मुंबई कौथीग मंच- बंद दरवाजों पर जोरदार दस्तक..! काश….खुले और हम बोलें- अहा खोल दे माता खोल भवानी घार मा  किवाड़ा..!

मुंबई कौथीग मंच- बंद दरवाजों पर जोरदार दस्तक..! काश….खुले और हम बोलें- अहा खोल दे माता खोल भवानी घार मा  किवाड़ा..!

(मनोज इष्टवाल)

कभी बैशाखी शुरू हुई नहीं कि गाँव के गाँव त्यौहारों के रंगों में रंगने शुरू हो जाया करते थे. गाँव के घरों की देहरियाँ फूलों से सजती थी तो फूलपत्ती चुनकर लाने वाले बच्चों की फुलारी टोलियाँ गाँव की चौखटों से मंदिर की देहरियों तक बसंत की सुगबुगाहट का संदेशा देना शुरू कर देते थे! जैसे ही बैशाखी आई यही त्यौहार मेलों में तब्दील हो जाया और पूरा जेष्ठ तक यह समागम कौथीगों के रूप में सम्पूर्ण गढ़-कुमाऊं की ऊँची थातों पर जुटने शुरू हो जाया करते थे. दूर थातों पर बजते ढोल बेहद सुहावने लगते थे और उसमें शामिल हुल्लड़ की सीटियाँ पांडव नृत्य, झंडे डंडे जब निकलकर मदमस्त धूमसू (धूल उड़ाकर मगन होना) नृत्य करते तो धरती माँ का भी पसीना सूखकर धूल का गुबार बन आकाश को ललकारने के लिए चल पड़ता था. महादेव के ये अनुनय भक्त पांडव नृत्य में मग्न रहा करते थे वहीँ इन्हीं थातों पर अलग अलग जगह अपनी संस्कृति अनुसार थड्या,चौंफल, बाजूबंद, झुमैलो, रासो, तांदी, हारुल, झैंता, जंगू, भाभी, झौड़ा, चांचरी, छपेली, भगनौल, न्योली, शौका, ढूस्का, मंड़ाण, लंगवीर, पंडवार्ता, छोपति इत्यादि सहित जाने कितने नृत्य इन कौथीगों में देखने को मिलते थे!

आज गढ़ कुमाऊँ के गाँव व वहां के परिवेश की स्थिति देखी जाय तो गाँवों का देश कहलाने वाले भारत बर्ष की स्थिति उत्तराखंड प्रदेश निर्माण के बाद सबसे बदत्तर यहीं की हुई है ! मात्र 18 बर्षों में उत्तराखंड के लगभग 969 गाँव भुतवा हो चुके हैं जिनमें सबसे अधिक पौड़ी गढवाल के 371 गाँव हैं जबकि अल्मोड़ा जिले के 256 गाँव इसके बाद गिनती में आते हैं.

वर्तमान सरकार के चुनावी मुद्दों में पेबिस्त पलायन रोकना प्रमुख मुद्दा था जिसे लेकर ये चुनाव में उतरे थे लेकिन पलायन रोकने की बाद यहाँ भी बेमानी साबित हुई और सरकार के मुंह में तमाचा मार हाल ही में दो गाँव और भुतवा हो गये!

मुंबई कौथीग टीम यों तो बर्षों से वहां कौथीग का आयोजन करती आ रही है लेकिन इस बार केशर सिंह बिष्ट की अगुवाई वाले कौथीग मंच की परिकल्पना ने उत्तराखंड के लोक मानस के माथे पर पसीना ला दिया! इस मंच की दीवारों की चीत्कार साफ़ सुनाई दे रही थी! बंद दरवाजों की आह अन्तस् हिला रही थी! खिडकियों पर जंक कहा चुकी चिटकनियां कानों में मंच पर गुंजायमान पहाड़ी गीतों पर आकुल अपने अतीत के आंसू बहा रही थी!

द्वार, मोड़, संगाड, खोली की यह हाहाकार जाने कितने दिलों ने महसूस की! मेरा मन भी आतुर था कि ये बंद दरवाजे खुलें तो अंदर जाकर गाय के गोबर और सौंधी मिट्टी से लिपे बर्षों पुराने अपने उत्तराखंड की माटी का तिलक लगाऊं! मन हो रहा था कि द्वार खुलें तो घर के कच्चे फर्श पर लेटकर अपनी खुद बिसराऊँ, द्वार खुलें तो घर की घुटन मिटाने के लिए खिडकियों के पट खोलकर उन्हें हवा में नचाऊं, द्वार खुले तो पुराने जंक खाए घर के गागर, बंठे, भांडे बर्तन पानी में भिगाऊं, द्वार खुलें तो बैलों के काँधे का हल ज्यू, माँ बहनों का श्रृंगार दाथी-कूटली सजाऊं, द्वार खुले तो गोबर मिट्टी के लेप से घर का श्रृंगार सजाऊं! द्वार खुले तो दादी माँ की अंगडी, ढान्टू, कमरबंद व दादा की टोपली, कोट पर जमीं धूल हटाऊं. द्वार खुले तो अपने नाते रिश्तेदारों को बुलाऊं और फिर ढोल दमाऊं के साथ महादेव की ध्वजा लेकर कौथीगों में जाऊं. द्वार खुले तो नंदा देवी, बग्वाल, खैरालिंग, एकेश्वर, जणदादेवी, बुंखाल, सावणी, सोमनाथ, सल्टिया ठुल कौथीग, स्याल्दे, बिखौत, गंगनाथ, पूर्णागिरी, असाडी, मानेश्वर, थल, लड़ीधुरा, चैती, माघ, गिन्दी, बिस्सू, बैकुंठ चतुर्दशी, दनगल, चन्द्रबनी, रणभूत, हरियाली पुडा, गौचर, नुणाई, टपकेश्वर, उत्तरायणी, बिनसर, कालिंका, मौण सहित सैकड़ों मेलों में परिजनों को घुमा लाऊं!

लेकिन हद तो तब हुई जब पूरे 10 दिन मुंबई कौथीग में जनचेतना के गाजे बाजे, सारे उत्तराखंड के लोकगीत, लोकनृत्य, ढोल नगाडे बजते रहे फिर भी वो बंद दरवाजे नहीं खुले जिसमें मुंबई कौथीग की टीम हर दिन सुबह शाम जोरदार दस्तक देती रही! और तो और देवी देवता छोडिये परियों को नचाने के लिए चैतकी चैत्वाली की भी मंच में धूम रही! परियां तो आसमान से नहीं उतरी लेकिन मुंबई में जमा हुआ उत्तराखंडी लोक मानस खूब थिरका खूब पसीना बहा लेकिन जब गाँव के द्वार खोलने की नौबत्त आई तब किसी की जेब में चाबी नहीं मिली! और तो और प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास भी इस गंभीर समस्या का कोई हल दिखने को नहीं मिला!

कौथीग टीम के इस मंच ने पूरे 10 दिन तक मुंह में पट्टी बांधे रखी! रोज बाहरी आँगन सजाता व सजता रहा लेकिन इसके द्वारों पर लटके जंक खाए तालों की कसक कितनों के ह्रदय में उतरी और कितने प्रवासियों का मन हुआ कि चलो यार बहुत हुआ ! आ अब गाँव लौट चलें!

यकीन मानिए गाँव लौटने का मन लगभग 50 प्रतिशत लोगों का है जिन्हें ये पता है कि गाँव में अब लगभग 48 प्रतिशत लोग भी नहीं रह गए हैं! लेकिन वे उत्तराखंड लौटने का नतीजा पहले ही जानते हैं! उन्हें पता है कि एक राशन कार्ड बनाने के लिए उन्हें पहले चार दिन प्रधान और एक महीना ग्राम पंचायत मंत्री के चक्कर काटने पड़ेंगे! बच्चों के एडमिशन के लिए दूर दराज स्कूल देखने पड़ेंगे, स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कहाँ भागें! पानी की समस्या अलग! मकान बनाने से पहले कितने दिन गाँव की में मिलने वाली लेबर के लिए भटकना पडेगा! बिना शराब के कुछ नहीं होने वाला! कोई प्रोजेक्ट लेकर अगर लौटते भी हैं और ईमानदारी से काम करने की सोचते भी हैं वहां रोजगार मुहैय्या भी करवाते हैं तो एक ऑफिस के बाबू से लेकर मंत्री संत्री कितना रुलाते हैं यह उन्हें उनके पूर्व किये प्रयास बता देते हैं!  और तो और गाँव के खेतों को आबाद कौन करेगा!  बच्चों के लिए शोपिंग माल कहाँ से लायेंगे!

यह सब मैं नहीं बल्कि एक चर्चा के दौरान उठे उन प्रवासियों के प्रश्न हैं जिनका बहुत मैन है कि वे अपनी जन्मभूमि में लौटें! हाँ आम छोटी नौकरी वाला सचमुच पहाड़ लौटना चाहता है बशर्ते उसे प्रत्येक महीने 8 से 10 हजार तक कमाई के संसाधन मिल जाएँ लेकिन गाँव छोड़ चुकी वह मातृशक्ति नहीं लौटना चाहती जिसे पता है कि गाँव लौटकर उसकी कुगत होने वाली है. फिर वही गोबर, वही मिट्टी, वहीँ लकड़ियों का बोझ, घास और और पत्थर काटों से समागम होने वाला है!

अब प्रश्न यह है कि हमारी चिंताएं जहाँ कि तहां है और प्रदेश सरकार के पास कोई ऐसी योजना भी अभी तक धरातल पर नहीं है कि वे पलायन पर अंकुश लगा सकें. सिडकुल, हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंहनगर की फैक्टरियों में नौकरी भी 60 प्रतिशत से ज्यादा उत्तर प्रदेश के लोग कर रहे हैं! फिर कैसे रुके यह सब..! कैसे खुलें ये बंद दरवाजे..! यक्ष प्रश्न है भाई!

कौथीग टीम मुंबई के मंच ने इतना साहस तो दिखा ही दिया कि वे हम सबकी आत्मा से प्रश्न करें कि हम चाल, खोली, जाफरी इत्यादि में खुश रहें या फिर अपनी लोक संस्कृति, लोक समाज के गरिमामाय विशालकाय आवासों व मीलों तक फैले अपने खेत खलिहान स्वच्छ हवा व वातावरण के साथ! मुंबई कौथीग का यह मंच भले ही गूंगा रहा हो लेकिन एक ऐसी पहल जरुर है जो अंतरात्मा झकझोर दे!

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