मरोड्या कफोला के नमक के भारे में आई थी ज्वाल्पा देवी! सोमनाथ सती थपलियाल ने की स्थापना..! लोगों ने लिंगचटया ब्राह्मण कहकर उड़ाया था उपहास..!
मरोड्या कफोला के नमक के भारे में आई थी ज्वाल्पा देवी! सोमनाथ सती थपलियाल ने की स्थापना..! लोगों ने लिंगचटया ब्राह्मण कहकर उड़ाया था उपहास..!
(मनोज इष्टवाल)
कोटद्वार पौड़ी मार्ग पर पौड़ी से 34 किमी व कोटद्वार से 73 किमी. दूरी पर सड़क के नीचे नयार नदी के तट पर अवस्थित माँ ज्वाल्पा मंदिर को जहाँ स्कन्द पुराण से जोड़कर व दैन्त्य राज पुलोम पुत्री द्वारा यहाँ तपस्या की बात सामने आती है वहीँ यह भी कहा गया है कि इस मंदिर का निर्माण अनेथ गाँव के बुद्धराम अणथ्वाल के पिता दाताराम अणथ्वाल द्वारा की गयी है ! यह जानकारी शोध के बाद अपर्याप्त लगती है क्योंकि मन्दिर स्थापना का काल यदि दैंत्य राज पुलोम की पुत्री शची से जोड़कर देखा जा रहा है तब यह मन्दिर 5000 बर्ष पुराना होना चाहिए!
हो न हो इस मंदिर की पुनर्स्थापना या जीर्णोद्वार का कार्य अनेथ गाँव के पंडित दाताराम अणथ्वाल द्वारा किया गया हो लेकिन मिस्टर ट्रेल व मिस्टर विकेट साहब के पौड़ी बंदोबस्ती कागजात (1816-1860 ई.) से ज्ञात हुआ है कि ज्वाल्पा देवी मंदिर का निर्माण पंवार वंशी महाराजा चाँदपुर की आज्ञा पर सोमनाथ सती थपलियाल द्वारा किया गया था जिन्हें चौन्दकोट गढ़ में गढ़पति गोर्ला का फौंदार/कुल मुल्त्जिम बनाकर भेजा गया और उन्हें पंचुर नामक गाँव में बसागत दी गयी जो मवालस्यूं स्थित है! सोमनाथ सती थपलियाल को ज्वाल्पा स्थापना के लिए चौन्दकोट में खैड, मासौं इत्यादि की जागीर मिली! वहीँ उन्होंने अपने बड़े पुत्र पंडित धाम सती थपलियाल को सिमतोली (वर्तमान में खातस्यूं) बसाकर राजाज्ञा से मुल्क का फौंदार नियुक्त करवाया व कनिष्ठ पुत्र दशरथ सती थपलियाल को ज्वाल्पा देवी का पुजारी व जागीर का मुल्त्जिम मुकर्रर करके खैड गाँव में बसाकर मुआफिदार बनवा दिया!
कहा जाता है कि ये लोग चमोली गढ़वाल के थापली गाँव से आकर यहाँ बसाए गए जो बाद में पूर्वी व पश्चिमी नयार के कई गाँव बसाने में कामयाब हुए जिनमें कफोलस्यूं मालकोट, मैणा, श्रीकोट, थापली, मरोड़ा, धारकोट, तंगोली, बंगानी, भटकोट, सहित कई गाँवों में फैलते चले गए!
अब बात आती है कि ज्वाल्पा देवी कैसे मन्दाकिनी (नयार) नदी के किनारे आ बसी! इसमें दो अलग अलग किंवदंतियां प्रचलित हैं! कुछ लोगों का तर्क है कि माँ ज्वाल्पा मंदाकिनी नदी उदगम से बहकर यहाँ किनारे लगी वहीँ 1-1-1923 को अपनी प्रहलाद नाट्य पुस्तिका के अंतिम पृष्ठ पर बाबू भवानी दत्त थपलियाल तर्क देते हैं कि यह देवी कफोला बिष्ट के नमक भारे में यहाँ पहुंची है! इसमें दूसरा तर्क इसलिए मजबूत लगता है क्योंकि इस देवी का स्थान कफोला की थाती और वजीरे की गद्दी से जोड़कर भी देखा जाता है! वहीँ पौराणिक गीतों में मरोड्या कफोला का जिक्र आता है! जैसे:-
बाजलो शंख हे देवी ज्वाल्पा, गजाऊँ घांड ईश्वरी भवाने!
दयू करू धुप्यानौ स्यो सोमनाथे! फूल द्यूं पाती मरोडया कफोला!
औ भाई पूज तू देवी रामदेवे………………….!
कहा जाता है कि 15वीं सदी के शुरुआत में जब पंवार वंशी राजा रूहेला, कुमैया, मराठाओं के आक्रमणों से व्यथित थे उसी दौर में मोड़ कफोला या मरोड्या कफोला नामक भड जो राज दरवार से नमक का भार लेकर नयार नदी के रास्ते लंगूर गढ़ी आ रहा था! यहीं ईढगढ़ और नयार के संगम के पास जब वह दिशा फिराक के लिए रुका और उस से निवृत्त हो अपना भारा उठाने लगा तो उस से वह भार हिलाया नहीं गया! थक हारकर वह वापस भूखा प्यासा चाँदपुर गढ़ी पहुंचा जहाँ जाकर उसने सारी व्यथा राजा को सुनाई! राजदरवार ने मरोड्या कफोला का खूब उपहास उड़ाया लेकिन उसी रात राजा के सपने में देवी ज्वालपा गयी और उसने कहा कि मैं मरोड्या के भारे में आ गयी हूँ और मुझे यह स्थान पसंद है इसलिए मेरी आज्ञा है कि अपने आदिबद्री के कुलपुरोहितों में एक पुरोहित भेजकर मेरी यहीं स्थापना कर ! मैं तेरे सारे कष्ट हर दूंगी!
कहा जाता है कि राजाज्ञा के साथ ही पंडित सोमनाथ सती थपलियाल यहाँ आये और उन्होंने ज्वाल्पा देवी को नयार तट पर प्राण प्रतिष्ठित कर थरपा! माँ ज्वाल्पा की कृपा से राजा के कष्ट दूर हुए और उन्होंने मरोड्या कफोला को मरोड़ा (चौन्दकोट) की जागीर दे दी जो ब्रिटिश काल में पट्टी कफोलस्यूं के नाम से पुकारी गयी और मरोड्या कफोला के वंशज कफोला बिष्ट कहलाये! वैसे कफनौर भी कफोला बिष्ट जाति के नाम से जाना जाता है लेकिन मरोड़ा गाँव की उत्पति ही मरोड्या का अपभ्रंश है! यहाँ से कफोला जाति का कफोलस्यूं में उत्पति मानी जाती है तदोपरांत कफोला बिष्टों ने अपनी जागीर का गाँव कोलडी बसाया, उसके बाद बूंगा धारकोट, डांग, अगरोड़ा, ध्वीली, सिलेथ सहित विभिन्न गाँवों में इनकी थोकदारी रही!
अब प्रश्न यह उठता है कि कफोलस्यूं थापली जोकि थपलियाल जाति के नाम से प्रसिद्ध है वहां के थपलियालों का सन्दर्भ क्यों नहीं माँ ज्वाल्पा के साथ जोड़कर देखा गया है! इस पर अभी व्यापक शोध की आवश्यकता है वहीँ ज्वाल्पा देवी के निकट का सबसे निकटवर्ती गाँव निलाड़ा के थपलियालों की चर्चा भी इस प्रकरण में होती दिखाई नहीं दी! अत: यह साफ़ है कि ब्रिटिश काल में जरुर कहीं न कहीं दस्तावेजों में फेरबदल हुआ होगा! अनेथ के अणथ्वाल कैसे और कब पूजा से जुड़े इस पर भी एक रोचक प्रसंग है! कहा जाता है कि 16वीं सदी में अन्य सरोला ब्राह्मणों ने थपलियाल पंडितों की बढती यश वृद्धि को देखकर थोकदार जातियों में इन्हें देवी पुजारी लिंगचटया ब्राह्मण के नाम से पुकारना शुरू कर दिया ! अपनी अस्मिता पर यह चोट इन लोगों को बुरी लगी! और ज्वाल्पा धाम के नजदीक बसे निलाड़ा गाँव के पंडित गिरधर थपलियाल ने अपने थापली व मरोड़ा बसे भाइयों की खुमडी बुलाई व यह तय किया कि अपने रिश्तेदार सारस्वत ब्राह्मण रामदेव को बाकी समय की पूजा का कार्य भार सौंप दें व लेन देन व देवी की सर्व श्रेष्ट पूजा नवरात्रों की वे स्वयं सिरगोही करेंगे ! सभी की रजामंदी के बाद रामदेव सारस्वत को अनेथ बसाया गया जहाँ वे अणथ्वाल कहलाये और ज्वाल्पा देवी के 11.82 एकड़ सेरे उनके सुपुर्द कर कोला, नौगाँव इत्यादि की जमीन हस्तगत की जो उन्हीं के एक भाई के नाम थी जो निसंतत्ति हुए! कालांतर में क्या क्या हुआ यह कहना सम्भव नहीं है क्योंकि हर काल में पांडूलिपियों के लेखन से नए नए नाम जुड़ते चले गए लेकिन कहा जाता है कि दहसहजी के वंशज पंडित गिरधारी, भळभद्र, माया और वृहस्पति थपलियाल ही कफोलस्यूं व मनियारस्यूं में रहे!
थपलियाल मुख्यत: गौड़ सती ब्राह्मण थे जो थापली (चमोली) बसने के बाद थपलियाल कहलाये और वही जब ज्वाल्पा के निकट बसे तब इनके द्वारा थापली गाँव बसाया गया! अत: यह कहा जा सकता है कि कफोला जाति का कफोलस्यूं आगमन 15-16वीं सदी में हुआ और इसी दौर में थपलियालों की यहाँ बसागत हुई है! कफोला इसे अपनी कुलदेवी मानते हैं , थपलियाल इसे अपनी दिशा ध्याण यानि बेटी स्वरूपा देवी समझते हैं अत: वे इसके मायके वाले हुए. खातस्यूं, कफोलस्यूं और चौन्दकोट के थपलियाल इसे पूजते हैं जबकि पुजारी अणथ्वाल वंशज हैं. कफोलस्यूं की थाती में आ बसने के कारण इसे लगभग कफोलस्यूं का हर प्राणी अपनी कुलदेवी मानता है लेकिन बिशेषत: कफोला बिष्ट जाति को इसकी हर बर्ष पूजा देनी ही होती है.
बर्ष 1909 में एक सर्वे के अनुसार ज्वाल्पा देवी की अष्टबलि मेले में जुटने वाली भीड़ गढ़वाल मंडल के मेलों में हर बर्ष सबसे ज्यादा जुटने वाली भीड़ मानी गयी है. तब सिर्फ गढ़-कुमाऊ की सीमा पर स्थित बिनसर महादेव जिसे चौथान बिनसर मेले के रूप में जाना गया है वहां 8000 से 10000 भीड़ जुटती थी जबकि इडवालस्यूं बिल्बकेदार में बिखोती मेले में भी लगभग 8000 की भीड़ जुटती थी!
लेकिन ग्रामीण परिवेश में होने वाले मेलों में जेठ माह में ज्वाल्पा अष्टबली में पूरे गढ़वाल मंडल में सबसे ज्यादा भीड़ जुटती थी जिसकी संख्या 5000 थी इसके बाद असवालस्यूं मुंडन महादेव (खैरालिंग/मुंडनेश्वर) में जेठ माह में मुंडनमेले के आयोजन में 3000 की भीड़ जुटती थी.
आज ज्वाल्पा में कहाँ अष्टबलि मेला लगता था कोई नहीं जानता लेकिन मुंडन मेला बदस्तूर जारी है जिसमें अब हजारों हजार की संख्या में लोग जुटते हैं !
कफोलस्यूं के समाज को मेलों की लोकसंस्कृति बचाने के लिए एक अनूठी पहल तो करनी ही होगी ताकि यह मेला पुन: शुरू किया जा सके!
गलत तथ्य बताये गये है
सही तथ्य आप प्रमाणिकता के साथ बताइएगा। आपका स्वागत है। अगर आपके पास मेरे से ज्यादा पुरानी पांडुलिपि है तो सार्वजनिक करें ताकि हम सबका मार्गदर्शन हो। सिर्फ इतना लिख देने से इतिश्री नहीं होती बन्धु।
बहुत बढ़िया है आपकी जानकारी मैं सुमन कुमार थपलियाल आप लोगों का आभारी हूं कि आप लोगों ने ज्वाल्पा देवी के विषय में हम लोगों को अवगत कराया ताकि हम आगे आने वाली पीढ़ी को भी ज्वाल्पा देवी की विषय में बता सके कि हमारी जो कुलदेवी है वहां जालपा मां है आप लोगों का मैं दिल से आभारी हूं
आपका हृदय से स्वागत।