मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफैयर ऑफ़ माय लाइफ)….! (सेकंड एपिसोड)

मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफैयर ऑफ़ माय लाइफ)….!
(सेकंड एपिसोड)

इस नए जहर(प्यार) ने मुझसे मेरा वह हँसता खेलता फुर्तीला सा बचपन एकाएक छीन सा लिया. मैं अचानक गंभीर अपने आप मैं खोया . अपनी ही दुनिया में मगन रहने लगा. मैं भीड़ से उकताने लगा और खामोशियों उदासियों में जिंदगी का अलग सा मजा लेने लगा.घर में माँ जरुर कई बार पूछ लेती थी कि तू कुछ दिनों से सुस्त सा लग रहा है. क्या बात है? मैं माँ को डपट देता कि तेरा तो दिमाग खराब हो रखा है भला मुझे क्या हुआ. माँ चुप हो जाती..!
मेरा सांवला (चलो काला समझ लो) चेहरा इसी कुंद में नीला पड़ने लगा था ग़मों के सायों में अचानक पड़ा यह पाला किसी धूप के खिलने का इन्तजार करने लगा. जाने क्यूँ मुझे इस बात पर आज भी ताजुब होता है कि ऐसी क्या मोहिनी थी मुझमें कि मेरे कालेज की हर लड़की मुझसे किसी न किसी बहाने बात करने को तैयार रहती थी. जबकि मेरे दोस्त एक से एक खूबसूरत हुआ करते थे.  हो सकता है मैं स्कूल का जनरल मानिटर था इस कारण भी लडकियां मुझसे बातें करती रही हों. शायद इस लिए भी कि अगर किसी भी लड़के ने स्कूल में किसी लड़की को कोई कमेन्ट पास कर दिया और बात मुझ तक पहुँच गयी तो समझो उसकी खैर नहीं. आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन यह सच है . इंटरवल में कोई भी लड़का अगर बीडी पीते हुए मिल गया तो उसका सुतान शुरू हो जाता था. इससे मेरे क्लासमेट भी परेशान थे लेकिन क्या करें प्रिंसिपल के पास शिकायत पहुँचने पर उन्हें भी पता था कि हमारा क्या हाल होगा. हमारे प्रधानाचार्य इतने अनुशासन प्रिय थे कि जब वे किसी कक्षा में घुस जाते थे तो वहां ऐसा सन्नाटा पसर जाता था कि अगर मच्चर भी पास से गुजरे तो उसकी आवाज भँवरे के गुंजन से भी तेज सुनाई पड़ती थी.  इस तानाशाही से कई लड़के मुझसे खार खाए हुए भी रहते थे . मैं दुबला पतला जरुर था लेकिन परवाह कुछ नहीं करता था. इसलिए लड़के इंटरवल में दूर गदेरे की तरफ बीडी सिगरेट फूंकने जाते थे.  मैंने जखेटी बाजार में इंटरवल में ताश खेलने वालों को भी चेतावनी दे डाली जो लोकल बदमाश किस्म के लोग हुआ करते थे. जब नहीं माने तो एकदिन गुरुजनों की शह पर एनसीसी के लट्ठ लेकर वहां से खड़ेडे तब से जुआ  बंद हो गया था. शायद ऐसे कतिपय कारण और भी हो सकते थे जिससे लडकियां मुझसे प्रभावित रहती रही होंगी. लेकिन यह ध्यान मुझे तब आने लगा जब मुझे प्यार हुआ. इस से पहले ऐसी फीलिंग कभी नहीं आई कि मुझसे हर लड़की बात क्यूँ करना चाहती है. मैंने रेडियो पर गमगीन गाने सुन-सुनकर अपनी एकाकी का बोझ हल्का करने लगा लेकिन अभी तो सिर्फ उसे एक बार ही देखा था फिर ये सब क्या हुआ, कैसे हुआ समझ नहीं पाया! बात तो रही दूर जी भरकर देख लूँ यही बड़ी बात थी!
अब अगर मुझसे कोई भी लड़की बात करती तो उसकी आँखों में मुझे प्यार के समंदर में तैरते डोरों के वे रेशे दिखाई देते थे जिनमें प्यार ही प्यार उमड़ा नजर आता था. मुझे नफरत भी होती कि अचानक मैं हर किसी में उसी का अक्स कैसे देखने लगा हूँ. खैर मेरी दिनचर्या में आये इस विकार को लड़के तो नहीं समझ पाए लेकिन ग्रुप की लडकियां शायद इस बात को भले से सूंघने लगी थी. अब उनकी तरफ से कमेन्ट भी पास होने शुरू हो गए थे. मजबूरी भी थी इस कान से सुनता उससे उड़ा देता, क्योंकि औरों को डांटना सरल होता है जब अपने पर बात आती है तो जी का जंजाल बन कर रह जाती है. हाँ… यह बात भी स्पष्ट कर दूँ मुझे अभी तक यह पता नहीं था कि क्या यह आग दोनों तरफ लगी थी! लड़की से बस एक और मुलाकात पनघट पर हुई थी. आँखों आँखों में बात! मुझे उन आँखों  में अपने लिए बेपनाह प्यार दिखाई दिया. एक भोला भाला इंसान लुट गया था उन झील सी आँखों पर..!
अब मैं खेत में स्टम्प गाढ़ने की जगह प्रकाश को लेकर कुलड़ीधार/घाट उड़ियार (जंगल की सरहद) की तरफ पढाई करने के बहाने ले जाता था. उसे इसलिए अच्छा लगता था कि वहां से खरगड नदी पार वह पना गॉव खेत खलियान, खेतों में चल रहा हल.और लोगों को पहचानकर अपनी खुद (याद) मिटाया करता था और मैं अपनी पुरानी कापियां लेकर उस गॉव को निहारता था जो हमारी सरहद के पार खरगड नदी के दूसरे छोर पर कोसों दूर था. जहाँ गॉव तो पूरा दीखता था लेकिन घर में कौन-कौन हैं यह कहना असमभव था. प्यार का पागलपन इतना कि उसके घर को मैंने कोड वर्ड के रूप में स्कूल का नाम दे रखा था. आखिर था भी स्कूल जैसा ही. जैसे प्राइमरी विद्यालय हो. एकटक उसे ही निहारा करता था.मकान की छत पर पड़ी चादर या पहाड़ी पत्थर की स्लेट अगर चमक गयी तो मेरा ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था. मैं लज्जू (प्रकाश) से कहता था देख वह शीशा चमका रही है. वह हंसकर कहता था –तेरु कपाळ ऊ कुड़ी का फटाळ छन चमकणी.(तेरा सिर वो मकान की स्लेट चमक रही हैं) लेकिन मैं उसे इसी गफलत में रखकर खुश था. मैं मन ही मन यही सोचता था कि अच्छा हुआ जो इसे ऐसा लगता है . अगर सच में किसी दिन इसके मन में ईर्ष्या पैदा हुई तो मेरी पोल खोल देगा. अब जबकि इतने साल बाद कभी उस मकान को देखता हूँ. तो होंठो पर मुस्कान रेंगे जाती है..सोचता हूँ कितना पागल आशिक दीवाना था मैं..!
खैर फिर जैसे ही उस गॉव की लडकियों का झुण्ड घास लेने या लकड़ी लेने अपनी सरहदों खेतो में निकलता था तो मैं जोर से सीटी बजाकर हाथ हिलाकर यह जताता था कि ये देखो मैं यहाँ उपस्थित हूँ, लेकिन मुझे क्या पता था कि मेरी सीटी इन ढलानों को चीरती हुई सिर्फ हवा की तरंगों में ही खरगड नदी के बहते जल की सांय-सांय में बिलुप्त हो जाती हैं.फिर भी प्यार का पागलपन देखिये, वहां नदी के कोसों दूर किसी भी लड़की का दुपट्टा भागते हुए हिल गया या आपसी मजाक में वे एक दूसरे को हाथ उठाकर मारने दौड़ती.या फिर गाय, बैल इत्यादि को रास्ता बनाने के लिए लाठी से हांकती तो मुझे लगता वह मुझे बड़े स्टाइल से हाथ हिला रही है. मुझे छुपकर चुन्नी हिलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. मैं ख़ुशी से नाच उठता और अपनी पुरानी कापियों के पन्ने फाड़-फाडकर हवा में उड़ाता कि उन्हें उड़ते देख उसे लगेगा कि मेरा ये सन्देश है या इशारा. फिर गाना गाता…”लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हजारों रंग के नज़ारे बन गए..सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए……!” सच में जाने कितने कागज़ रोज लिखता और फाड़ देता…फिर जलाता कि कहीं किसी ने देख लिया या फाड़े हुए पन्नों को जोड़ लिया तो मेरी शामत आ जायेगी. बस यह सब दिनचर्या में सुमार हो गया था. यहाँ लज्जू के साथ गोकुल  भी पढने मेरे ही घर आया करता था. सब साथ के थे लेकिन ये दोनों मुझे बड़े होने के आधार पर इज्जत भी खूब देते थे. गोकुल और लज्जू दोनों ही नटखट थे.लज्जू हर सन्डे को अपने गॉव जाता मैं इसी उम्मीद पर उसका आँखे बिछाए इन्तजार करता कि उसने उसे जरुर देखा होगा. वह कैसी लग रही थी रास्ते में मिली या नहीं. उसने कुछ पूछा तो नहीं. कहीं दिखी कि नहीं ! अब मामला एक ही सरहद का जो हुआ. ये दोनों इतने चतुर थे कि क्या कहूँ. लज्जु को सारे गॉव के लोग पसंद करते थे. वह मजाकिया भी था और प्यारा भी. अब भले ही गृहस्थी के बाद सभी का स्वभाव बदल जाता है लेकिन वह एक दिन नहीं दिखा तो गॉव भर की भाबियाँ ये जरुर पूछती थी कि आज उसकी मुखडी (मुंह) नहीं दिखाई दे रही है. ये दोनों मुझसे छुपकर खैनी खाया करते थे और बीडी के रास्ते में पड़े टुडे उठाकर धुंवा उड़ाया करते थे. हद तो तब होती थी यार कि ये रजाई के अंदर ही माचिस जलाकर बारी-बारी से अंदर मुंह डालकर सुटा मारते थे और मुझे खबर तक नहीं होती. मैं बोलता भी था  कहीं बीडी की बदबू आ रही है.तो दोनों हंसकर कहते थे कि तुझे बहम है.या फिर कहते थे कि 12 बजे का समय होने वाला है इस समय सैद (आत्माएं) अपने घोड़ों में सवार होकर निकलती हैं! वे बीडी या सिगरेट सुलगाकर जा रहे होंगे या फिर उनकी बदबू आ रही है.कितना साधारण था वह वक्त.और कितना एक दूसरे पर यकीन भी… क्योंकि वे  कहते थे और मैं मान भी जाता था.
खैर मुख्य बात से भटक गया था अब उस सपने पर आता हूँ जिसने मेरी पहली मुलाक़ात कराई. शनिवार का दिन था .जखेटी स्कूल से मेरे गॉव का पैदल रास्ता लगभग 3 किलोमीटर का हुआ . आज लज्जू को अपने गॉव जाना होता था. इसलिए हम मुश्किल से पौन घंटे में गॉव पहुंचे और खाना खाकर लज्जू ने मुट्ठी पर थूक लगाया क्योंकि सर्दियों का समय था और समय भी 4:30 बजे शांय हो गया था…ये दौड़ा वो दौड़ा..!
मैंने उससे इस बार गुजारिश कर रखी थी कि यार तुझे कहीं भी दिखे तो उससे ये जरुर कहना कि वो याद कर रहा था. लेकिन जाते जाते मैंने यह कहकर उसे बोलने को मना कर दिया कि कहीं उसे यह बात बुरी लगी तो..? शनिवार रात उसी का सपना आया सपने में वह खरगड नदी पार आई हुई मुझे ही ढूंढ रही है…! वह इधर उधर भाग रही है लेकिन मैं उसे दिखाई नहीं दे रहा.रात नींद खुली मैने पानी पिया..फिर सो न सका. बस भोर का तारा देखने को बार बार अपने दो मंजिले से रजाई के बाहर सिर निकालकर दूर आसमान में फैले असंख्य तारों को निहारने लगता. अब तक तारे छुप गए थे और आसमान में सप्तऋषि मंडप के सात तारे दिख गए थे. मुझे अहसास हो गया था कि अब रात खुलने ही वाली है. मैंने आँखें बंद की और उसी के ख़्वाबों में खो गया.जाने माँ चाय बनाकर कब से आवाज लगा रही थी..आखिर उसने दरवाजा पीटा और जोर से चिल्लाई- बडू पढ्वाक समझदी अफु थैं..हे ब्वे इख द्याख्दी 4 बजण वाळी छन ..अर फसरफट कैकी सेयुं छ..नि होंदी बुबा तेरी मौ…मेरु हाथ थकी ग्ये उतनी दां भटिकी ..(बड़ा पढ़ाकू समझता है अपने को…हे मेरी माँ प्रातकाल की चार बजने वाली हैं और अभी भी पसरकर सोया हुआ है…नहीं होती बेटे तेरी जिंदगी का भला…मेरा हाथ थक गया उतनी देर से.) मैं बिलबिलाकर उठा और उठते ही राशन पानी लेकर माँ को गुस्से में बोला- तेरा दिमाग खराब है मैं कब से उठकर पढ़ रहा हूँ, फ़ालतू में डिस्टर्ब कर देती है.पढने भी नहीं देती, मैंने लैंप हल्का कर रखा था..अब में तेरी आवाज सुनकर डर गया और लैंप बुझ गया.यह बडबडाता सा में तेजी से दरवाजे पर लपका. उसे खोलते ही गॉव की कई बहुए उठ जाती थी…क्यूंकि वह जोरदार चीएँ की आवाज में चिंघाड़ता था ..इसे नयी नवेली बहुए अपना उठने का अलार्म समझती थी. खैर माँ ने चाय परोसी और चल दी..उस कडकडाती ठण्ड में एक माँ में ही तो इतनी हिम्मत थी जो मेरे लिए इसलिए सुबह चाय बनाकर दे जाती थी कि मैं सुबह की ताजगी में पढ़े आखरों को कंठस्थ कर सकूँ..तभी तो माँ के जब भी यह त्याग याद आते हैं ..आँखों की पोर भीगने लगती है..उस माँ के लिए आज भी मैं कुछ नहीं कर पाया हूँ..यह मलाल रहता है. माँ किसने बनाई होगी यार …यही सोच सोच कर हैरान हूँ. कुदरत का यह नायाब तोहफ़ा सचमुच कितना अनमोल होता है!
सपने को कैसे साकार करूँ..बस दिमाग में आईडिया आ गया ! मैंने प्लान किया कि आज ताउजी की बकरियां चुगाने मैं ही जाऊँगा. चाहे कुछ हो जाए. दो घंटे किताब के पन्ने पलटे तब तक भोर हो गयी थी. किस्मत देखिये आज ताऊजी की तबियत भी थोडा बहुत नासाज थी..मैं बोला आज आप रेस्ट करो..मैं बकरियां चुगाने जाता हूँ..ताउजी के साथ ताईजी और घर के सभी सदस्य खिलखिलाकर हँसे – बोले आज तक तूने गाय तो ढंग से चुगाई नहीं बकरियां चुगायेगा..!
ताउजी मुझे गुस्सा हो या प्यार धर्मा जोगी कहा करते थे- बोले.बड़ी मुश्किल से बकरियां बढ़ी है..तू क्या चाहता है कि चार-पांच बकरियां आज बाघ का निवाला बन जाएँ. मैंने अनमने भाव से बोला – मैं अकेला कहाँ जा रहा हूँ..उमेद सिंह चाचा जी कि बेटी दिक्का दीदी और जत्रु ब्वाड़ा भी तो हैं..! फिर कहते हैं कामचोर हूँ. जब काम करने ही नहीं दोगे तो सीखूंगा कहाँ से. वैसे भी आपको पेचिस लगे हैं. बड़ी खुशामद के बाद  उन्होंने हामी भरी और बकरियां किस तरह चुगाई जाती हैं उसकी बिशेष हिदायतें भी दी. उन्होंने बहुत गंभीरता से समझाया कि पहाड़ी ढालों के पठारों पर जब बकरियां चुग रही हो तो उनके नीचे कभी मत जाना वहां से पत्थर गिरने का खतरा बना रहता है.

मुझे तो मन पंख लग गए हों..मैंने बकरियों का दैय  खोला और ये चला वो चला…तब कहाँ फुर्सत थी कि दिक्का दीदी की बकरियां किधर चुगने गयी और जत्रु ब्वाड़ा की किधर..!.बस ढलान पर उतरती बकरियों के साथ मेरी ले ले या या की आवाज और जोरदार हकरोळ (जैसे चौकीदार जागते रहो चिल्लाता है वैसे ही बकरियों के साथ भी ऐसे ही जोर से चिल्लाना पड़ता है ताकि झाड़ियों में छुपे बाघ या तेंदुवे को घात लगाकर हमला करने में दिक्कत हो और उसे ये डर हो कि चुगाने वाला सावधान है) लगाता मैं बकरियां खरगड तट पर ले गया. ऊपर से गाय बच्छियां चुगाने वाले गॉव के लोग बोलते ही रह गए कि इधर छोड़ उधर छोड़..बकरियां शाम के समय नीचे उतरती हैं..लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था…मैंने सरहद के उस पार हर ओर नजर दौडानी शुरू कर दी . और साथ ही गाना भी जोर जोर से गा रहा था- पर्वतों से आज मैं टकरा गया तुमने दी आवाज लो मैं आ गया..” पता नहीं कितने घंटे यूँही नजरें नदी पार ढूंढती रही कि अभी उधर से वह आएगी..
आखिर निराश मन मैं वापसी के लिए बकरियों को मोड़ता हुआ  बेताब फिल्म का यह गाना गाता हुआ लौटने लगा-“अपने दिल से बड़ी दुश्मनी की किसलिए मैंने तुमसे दोस्ती कि…तुमने अच्छा किया सहारा दिया..बेसहारा मुझे कर दिया…हर घडी से????????” इतना ही गा पाया था कि बकरियों के पैर से चट्टान से गिर रहे एक पत्थर पर नजर जा टिकी और डिसबैलेंस होकर गिर पड़ा. लेकिन गीत के बोल हाय ठुकरा दिया बेवफा भी उसी स्टाइल में पूरे हुए..हाथ झाड़कर उठा तो खिल्खिल्लाते सामूहिक स्वरों की हंसी को अपने एकदम पास से पाकर डर गया मेरे चेहरे का रंग उड़ गया .लगा कि दोपहर के समय कहीं आछरी, परियां तो नहीं  आ गई..लेकिन एक पूरे ग्रुप की लड़कियों को घास के ढेरों के साथ बैठे देख फिर शर्मा गया..अपनी शर्म छुपाने का बहाना भी ढूंढना ही था. आफ्टर आल लड़का था यार…
मैं बोला- तो ये बात है हमारी सरहद की चोरी का घास ले जा रहे हो..चलो अपनी अपनी धरान्तियाँ इधर दो. एक लड़की तपाक से बोली- ऐसा कर भैजी कि तू अपना घास ही लेजा..हमें नहीं चाहिए..उसकी यह बात सुनकर सब हंस पढ़ी..लेकिन मेरी नजर तो सिर्फ वही चेहरा ढूंढ रही थी. एक ने ब्यंग्य बाण चलाते हुए कहा-“क्य छई इल्दु-बिल्दु (इधर उधर) ढूँढनी.(क्या देख रहा है या ढूंढ रहा है इधर उधर..?
मुझे लगा मेरी चोरी पकड़ी गयी लेकिन जब उसे नहीं पाया तो निराश मन से बोला..चलो यार जाओ तुम्हारे साथ कौन लगे..काम-धाम कुछ है नहीं…यह सुनकर सब खिलखिलाकर हंसने लगी. उनकी हंसी मुझे काटने दौड़ रही थी ..क्यूंकि अपने सपने पर मुझे पश्चाताप हो रहा था. तब तक एक लड़की बोली-हे भाई जी ..जरा एक कष्ट कर ही दो. जब तुझे पता चल ही गया है कि हमने तेरे सरहद का घास काटा तो ये गेंठी के हरे हरे पात काट दे.मैंने गुस्से से कहा कि यही काम रह गया अब मेरा…!
वह भी उसी सुर में बोली-क्य छई तडयो दिखाणी नि कटदी ता..! कौन से मी अफु खुणी कटाणु छायो..ऊ त ..?(क्यों तड़ी झाड रहा है ..कौन से मैं अपने लिए कटवा रही थी वो तो…) उसके यह शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि वह जोर से चिल्लाई_ उई माँ…हे रांडे छोरी कन मरी तेरो..?
स्वाभाविक था मैंने भी पलटकर देखना ही था कि अचानक यह क्या हुआ..और सच पूछो तो पैरों के नीचे जमीन भी थी कि नहीं ..मुझे नहीं पता..! वह शर्म से सुर्ख चेहरा..उठकर झुकी नजरें..जो थोड़ी सी मिली थी और शर्मा कर जमीन पर गढ गयी..जब देखा तो न पूछो दिल का हाल…!
तब पता चला कि उसी ने उसको तेजी से चूटी काटकर यह कहने से मना करना चाहा था कि ये मत बोल कि यह पहाड़ी ढलानों में नहीं चढ़ सकती..इसके पास घास कम है और अगर उसकी माँ उसका घास कम देखेगी तो जाने क्या क्या सुनाएगी..मैंने बोला दरांती दो ..मैं काट देता हूँ..अब जाने कितनी हंसी एक साथ छूटी लेकिन मुझे परवाह नहीं थी. उसने कम्पकम्पाते हाथ से दरांती मेरी ओर बढायी..वह छुणकयाली दरांती थी !.हल्का सा हाथ स्पर्श हुआ तो लगा मानो 440 बोल्ट का करंट शरीर में दौड़ गया हो…मैंने पेड़ में चढकर गेंठी की टहनियां काटनी शुरू कर दी..अचानक जाने क्या हुआ कि दरांती हाथ से छिटक गयी वह नीचे गिरने ही वाली थी कि मैंने हवा में ही लपक ली..उसकी धार इतनी तेज थी कि उसने मेरे बांये हाथ के अंगूठे को छिल दिया. पेड़ से टप-टप खून नीचे गिरने लगा.चीख मेरे मुंह से नहीं बल्कि उसके मुंह से निकली .जबकि मैं पेड़ से ही बोला क्या हुआ..सच कहूँ तो मुझे यह ध्यान नहीं आया था कि मेरा हाथ कट गया. जब लड़कियों ने ध्यान दिलाया तो मैं मुस्कराकर शेर बनता हुआ बोला – अरे ये तो कटता ही रहता है..नीचे उतरते ही उसने अपनी चदरी का किनारा फाड़कर हाथ पर लपेट दिया! उसकी आँखों से टपटपकते गर्म आंसू मुझे और पीड़ा देने लगे.लेकिन जुबाँ से शब्द नहीं फूटे..आखिर इतना निकट जो पाया था उसे..बस यह मुलाक़ात थी मैं नदी के इस छोर से उन्हें रास्ते भर दूसरे छोर से घर की ओर बढ़ते हुए जी भरकर हाथ हिलाते रहे जब तक ओझल न हो गए..घर में हाथ कैसा कटा कई बहाने थे…डांट खूब खायी लेकिन घाव भरने के बाद भी कई महीनो तक खून से सना वह मैली सी चादर  का टुकडा मेरी जेब में ही रहा…(cont..3)

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