम इतनी देर से खुसुर फुसुर कर रही थी. अब दिल्ली का पानी लग गया है इसलिए जरा सा गोरा हो गया हूँ…फिर क्या था एक-एक करके कई बार भैजी नमस्ते ..भैजी नमस्ते की आवाजें गूंजने लगी. उन अल्हड़ लड़कियों की आँखों में टिमटिमाती ख़ुशी ने मेरी आँखों से भी तारे झर्र दिए. जाने क्यूँ मैं इतना भावुक सा हो रहा था. टप-टप झरते आंसुओं की भाषा के बोल शायद उन्हें भी समझ आ गए थे..मेरी दशा पर वो भी सिर झुकाए धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगे..जाते-जाते छोटी लड़कियों की आवाज मेरे कानों में गूंजी- हे दीदी वू भैजी किलैकी रुनु छायो..(हे दीदी वह भाई क्यूँ रो रहा था)..बड़ी वाली ने डांटते  हुए बोला- चुप तेरे को पता नहीं है कि वो भाई जी कई सालों बाद इस गॉव आया है..वो ख़ुशी के आंसू थे.
मेरे पास मुस्कुराने के अलावा और कोई चारा भी नहीं बचा था. भाई जी बोले- बेटा तू तो वहीँ खायेगा .बस मैं दो रोटी दाल के साथ चबा लेता हूँ..कोई घर पर होता तो चाय बनाकर पिलाता. तेरे को तो पता है ही पौणाई की रोटी जरा सा ठंडी हुई कि सूख कर लकड़ बन जाती हैं..वैसे ही इस बुढापे में दांत नहीं रहे. आँखे भी कमजोर हो गयी..बस खांसी रहती है..दम फूलता है..कान भी कमजोर से हो गए हैं इसलिए वहां नहीं जा सका वरना ऐसा हो सकता है कि मैं न जाता. तू तो भले से जानता है. और जाने क्या-क्या बडबडाते हुए उन्होंने दाल और रोटी खाना शुरू कर दिया था…मैं उन्हें ही सुन रहा था..कि अचानक मकान की ओर बढ़ते दबे क़दमों की आहट आई मैंने अँधेरे में झाँका तो देखा दो तीन साये आँगन के किनारे घर में आने के लिए सकुचा रहे हैं. आखिर एक ने आवाज लगा ही दी- हे बोड़ी..चल अपार धै लगी ग्येनी परस्वा लाणुकु..(ओ ताई जी ..चलो खाना लाने के लिए आवाज लग गयी हैं ) अंदर से भाईजी की आवाज गूंजी- हाँ बेटी सब वही गए हुए हैं..मेरे लिए आ गया है..धारकोट के मनोज भाई भी आये हुए हैं इनको भी ले जाना और हाँ रहने की व्यवस्था न हो तो किसी भी लड़के को कहना वह छोड़ जाएगा..!
 
मैं उस आवाज को लाखों की भीड़ में भी पहचान देता क्योंकि वह आवाज उसी की थी जो मेरे प्रेम ग्रन्थ की महत्वपूर्ण कड़ी यानी उसकी सहेली थी. मेरे दिल की धड़कने अचानक तेज हो गयी थी. नसें धौकनी की तरह धाड़-धाड़ बजनी शुरू हो गयी थी..अभी मैं कुछ सोच भी नहीं पाया था कि दूसरी लड़की की आवाज सुनाई दी- हे भैजी आवा ता..हम थैं देर छ होणी (भाईजी आओ तो हमें देर हो रही है) मैंने भाई जी से विदा ली और यंत्र चालित सा सीढियां उतरने लगा..अब तेज फोकस की टोर्च मेरा मार्गदर्शन कर रही थी जो उन लड़कियों के नजदीक आकर मेरी आँखों पर चमकी जिससे बचने के लिए मैंने आगे हाथ बढा दिया..दरअसल वह टोर्च यही अनुमान लगाने की कोशिश कर रही थी कि क्या मैं सचमुच रो रहा हूँ..यह कोई और नहीं बल्कि उसकी जिगरी दोस्त थी ! .
जब भावनाएं बलवती हों तो तब व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है यहाँ तक की लोक-लाज भी.,..! अचानक टोर्च बंद हुई और वह लड़की मेरे सीने से लगकर फबक-फबककर  रो पड़ी..मैं असहाय सा कुछ सूझ ही नहीं रहा था..उसका रोना मात्र था कि मेरी आँखों में थमा ज्वार भाटा फिर उमड़ पड़ा. अब मैंने भी उसका आलिंगन कर लिया..हम दोनों खूब रोये..एक लड़की ने फुसफुसाकर कहा- हे मेरी मांजी..हे दगडया तन नि रु यार…म्यार भैजी थैं पता लगलू कि मी भी अयूं छऊँ त वू पोट मारी दयालु…त्वेकू हाथ जुडयांन यार..हे मेरी मांजी..मी रांड किलै ए होलू इंका दगड़.. (हे मेरी माँ ..हे दोस्त ऐसा मत रो यार..मेरे भाई को पता लगेगा कि मैं भी आ रखी हूँ तो वह मुझे जान से मार देगा, तेरे लिए हाथ जोडती हूँ, हे मेरी माँ मैं क्यूँ आई हूँ इसके साथ) उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दूसरी ने गर्म लोहे पर वार करते हुए कहा-” भैजी त्वेकू हाथ जुड्यान यनो बिघ्न नि कैर भारे..लोग क्य बोलल़ा ह्मुकू..( भाई आपके लिए हाथ जोड़े हुए हैं ऐसा प्रलाप मत कर…लोग हमें क्या कहेंगे) मुझसे पहले वो संभल गयी उसने झट से अपने आंसू पोंछे और फिर मेरी आँखों को अपने नर्म हाथों का स्पर्श देती हुई उन अश्रु बूंदों के पानी को पोंछती हुई बोली- कैसे मर्द हो..ऐसे भी भला कोई रोता है..लेकिन तुमने बहुत रुलाया हमें सची..! तुम्हारी यादों के सहारे जाने कितनी घड़ी कितने पल यूँही काटे हमने..! तुम्हे क्या मालुम पत्थर दिल इंसान जो ठहरे. उसकी आँखें हर बार तुम्हारा ही बाट जोहती नजर आती थी. जाने उन आँखों की कितनी चमक इन दो साल के इन्तजार में धुंध बनकर खो गयी. तुम्हे पता है, हम जब भी घास लेने जाते वह उस पेड़ को हमेशा अपनी दरांती से तकलीफ पहुंचाती और फिर एक चीर कपडा बाँध देती आपकी यादों को हरा करने के लिए. घन्टों यूँही उससे बातें करती..और तुम निष्ठुर इंसान एक बार तो जाने का संदेशा दिया होता. वह हवा की शांय की आवाज में भी कहती- देख तो, अरे सुन तो उनकी ही आवाज लग रही है! अभी भी उनका इस तरह गाना बंद नहीं हुआ. सुर न ताल फिर भी गाते हैं. सच्ची ..बेसुरा आदमी!
 
तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे जंगल में चारों ओर उसके गीतों के बोल ही सुनाई देते थे- वह हमेशा गाया करती थी-“परदेशियों से न अँखियाँ मिलाना, परदेशियों को है एक दिन जाना..बागों में जब जब फूल खिलेंगे! मैं उसे बहुत समझाती थी लेकिन उसने कभी मेरी एक न मानी..वह रोज कहती- नहीं वो जरुर आयेंगे ..बस एक बार ..एक बार उन्हें जी भर कर देख लूँ फिर कभी न मिलूंगी..तुम्हारे इन्तजार में जाने कितने रिश्ते उसने ठुकरा दिए कितनी तकलीफ उसे अपने घर परिवार से उठानी पड़ी. कितनी बार उसने अपनी माँ की मार खायी. तुम्हे विश्वास न हो तो उस गेंठी के पेड़ को देख आना जिस पर उसने हर रोज एक चीरा लगाया और उसी चादर का एक एक टुकड़ा बाँधा जिसे फाड़कर उसने तुम्हारे अंगूठे पर बांधा था..सच मानो तब से न किसी ने उस पेड़ से घास ही काटा न उसने किसी को घास काटने ही दिया. अब तो हर घसियारी उस पेड़ को किसी की मन्नत का माध्यम मानने लगी थी. जाने अनजाने सबके हाथ उसी ओर जुड़ जाते हैं सिर्फ मुझे पता था या फिर उसे कि यह मंदिर कौन है..लोग सोचते थे कि उसने अपने शादी की मन्नत मांगी है. तुम इतने निष्ठुर निकले कि उसका दिल तोड़ कर दिल्ली में ही सगाई कर ली!
 
ओह माँ..ये तुम क्या कह रही हो…मेरे कान क्यों नहीं फूट जाते यह सब सुनते हुए…क्या सचमुच किसी ने यह कहा कि मैंने सगाई कर ली है. हे भगवान् इतना बड़ा नाइंसाफ किसने किया मेरे साथ..!
 
जिस तरह उसकी सहेली ने एक-एक शब्द कहे थे.जिस प्रकार वह मुझसे सारी शर्महया छोड़कर गले लगी थी उससे आप भी समझ सकते हैं कि जब उसके दिल में इतना बड़ा तूफ़ान था तो उसके दिल में कैसा तूफ़ान रहा होगा.
वह आगे बोली..मैं तो काम से घर आ रखी थी कि तभी उन लड़कियों की आवाज सुनी वो तुम्हारा नाम लेकर कह रही थी कि वो भाई ही था..मैं पागलों की तरह दौड़ कर तुम्हे मिलने आई हूँ..और हाँ यह कहने भी कि अब क्या लेने आये हमारे गॉव..! क्या अभी पेट नहीं भरा था जो अब उसकी शादी में बिघ्न डालने आ गए..! जाओ उस पेड़ पर लिपटकर तुम भी जान दे दो जिस पर उसने अपनी सारी जिंदगी की हसरतें बाँधी हुई हैं..अगर मैं उसे नहीं समझाती तो वह अब भी शादी को तैयार नहीं होती..या तो हम दोनों जानते है या फिर वह ईश्वर कि यह फैसला कितनी मुश्किल से लिया गया है. लोग सोचते हैं कि उसकी मनोकामना उसी पेड़ ने पूरी की जिस पर वह दरांती से जख्म देकर घाव भरने के लिए पट्टी बांधती थी..तुम्हे पता है किसी और ने भी उस पेड़ पर ऐसा ही करना चाहा वह दीवानगी की हद तक उसे मारने दौड़ पड़ी थी और हुंकारती हुई बोली – जब तक जिन्दा हूँ तब तक कोई उसे छूना भी मत..!
 
हाँ भैजी..तब तक दूसरी लड़की बोली सिर्फ हम तीनो को ही पता है कि वह आपसे कितना प्यार करती थी..आप वास्तव में बड़े निर्दयी निकले कम से कम जाते समय एक चिट्ठी तो उसके नाम की छोड़ देते..!
 
तीसरी बोली-आपको हाथ जोड़ते हैं..उसने आपको पूजा है .इस पूजा को पूजा के फूल ही समझकर जगह देना ऐसा न हो कि उसकी शादी में कोई बिघ्न पड़े.!
 
इतनी बातें इतनी देर इसलिए होती रही कि सब लोग शादी में थे और यह गॉव का सबसे नीचे का घर..! मैं बेबसी की हंसी हँसता हुआ बोला- काश…. कि मैं दो चार महीने पहले आ जाता ..काश ..कि मैंने कोई सन्देश दिया होता..मैं भी तो हर रोज उसकी यादों के सहारे जिया हूँ..मैंने भी तो हर रात उसे पूजकर काटी है. मैंने प्यार ही नहीं किया मैंने उसे पूजा भी है उसकी एक-एक मुस्कान के लिए मैं अपनी जान तक न्यौछावर कर दूँ और तुम कह रही हो बाधा मत डालना..यह कैसे सोच लिया तुमने..?
 
कुछ देर की खामोशी के बाद मैंने झोले से कार्ड निकालकर दिखाते हुए कहा..यह हमारे लिए न्यौता आया है..मैं सिर्फ न्यौते की रस्म निभाने आया हूँ..उसका मान रखने आया हूँ..लेकिन कौन मेरा ऐसा दुश्मन निकला जिसने यह खबर दी कि मैंने दिल्ली में मंगनी कर ली है..!
 
यह जानकार उसकी सहेली सकते में आ गयी..उसके गोरे चेहरे का रंग फीका पड गया जो चन्द्रमा की रौशनी में मुझे साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था..उसे काटो तो खून नही..उसे मैंने झकझोरते हुए कहा..हे संभालो अपने को..!
 
वह बोली यह तो अनर्थ हुआ…अब मैं क्या करूँ..हे भगवान् ये क्या हुआ…चूंकि अब तक मैं संभल चुका था मैं बोला- तुम्हे कसम है जो किसी को भी यह बताया कि मैं शादी में आया हुआ हूँ..यह अब दो कुलों के मान मर्यादा का ही सवाल नहीं है बल्कि दो पट्टियों की इज्जत आबरू का सवाल है..! मुझे आज पता लगा कि वह भी मुझे पागलों की हद से ज्यादा प्यार करती है. उसे यह पता लगेगा कि मैं आया हूँ तो वह कुछ भी कर लेगी..इसलिए अगर तुम उसकी सहेलियां हो तो तुम्हे कसम हैं कि यह बात उस तक किसी भी सूरत में नहीं पहुँचने देना. अब मुझे ही देखो.परसों दिल्ली से आया और कल उससे विवाह की बात अपने घरवालों से की..मेरे घर में जब पता चला होगा कि जो हमारे बेटे को पसंद है उसकी कल शादी है तो उन पर क्या गुजरी होगी.  फिर भी मेरे पिताजी ने साहस कर मुझे शादी में शामिल होने के लिए यह कहकर भेजा कि दोनों कुलों की मान-मर्यादा कैसे निभायी जाय यह तुम पर निर्भर है. माँ ने भी यही कुछ कहा था उन्हें मुझ पर विश्वास है कि हमारा बेटा ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे किसी की मान प्रतिष्ठा को दाग लगे…!
अब बारी उस लड़की की थी जिसने पहले कहा था कि मेरा भाई देखेगा तो जान से मार देगा..वह गौरान्वित होती हुई बोली- मैं तो सोचती थी कि उसने कितने तुच्छ और घटिया इंसान को पसंद किया. जिसके पीछे वह जान देने को आतुर है..लेकिन भाई जी आज मुझे उन बहनों पर गर्व है जिनके तुम भाई हो..सच कहूँ तो ऐसे भाई बहुत ताप करने के बाद मिलते हैं.
 
मेरी आँखें छलछल़ा गयी उन्हें क्या पता कि मेरी किसी भी बहन को मेरे प्रेम-प्रसंग की अभी तक भनक भी नहीं है.. बहनों की याद क्या आई कि आँखे फिर भर आई..मैंने कहा – पागल है तू, ..! प्यार का मतलब सिर्फ एक दूसरे के प्रति समर्पण ही नहीं होता.. प्यार का मतलब तपस्या भी है.मैंने उसकी पूजा की है. जिसकी आँखों में मैं एक आंसू बर्दास्त नहीं कर सकता क्या उसके बारे में कुछ बुरा सोच सकता हूँ. अभी इसी को देखो यह तो उसकी जिगरी सहेली है. यह कभी मेरे इतने करीब नहीं आई आज उसने मुझे गले से लगकर रुला भी दिया..इसे कहते हैं प्यार..!
 
अब दूर पटाकों के फूटने की आवाज और बैंड मसकबीन व ढोल बजने के सुर गूंजने लगे थे…एक बोली- हे चल यार ..वह परेशान हो रही होगी..तेरे बिना तो वह एक पल भी नहीं रह सकती…! उसकी आँखों में भी लाचारी थी मैंने हाथ बढ़ाया और उनसे सौगंध ली कि वह मेरे आने की खबर किसी को न दें. मैं यहीं भाई जी के घर में हूँ.खाना खा लिया है..यहीं सोऊंगा भी..सुबह कन्यादान में जरुर शामिल होने आऊंगा.
वह बोली – आप सही कह रहे हैं. क्या कन्यादान में शामिल होना जरुरी है..लाओ मेरे पास दे दो. मैं आपकी ओर से न्यौता भी लिखवा दूंगी. वैसे भी गॉव में किसी को भी पता नहीं है कि आप दोनों एक दूसरे को प्यार करते हैं. तुम्हे क्या पता जब वह कहीं भी शादी करने को तैयार नहीं हो रही थी तो उसकी माँ ने एक दिन उसे इतना मारा और बार-बार यही पूछा कि बता तो सही कौन है वह जिसके लिए तूने इतने घरों. के रिश्ते ठुकरा दिए., लेकिन वह हर मार पर सिर्फ हंसती रही आंसू झरते रहे लेकिन उसने कभी तुम्हारा नाम जुबां पर आने नहीं दिया. हलकी बारिश की बूंदों ने जैसे अचानक यह आभास करा दिया हो कि वह भी इस महफ़िल में शामिल हो गयी है. मैंने कहा अब तुम जाओ और उसका ख्याल रखना..इस बार तीसरी लड़की रो पड़ी वह मेरे पैंरों में झुकी और रुंधे गले से बोली- भैजी जिंदगी जितनी भी रहेगी..तू कभी भुलाए नहीं भूलेगा. ऐसा इंसान होता है या भगवान् मैं नहीं जानती..!
सब वहां से चल दिए..मैं गाजे-बाजों के पास आते स्वरों से आनंदित था.जाने क्यों यह पता नहीं..अब मन यह था कि उसकी शादी अच्छी से निभ जाए बस और क्या चाहिए..उसको मेरे बदले की खुशियाँ भी मिले .
मुश्किल से 15 मिनट बाद उसकी सहेली एक और लड़की को लेकर खाना देने आई. उसके चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि वह खाना लाने के बहाने कुछ और भी कहने को आई हुई है. उसने बहाने से दूसरी लड़की को बोला जा जरा जब तक बारात आती है भाई जी व दादाजी के लिए चाय बना दे. मैं भी आती हूँ…मैंने कहा चलो मैं भी किचन में आता हूँ..
वह आगे जाकर आग सुलगाने लगी, उसकी सहेली बोली- भाईजी उसका दिल घबरा रहा है उसे जाने क्यूँ ऐसा आभास हो रहा है कि आप आये हुए हो. उसने मुझसे कहा है कि जाओ मेहमानों में ढूंढो..कहीं न कहीं तुम जरुर हो. बड़ी मुश्किल से समझा बुझाकर आई हूँ. उसे मुझ पर भी विश्वास नहीं है.मैंने उसे सांत्वना देने हुए कहा कि तुम निश्चिन्त होकर उससे यह कहना कि मैं नहीं आया हूँ, वरना बात बिगड़ सकती है. चाय पानी बना..मैंने चाय तो पी लेकिन खाना भला गले से कैसे उतरता. रात भर की धुमाचौकड़ी अपने कानो से सुनता रहा ..क्योंकि नींद आये यह कैसे संभव था.
 
अगले दिन सुबह उठकर मैं बाहर गया उस गॉव के कई लोग मेहमानों में भी एक आध पहचान वाले चेहरे थे..सबने आश्चर्य जताते हुए कहा कि रात दिखे नहीं कहाँ थे. हर एक से यही कहता रहा वहीँ तो था. सारा दिन अंदर ही अंदर काटा. वह भाई बोले- भुला शायद  तबियत खराब है..जब से आया न तूने खाना खाया न ही बाहर गया..जबकि कई बार बहु भी पूछ रही थी नाती पोते सब पूछ रहे थे..कोई अलग बात है तो बता..!
 
मैं बोला नहीं भाईजी ऐसा कुछ नहीं है बस हल्का सर दर्द चल रहा है शायद यही कारण हो सकता है..मुझे भी लगा कि उन्हें मेरे इस तर्क पर जरुर संदेह है..मैंने झोला उठाया और थके क़दमों से अपने घर की ओर चल दिया..बारात की वापसी की तैयारी में देरी थी. आज मौसम थोडा खुशगवार जरुर था लेकिन ग़मगीन वैसा ही था. मैंने घंटो फिर वहीँ बैठकर समय काटा जहाँ मैंने अंतिम विदाई ली थी. अचानक जाने क्या ख़याल आया मुझे लगा यूँ कायरों की तरह मुंह छुपाकर भागना ठीक नहीं है. मैंने ठान लिया कि अब उनके घर मैं सबसे मिलकर आऊंगा ताकि कल यह बात सामने न आये कि कोई निमत्रण का मान रखने नहीं आया..मैंने तेज कदम बढाए और गॉव की ओर लपक पड़ा. यह क्या… डोली आँगन से उठ चुकी थी क्योंकि दुल्हन के साथ सहेलियों गॉव की महिलाओं और उसकी माँ का प्रलाप साफ़ सुनाई दे रहा था. बारात विदा हो रही थी तो मैं भी रास्ते में रुक गया. यह भूल गया कि मैं ऐन उसी राह में खड़ा हूँ जहाँ से पालकी गुजारनी थी..जो अनर्थ होना था हो ही गया ..उसकी निगाह मुझ पर पड चुकी थी..उसने पालकी से मुंह निकाल़ा और इतनी जोर का प्रलाप करना शुरू कर दिया मानो अपने एक एक पल का हिसाब पूछने को आतुर हो. उसके हाथ पालकी से बाहर थे..नाथ और मंगलसूत्र चेहरे सहित बाहर को निकल रहे थे..वह पालकी से जोर-जोर से चिल्ला रही थी -हे रोको..अरे रोको जरा रोको तो..मुझे मिलने तो दो..वह एकटक मुझे ही घूरे जा रही थी और मैं भी जड़वत उसे ही घूर रहा था लेकिन पालकी वाले भला कहाँ उस पीड को समझ पाते वे तो यही सोच रहे थे कि अपनों से विदा होते समय हर दुल्हन का यही हाल होता है. अब पालकी मेरे करीब थी..मेरा जरा ध्यान बंटा कि उसका लरजता हाथ जिसमें कंगन बंधा होता है मेरे चेहरे को स्पर्श करता मुझे लगा जाने क्या है..मैंने झट से वह हाथ पकड़ा जिसमें सुहाग की चूड़ियाँ खनकती हुई मेरे हाथ का स्पर्श पाकर एक आध टूट भी गयी..मेरे गाल छूते वह हाथ मेरी कमीज तक पहुंचे. जो गले के पास से मुझे घसीटते पालकी के साथ आगे बढ़े..मेरी कमीज के बटन टूटते उसके साथ आगे बढ़ गए..वह पालकी से और बाहर निकलकर मुझे बान्हे फैलाए ऐसे बुला रही थी जैसे मैं न जाऊं तो उसकी जान निकल जायेगी..मुझे जोर का धक्का लगा और मैं दीवार के पत्थरों से टकराते-टकराते बचा. तब तक पालकी ओझल हो गयी..उस समय भल़ा यह किसका ध्यान जाता कि कौन गिरा और कौन संभाला..मैंने ऐसा प्रलाप ऐसी बेबसी ऐसा विद्रोह ऐसा बिछोह..जिंदगी में आज तक नहीं देखा था..आज भी जब इस बिछोह को याद करता हूँ तो रूह कांप जाती है. वह आज कहाँ किस हाल में है यह मैं नहीं जानता और न ही तब से कभी जानने की ही कोशिश की. मैं नहीं चाहता था या हूँ कि उसकी सुखद जिंदगी में एक लम्हा भी ऐसा आये कि वह मुझे याद करे. हाँ मैं जाते वक्त घर उसी रास्ते जरुर लौटा जिस रास्ते हम बकरियां चुगाने जाया करते थे..उस पेड़ के पास गया जहाँ मेरी प्रेमिका ने मेरी याद में एक पेड़ के सीने में असंख्य घाव किये हुए थे..मैं उसे पेड़ से लिपटकर जी भर रोया..उसकी हर टहनी से बंधे उस चदरी एक एक बंधन को अपने हाथों से मुक्त किया और एक बाप का अच्छा बेटा बन गर्व के साथ सिर ऊँचा कर घर लौटा. घर लौटते ही पिताजी ने पहली बार मुझे ऐसे सीने से लगाया जैसे वह बचपन में लगाया करते थे. मैंने उनकी कन्धों पर लदकर जैसे बचपन में सारा गाँव घूमा था.
मैंने अपनी आँखों के बबंडर को जैसे तैसे थामा और बिन कुछ बोले ही सब कुछ बोल दिया. कुछ महीनो बाद बोले ऐसी बरसात आई कि बरसों का जमा वह पेड़ जड़ सहित उखड कर जाने कहाँ गंगा शरण हुआ पता न चला..बाद में पता लगा कि वही पेड़ मेरे ताऊजी ने खरगड नदी से बाहर निकालकर त्रिवेणी (जहाँ मरुगाड, खरगड और दुग्धगाड) संगम में इसलिए रख दिया था कि चाहे पिताजी की पहले मृत्यु हो या उनकी वह लकड़ी उन्हें जलाने के काम आये. विधि का विधान देखिये न पिताजी को ही यह पता था कि यह पेड़ वह है न ताऊजी या किसी अन्य को..!
 
मेरा दुर्भाग्य यह कि उसी पेड़ के तने से पिताजी की चिता जली और ठीक एक साल बाद ताऊजी की चिता में भी उसी पेड़  कुछ लकड़ी शामिल हुई..! .मैं दोनों के अंतिम संस्कार पर भी शामिल न था..वो तो एक दिन जब वहां मछली पकड़ने गए गॉव के मित्रों के साथ अधजले लकड़ी के ताने को देखा और उसकी खरोंचों घावों को पहचाना!  और पहचाना व उस पर प्यार उमड़ा तो गॉव के प्रधान (तत्कालीन) कल्पानंद ने चुहल करते हुए कहा कि क्या देख रहा है..ये वही लकडियाँ हैं जिनमें तेरे पिताजी और ताउजी को जलाया गया था..मैं आवाक निशब्द क्या कहता…! उस पेड़ ने मेरी तीन बहुत प्यारी चीजों के संजोग को निभाया..लेकिन मुझे उसकी पीर तीनो बार तब पता लगी जब सब कुछ निबट चुका था..मेरा पहला प्यार..मेरे पिता मेरे ताऊ सब कुछ……! (समाप्त)
(आभारी हूँ न्यू जर्सी, यूस्टन, शिकागो (अमेरिका), स्वीडन और ब्राजील, दुबई में रह रहे अपने उन मित्रों और प्रकाशकों  का..! जिनका कहना है कि “फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ” को आप उपन्यास का रूप दें जिसका अंग्रेजी/अरबी वर्जन वे छापेंगे और आभार हिमांशु अग्रवाल जी  का जिन्होंने इसके हिंदी वर्जन पर अपनी अदद राय दी.. दिल्ली प्रवास के कई अन्य मित्र भी इसको वृहद रूप देने के लिए कह रहे हैं…. …!
उन मित्रों का ऋणी भी हूँ कि जो मुझे रोज अगले एपिसोड के लिए कुरेदते रहे. आज इसे संक्षिप्त रूप देकर आखिरी अध्याय लिखने की कोशिश कर रहा हूँ..कल एक मित्राणि ने बोला कि प्यार इतना अनमोल होता है कि न उसका आदि न ही अंत…! यह जब तक जिंदगी है मीठा जख्म बन आपको मीठी सी आपकी भूलों की याद दिलाती रहती है. सच में ऐसा ही मुझे भी लगता है कि यह कभी समाप्त नहीं होने वाला प्रेम ग्रन्थ है..! फिर भी अपने को इसी अध्याय में समेटकर इसके सुनहरे पन्ने बंद करने जा रहा हूँ…आपका मार्गदर्शन और प्रशंसा मेरे लिए मेरे जीवन की अकूत पूँजी है मैं आपका ऋणी हूँ.)

6 thoughts on “मेरा पहला प्यार…(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) ग्यारहवां एपिसोड..!

  • June 24, 2017 at 2:06 am
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    दीदा कहानी का दुखद अंत….इस कहानी के आखिरी ऐपीसोड ने आँखों में सावन-भादों ला दिये वाकई पहले प्यार को भूलाना आसान नहीं है….

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    • June 24, 2017 at 5:54 am
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      सत्य कहा ..प्यार सिर्फ प्यार होता है. फिल्म की तैयारी पर हूँ इस पर ! बिना मारधाड़ की फिल्म!

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  • June 24, 2017 at 6:58 pm
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    Really appreciate your truth love
    I never read a long articles
    But you wrote a passionate love story
    and obliged me reading a complete story
    Thanks

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  • June 28, 2017 at 3:38 pm
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    सभी रसों से भरपूर आपकी पहली प्रेम कथा।
    प्रेम शब्द को परिभाषित करती ये कथा।

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