मुम्बई में कई पीढ़ियों के दर्द की अभिव्यक्ति है #कौथिग।
मुम्बई में कई पीढ़ियों के दर्द की अभिव्यक्ति है #कौथिग।
(वरिष्ठ पत्रकार केशर सिंह बिष्ट की कलम से)
#बेहद ख़ुशी हुयी कि एक सोच, एक विचार के 11 वर्ष पूरे हुए.
#मैं और रात-दिन मेहनत करने वाले मेरे सभी साथी तथा इन 11 वर्षों में हम पर अटूट विश्वास बनाये हुए हमारे सभी शुभचिंतकों की उमीदों को ‘कौथिग’ से नया सामाजिक फलक मिला. तसल्ली हुयी. मेहनत को ज़रूरी मुकाम मिला. आज आप से ‘कौथिग’ की तसवीरें साझा करना चाहता हूँ. यह हमारे साथ बिताये खूबसूरत लम्हों की दास्ताँ हैं. इन्हे देख कर आप को भी अच्छा लगेगा.
तसवीरें साझा करने के इस अवसर पर आपसे कुछ और मन की बातें भी साझा करना चाहता हूँ. ‘कौथिग’ के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ है. उतना कहना यहाँ संभव नहीं, पर थोड़ी बातें ज़रूर कहना चाहूंगा.
बात शुरू करता हूँ ‘कौथिग’ के 11 वर्ष के सफर से. इस सफर ने हमें संघर्ष के नए और कई आयाम समझाये. हमें सामाजिक पटल पर काम करने के ज़ज़्बे को बेहद समझदारी और संवेदनशील तरीके से आगे बढ़ाना सिखाया. सब को साथ ले जाने की बातें सिखाई और समझाई. हमें जूनून दिया और क्षितिज से आगे देखने की हिम्मत दी.
यह बताने की बात नहीं और यह अपनी मेहनत की अतिशयोक्ति भी लग सकती है. लेकिन सच तो है कि मैं और मेरे साथी हर साल एक मिशन की तरह इसमें जुटते हैं. जुनून के साथ खुद को इस सामाजिक और सांस्कृतिक आग में झोंकते हैं और थोड़ा-थोड़ा तप कर बाहर निकलते हैं. रातों की नींद, दिन का चैन गंवा कर, रोजगार दरकिनार कर, परिवार छोड़ कर आर्थिक-सामाजिक-राजनितिक और भावनात्मक गुलदस्ते के रूप में कौथिग का वृहद कैनवास सजाते हैं. और जब यह सज जाता है, तो अच्छा लगता है.
‘कौथिग’ का आयोजन एक लक्ष्य् के रूप में हमारे सामने होता है और जोश, ज़ज़्बा और जुनून…अपनी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकलता है. धन जुटाने से लेकर ‘कौथिग’ के हर पहलू को संवारना कठिन, बेहद कठिन होता है. पर हमें सालों से हौसला देने वाले उद्योगपति, सामाजिक प्रतिनिधि, ‘कौथिग’ को अपना आभामंडल प्रदान करते खेल और ग्लैमर जगत की शख्सियतें, वैचारिक धरातल पर इस अभियान को तरासते पत्रकार-चिंतक और खम्भ ठोंक कर हमारे साथ खड़ी शहर की तमाम संस्थाएं, हमारी हर मुश्किल आसान करती रही हैं. गर शुभचिंतकों का यह काफिला न होता तो इस मुकाम पर खड़े न होते. आप सब का दिल से आभार!
जैसे मैंने कहा कि ‘कौथिग’ के आयोजन ने हमें बहुत कुछ सिखाया और बहुत कुछ समझाया. हम विद्यार्थी के रूप में सामाजिक ककहरा सीखते हुए इस आयोजन में सक्रिय रहे. जो अच्छा किया, सो किया और जहाँ गलतियां हुयीं, वहां सीखते और ठीक करते हुए आगे बढ़ते रहे.
#सबसे_बड़ी_बात_कि…
‘कौथिग’ ने अक्सर सुने जाने वाले इस तथ्य को खारिज किया कि समाज में कोई किसी की नहीं सुनता, हर शख्स अपनी चाल चलता है और सबको एकजुट करना असंभव है. लेकिन हमने जाना कि यह सच नहीं है. ‘कौथिग’ ने हमें यह सुखद एहसास कराया कि समाज का एक-एक शख्स जब एकजुट होता है तो समाज की शानदार तस्वीर उभर कर आती है.
‘कौथिग’ के यह 11 साल बेहद चुनौतीपूर्ण ज़रूर रहे, पर इस चुनौती को जिस तरह तमाम उत्तराखंडियों ने भावनात्मक सहारा दिया, उसने आगे बढ़ने की ताकत दुगुनी-चौगुनी कर दी. आज जब यह पोस्ट लिख रहा हूँ, तो कौथिग समापन के लगभग 15 दिन बाद भी खुद को ‘कौथिग’ के उसी प्रांगण में खड़ा महसूस कर रहा हूँ, जहाँ भावनाओं ने हमारी सामाजिक पहचान को नयी ताकत दी है. आप सब के इस गहरे अपनेपन के लिए मैं ‘आभार’ या ‘धन्यवाद’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कतई नहीं करूंगा. अगर ऐसा किया तो अपनेपन की संजीदगी के साथ गुनाह करूंगा. अलबत्ता आप सब के स्नेह-बंधन के लिए मैं और मेरे साथी नमन ज़रूर करना चाहेंगे. कृपया यह नमन-भेंट ज़रूर स्वीकार कीजियेगा. हमें अच्छा लगेगा.
जहाँ तक ‘कौथिग’ की सफलता की बात है तो मैं इसे ‘शानदार’ और ‘जानदार’ जैसे शब्दों से भी नहीं नवाजूंगा. इसलिए कि यह सफलता आत्ममुग्धता की बजाय शालीनता का आभामंडल चाहती है. हम ‘कौथिग’ की सफलता से खुश ज़रूर हैं, पर आत्ममुग्ध कतई नहीं. हम आत्ममुग्ध होने के बजाय आत्म-मंथन के दौर में हैं. और हमें ही नहीं, हर किसी को सफलता के बाद यही करना चाहिए. हम भी कर रहे हैं और गुजरे लम्हों की कड़ियाँ जोड़ कर पता कर रहे हैं कि सफलता के बाद भी हम कहाँ-कहाँ चूके और आगामी 12 साला जश्न के दौरान हमें अनजाने में हई किन-किन गलतियों को सुधारना है.
हमें एहसास है कि 2-4 महीने बाद हमें कौथिग के 12वें साल के जश्न की तैयारी गहरी साधना के रूप में करनी है और हम नहीं चाहते कि यह साधना ख़ुशी के शोर से बाधित हो.
जहाँ तक कौथिग की सफलता पर अपनी अभिव्यक्ति की बात है तो इसे क्षणिक ख़ुशी के रूप में परिभाषित करना इस प्रयास को सीमाओं में बाँधने जैसा होगा. यह वृहद आयोजन किन्ही 2-4 लोगों की आकांक्षा और महत्वाकांक्षा का प्रतिफल नहीं, बल्कि यह सामाजिक एकजुटता की भावनात्मक अभिव्यक्ति है. अंतिम सच तो यही है कि हम इस मुकाम पर इसलिए पहुंच पाये कि समाज ऐसा चाहता था. दूसरे समाज और स्वयं अपने समाज के बीच अलग-थलग पड जाने की टीस और अपनों के करीब आने की उत्कट अभिलाषा ने ‘कौथिग’ को भावनात्मक अभिव्यक्ति के इस मुकाम पर पंहुचाया.
मैं जब ‘कौथिग’ के 11 वर्षों के सफर पर नज़र डालता हूँ, तो खुद से एक सवाल करता हूँ कि सिर्फ मुंबई ही नहीं पूरे देश भर में हो रहे ‘कौथिग’ और अन्य सांस्कृतिक आयोजन की सफलता का ग्राफ अचानक इतना कैसे बढ़ गया है. उत्तराखण्डी पिछले कुछ सालों में अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहचान के लिए पहले से ज़्यादा जागरूक और मुखर कैसे हो गए हैं….तब कौथिग सारे सवालों के जवाब दे देता है.
दरअसल, बात सिर्फ मुंबई की नहीं है. बात देश के विभिन्न शहरों में बसे सभी उत्तराखंडियों की है. आप स्वयं गहरे उतर कर इस पर सोचेंगे तो महसूस करेंगे कि देश भर में सामाजिक रूप से बेहद छोटे वृत्त में समेट दिए गए उत्तराखंडियों के भीतर गुस्सा है और भौगोलिक रूप से भी नामालूम से साबित किये जाने का गहरा रोष है. उत्तराखंड इस देश के नक़्शे से दरकिनार किया गया ऐसा राज्य है, जिसकी कोई हैसियत नहीं. न सामाजिक, न राजनीतिक और न ही कुछ और.
यह सर्वविदित है कि देश की सुरक्षा में कई पीढ़ियां खपा देने वाले इस राज्य की पहचान एक फौजी प्रदेश के रूप में रही है. बन्दूक इसके मान-सन्मान और पहचान का प्रतीक रही है. पर व्यवस्था ने ऐसी करवट बदली कि बन्दूक पर तराज़ू हावी हो गया. तराज़ू संस्कृति के लोगों से फौजी संस्कृत के लोग मात खा बैठे हैं. वे मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में अपनी पहचान खो बैठे हैं. अपनी देशभक्ति, अपनी ईमानदार और अपने समर्पण पर नाज़ करनेवालों को इस बात का गहरा दुःख है कि इस व्यवस्था में न उनका समर्थन मायने रखता है, न उनका विरोध. देश के एक कोने में धकेल दिए गए उत्तराखंडी न राजनीतिक, न सामाजिक और न आर्थिक रूप से कोई हैसियत रखते हैं. रही बात फ़ौज़ की तो इस देश में वोट बैंक का खोने का डर किसी फौजी के खो जाने से ज़्यादा मायने रखता है.
कहने का सार यही कि, देश के कोने-कोने में मौजूद उत्तरखंड़ी गहरी पीड़ा से गुजर रहा है. वह अपनी हैसियत के नज़रअंदाज़ किये जाने पर दुखी है. तराज़ू संस्कृति की चालाकी को वह कभी समझ नहीं पाया. यह लोग उसे देशभक्त कह कर पुचकारते रहे और उसे सालों-साल भांडी मंजवाते रहे, उसे ईमानदार कह कर वाचमैनी करवाते रहे. वह अपनी तरक्की को भूल औरों की कसौटी पर कसता रहा और पिसता रहा.
समर्पण की इस राह में वह अपना घर भूल औरों के घर संवारता रहा. एक लम्बी पीड़ा से गुजरते उत्तराखंडी आज कई पीढ़ियों के संघर्ष के बाद खड़े हो पाये हैं एवं अपने वज़ूद के लिए गोलबंद हो रहे हैं…और ‘कौथिग’ इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति है. इसलिए मैं इसे बजाय जन-सैलाब कहने के इसे दर्द-ए-सैलाब कहूँगा. मैं हमेशा कहता रहा हूँ ‘कौथिग’ एक ‘इवेंट’ नहीं ‘मूवमेंट’ है. यह एक सशक्त आंदोलन है. गीत-संगीत के साथ अपनी ज़मीन को तलाशता कारवां है.
आज 11 साल के इस सफर में मुंबई ‘कौथिग’ प्रांगण में उमड़ती है तो सिर्फ गीत-संगीत सुनने नहीं. वह मन के भीतर की पीड़ा को एकता के रूप में प्रदर्शित करने, सामाजिक प्रतिनिधियों के प्रयासों के प्रति सहमति जताने और हम साथ हैं और हमें साथ होने की जरूरत है, इस भावनात्मक अभिव्यक्ति के साथ ‘कौथिग’ के प्रांगण में पंहुचता है. हम इस अभिव्यक्ति को बारम्बार सलाम करते हैं!
आज जब ‘कौथिग’ में किसी बात का समर्थन करने हज़ारों हाथ उठते हैं तो मुझे यह हाथ अपने वज़ूद का एहसास कराने भिंची हुयी मुठी के रूप में नज़र आते हैं. मानों वे कहते हैं हाँ, हम भी हैं….और यही आज कहने की जरूरत है और हम कह रहे हैं….’कौथिग’ के प्रांगण से.
इसके बाद भी कहेंगे…और प्रखर तरीके से.
अंत में यही कि…
‘कौथिग’ दर्द की अभिव्यक्ति की ख़ुशी है.
इसमें जोश है, गुस्सा है, ख़ुशी है और एक हुंकार है…
मुझे ख़ुशी है जोश, जूनून, ज़ज़्बे, ख़ुशी और क्रोध के इस अजीब काफिले का मैं केशरसिंग बिष्ट भी एक हिस्सा हूँ….और मुझे इसका फख्र है….आप को भी होगा.
मुझे उम्मीद है हम सब मिल कर अपने समाज की एक नयी तस्वीर उभार पाएंगे.
बात अभी शुरू ही हुयी है. सफर अभी लम्बा है.
और मैं अपनी मैं इन शब्दों के साथ ख़त्म करता हूँ कि आप सब हैं, इसलिए हम सब हैं. इसलिए ‘कौथिग’ है और रहेगा.
आप सब के बिना इसका कोई वज़ूद नहीं.
बेशक मैंने ये कहा है की परिवार के सदस्यों के आभार की औपचारिकता की जरूरत नहीं.
फिर भी ये कहना जरूरी समझता हूँ की आप न होते तो कौथिग का यह कारवां आगे न बढ़ता…