महिला सम्मेलन में मिरचौडा गांव की महिलाओं ने पेश की अनूठी मिशाल। लोक व्यवहार में सम्मिलित पकवान बनाकर किया मेहमानों का स्वागत।

महिला सम्मेलन में मिरचौडा गांव की महिलाओं ने पेश की अनूठी मिशाल। लोक व्यवहार में सम्मिलित पकवान बनाकर किया मेहमानों का स्वागत।
(मनोज इष्टवाल)
ये महिला सम्मेलन था या फिर पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन असवाल के घर खुशियों का त्यौहार ! कहना मुश्किल है, क्योंकि आवास बनाने के बाद भले ही इस आवास में ग्रामीण स्तर पर कई सामूहिक कार्य हुए हैं लेकिन उत्तराखण्ड महिला मंच यानि उत्तराखण्ड के विभिन्न जिलों से ही नही बल्कि देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न लोक संस्कृति के मूल्यों को जीने वाली महिलाएं इस सम्मेलन में जिस उद्देश्य से इकट्ठा हुई वह अपने आप में अद्वितीय है। अब यह लग रहा है कि पलायन एक चिंतन की उस पहल को जमकर समर्थन मिलने वाला है जिसकी परिकल्पना इसी चिंतन कुटीर मिरचौडा में रतन असवाल व चन्द सहयोगी मित्रों ने की थी। इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस आंदोलन में महिलाएं अपनी भागीदारी निभानी शूरु कर देती हैं वह निर्णय के पश्चात ही समाप्त होता है।

मुझे याद है कि देहरादून स्थित समय साक्ष्य द्वारा आयोजित दून लिटरेचर फेस्टिवल 2017 में समाजसेवी आजीविका की सर्वेसर्वा रही गीता गैरोला ने रतन असवाल के समक्ष यह बात रखी थी कि उनकी हार्दिक इच्छा है कि वह अपने मायके क्षेत्र में एक महिला समय आयोजित करें ताकि ग्रामीण महिलाओं के बीच चेतना सुर फुट सकें। जिस पर रतन असवाल ने कहा था कि दीदी, मेरा घर भी आपका मायका ही है। बड़ी दीदी का आदेश व इच्छा सिर माथे। आप जब चाहो आपका स्वागत है।
इस तरह बुने इस ताने बाने के बाद आखिर विगत 17-18 फरवरी को मिरचौडा की ग्रामीण महिलाओं ने महिला सम्मेलन को गांव की आन बान शान से जोड़कर इसे अपने लोक समाज और लोकपरंपराओं का वह चोला पहनाया जिसने सभी महिला सम्मेलन में शिरकत करने पहुंची महिलाओं का हृदय गदगद कर दिया।

पलायन एक चिंतन के संयोजन रतन असवाल की पहल रंग लाई और ग्रामीण महिलाओं के साथ जहां ग्रामीण पुरुषों ने दो दिवसीय इस सम्मेलन को सफल बनाने में कंधे से कंधा मिलाया वहीं उड़द की दाल के पकोड़े व अरसे बनाकर अपनी लोक संस्कृति की अमिट छाप छोड़कर यह जता दिया कि आखिर असवाल थोकदारों की पट्टी अस्वालस्यूँ क्यों प्रसिद्धि के चरम पर पुरातन काल से रही है। आपको याद दिला दें कि यह वही पट्टी है और वही गांव भी जिसके थोकदार घिण्डवा पदान ने अकाल के दौरान ब्रिटिश काल में जिला मजिस्ट्रेट को कहा था कि वह अपनी पट्टी के 84 गांव एक साल तक आराम से पाल सकते हैं।

इस व्यवहारिक पहल पर गीता गैरोला जब यहां से विदा हुई तब उन्होंने सोशल साइट पर बेहद गर्व के साथ लिखा कि “मै तो अपने मायके से अपने भाइयों के घर से उनका प्यार और परम्परागत अर्सों का कलेवा और उनके प्यार की दूण कंडी ले कर आई हूँ।और फिर जाने की तैयारी है।
बहुत तृप्त हूँ।खुश हूँ की मेरी जन्म भूमि के गांवों में लिपे पुते घर और घरों से उठता धुंआ मुझे आश्वस्त कर रहा है ।”
यही नहीं गीता गैरोला बताती हैं कि चलो मैं तो अपने मायके क्षेत्र में गयी थी लेकिन जिस तरह बाहर से गई 13 की 13 महिलाओं को मिरचौडा से दिशा-ध्यानियों के रूप में अरसे के कलेवा के साथ विदा किया गया वह हम सबके लिए अद्वीतीय रहा। उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि सिर्फ मुझे छोड़कर बाकी सभी महिलाएं भले ही शहरों में बसी हैं लेकिन आज भी सबके गांवों में अपने अपने मकान आबाद हैं व उनका वहां आना जाना लगा रहता है। गीता गैरोला ने कहा मुझे अभिमान है कि मेरे रतन असवाल जैसे भाई हुए जिन्होंने पलायन के चिंतन की बात सिर्फ रखी ही नहीं बल्कि गांव में अपने आवास को व्यवस्थित कर गांव के अपने खेत खलिहानों को आबाद करने की पहल भी की।
पलायन एक चिंतन टीम से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अनिल बहुगुणा ने बताया कि विगत 17 फरवरी को सुबह ही यह लोकोत्सव शूरु ही गया था। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ग्रामीण पुरुषों व महिलाओं ने मिलकर चावल के अरसे बनाये व शान्यकाल महिमानों के स्वागत हेतु पारंपरिक लोकगीतों व लोकनृत्यों (थडिया, चौम्फला, बाजूबन्द, झुमैलो) से कार्यक्रम की रौनक बढ़ा दी।
दूसरी सुबह जहां एक ओर महिला सम्मेलन चलता रहा जिसमें उत्तराखण्ड के खाली होते गांव व बंजर होते खेतों पर चिंता जाहिर की गई व पलायनवादी समाज को किस तरह वापस अपने गांव में लाया जा उसकी रणनीति बनती रही वहीं दूसरी ओर ग्रामीण महिलाओं द्वारा इसे लोकोत्सव का रूप देकर उड़द की दाल पीसकर पकोड़े बनाये व विदाई पर सभी महिला को अरसे पकोड़े की सौगात के साथ विदा किया। इस पूरे सम्मेलन में सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि प्रदेश सरकार का एलआईयू तंत्र सक्रिय रहा व उसने पूरे कार्यक्रम की वीडियोग्राफी भी की।

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