भैलो भैs भैलो….! पहाड़ी दीवाली यानि बग्वाळ की रंगत अब शहरों की ओर!

  • बग्वाळ यानी दीवाली के भैलो…की रंगत ही अलग होती है…! भैलो बे भैलो…पल्या छाला अपणी,……..ह्वेल्यो….?


     (मनोज इष्टवाल)

हम भाग्यवान रहे कि हम उस समय पैदा हुए जब हमारी लोक संस्कृति अपनी जीवन मृत्यु की अंतिम साँसे गिन रही थी ..शायद यही कारण है कि हमें संस्कृति अपनी ओर बार बार खींच कर ले जाती थी..उस दौर में न गॉव ही उजड़े थे न कोई तीज-त्यौहार ही मरणासन्न था…किसी का कोई खेत अगर बंजर दीखता था तो लोग उसे गाली समझते थे..जैसे आज भी टिहरी जनपद में कई गॉव भैंस ही पाला करते हैं ..गाय पालना वह आलसी परिवार की दें समझते हैं…
बचपन में जब हम भैलो (मशालें..जिन्हें हम तिल के सूखे तनों को मजबूत से डंडे में बांधकर गेंहू की हलकी अंकुरित फसल के खेतों में जलाकर खेलते थे) जलाया करते थे…गॉव बड़ा होने के कारण एक साथ ५०-६० भैलो इक्कट्ठा होकर बहुत लम्बाई तक प्रकाश पुंज फैला देता था ..फिर एक साथ जली मशालों में उमंग पैदा होने के लिए भैलो बे भैलो…पल्या छाला….ह्वेल्यों..कहकर बड़ी गालियाँ दिया करते थे…नदी पार के गॉव को गाली बखना ..यह क्या परंपरा थी मुझे नहीं ज्ञात..हर साल हर बार यही दोहराया जाता था…!

जौनसार बावर या चमोली गढ़वाल के कई गॉव और कुमाऊ में अक्सर ये तिल के सूखे तनों की जगह जौनसार बावर में देवदार की लकड़ी से एवं चमोली व कुमाऊ में चीड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं…
इसे जलाते समय गाली क्यूँ देते हैं..और फिर ढोल की धुन में क्यूँ नाचा जाता है यह शोध का विषय है…
जौनसार में भी कुछ इस तरह इसे जलाकर कहते हैं! “हुलड़ी होला होला ..होले  की बूटी….!” वहीँ कुमाऊ में खतड मनाते समय यह जलाया जाता है वो भी गाली देते हैं. “भैलो भैलो जी…खतड की हार ..गैंडा पड़ी स्याल ..खतड पड़ी भ्याल.!” इस तरह के शब्द है..साथ ही इनको हवा में लहलहाकर खुशियाँ मनाई जाती हैं..!
इस दौरान गैड खींचने की एक अनूठी परम्परा है! हो न हो कहीं यह परम्परा कुमाऊ के सेनापति गैंडा बिष्ट से जुडी हुई हो लेकिन कई विद्वत इस बात से साफ़ इनकार करते हैं. फिर भी बुजुर्गों का कहना है कि गैड (बबूल की रस्सी ) बनती थी! इसे एक तरफ  औरत एक तरफ मर्द खींचते थे! “शबासे”  “हयासो” जैसे शब्दों से पूरा आसमान गुंजायमान हो उठता था. हार जीत चाहे पुरुषों की हो या महिलाओं की भेली फाड़ी जाती थी! चौन्दकोट के गड़ीगाँव (सिंवालधार) में बकरा मारा जाता है! गाँव कितने खुशहाल होते थे यह सचमुच भैलो की रंगत से पता लगता था. भैलो तिल के डंठलों, चीड़ व भेमल के चिल्लों इत्यादि से बनाए जाते हैं. जौनसार में देवधार के चिल्ले होते हैं! इन्हें जलाते हुए ढोल के साथ मदमस्त नृत्य रात्री प्रहर को प्रकाशवान तो करता ही है गुंजायमान भी कर देता है! भैलो घुमाने की विधा भी अलग ही है! इसे सर के ऊपर से घुमाकर पैरों के नीचे तक घुमाया जाता था ताकि आपके शारीरिक विघ्न बाधाएं दूर हो जाएँ!

यह तो तय है कि इससे जुडी ऐतिहासिक गाथाएं हैं जैसे कुमाऊ के खतड से सम्बंधित गाथा है कि कुमाऊ के राजा लक्ष्मी चंद ने गढ़वाल नरेश पर ७ बार आक्रमण किया लेकिन हर बार पराजित हुआ…आठवीं बार सेनापति गैंडा बिष्ट के नेतृत्व में विशाल सेना ने नजीबाबाद में स्थित गढ़वाल नरेश के सेनापति खडग सिंह असवाल को धोके से मार कर किले में कब्ज़ा कर लिया था जिसकी ख़ुशी तत्कालीन सेना ने पुआल जला-जलाकर अल्मोड़ा तक पहुंचाई थी..कहते हैं घृणावश खड्ग सिंह को ही खतड के रूप में कुमाऊ में मनाया जाता है..
वही कहावत गढ़वाल में भी है कि इगास के रोज रिंग्वाडा रावतों को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तब सवा लाख फ़ौज के साथ गढ़वाल राजा ने भंधौ असवाल जोकि महाब गढ़ का गढ़पति था के नेतृत्व में कुमाऊ के राजा पर सिर्फ विजयी ही नहीं पायी बल्कि पंवार बंशीय राज घराने की खूबसूरत वीणा नामक राजकुमारी का हरण भी कर लिया था और उसके वंशजों को बंधी बना लिया गया था.!
आज भी लोकगीत में इसका वर्णन कुछ इस तरह मिलता है-
हे पंवारी वीणा तम्बू वाडू..व्हे चौकी का सेरा तम्बू वाडू…!
लोकगाथाओं पर केन्द्रित ये लोक त्यौहार और इनसे जुडी गालियाँ शायद उसी पीड़ा की धोतक हैं..और उस पीड़ा का हर्ष नाद इन्हीं खुशियों से जुडा हुआ है..!

भैलो से सम्बन्धित कई और उदाहरण चरित्रार्थ होते हैं!  गजब है यह प्रकाश पर्व…मेरा बचपन जिसमें बीता वह दीवाली ही अजब गजब की हुआ करती थी. न पताकों का शोर न बिजली की लडियां…! महीने भर पहले से लोग इगास- बग्वाल (छोटी दीवाली/ बड़ी दीवाली) की तैयारियों पर जुटे रहते थे. खेत खलिहानों से काम निबटाकर अन्न अभी घर के अन्दर पहुँचता ही था कि दीवाली आ जाती थी. तब मिटटी पत्थरों के मकान चुपड़ी मिटटी और गोबर से लीपे जाते थे. लाल मिटटी और चूना से सफ़ेद व लाल रंग किया जाता था. जिसका मतलब यह होता था कि आईये आपका आदर है और शिष्टाचार को कलंकित करने पर ध्यान रखिये की हम शान्ति (सफ़ेद चूना) के ही नहीं बल्कि गर्म खून लाल (लाल मिटटी) वाले भी हैं. इसीलिए मकान के उपरी छोर को सफ़ेद और निचले छोर को लाल रंगा जाता था. खैर यह टॉपिक हटकर है.
कोई चीड के पेड़ को चीर कर या फाड़ कर लीसे वाले हिस्से को बारीक हिस्सों में एक मुट्ठी भर गट्ठर या फिर ऐसा ही देवदार पेड़ से बनाया जाता था जिसे एक मजबूत से डंडे में बांधकर मशाल का रूप दिया जाता था.

हमारे गॉव में तो हमने मरसा (चोलाई) के डंडे ठीळठिंगा (तिल के झडे हुए सूखे झाड़) को रस्सी से बांधकर मशालें तैयार करते थे या फिर क्याड़ा (भेमल की टहनियां जिनसे छाल उतारी जाती है) को किसी मजबूत लट्ठ पर बांधकर मशाल बनाते थे…और गेहूं बोये खेतों की मेंड़ों पर खड़े होकर कतार बनाकर मशालें जलाकर गदेरे के पार दूर बसे गॉव के लोगों को “भैलो बे भैलो…पल्या गौ का अपनी माँ-बैणी का…..ह्व़ेल्यो….!” टाइप की कई गालियाँ हँसते खेलते देते थे..वही रिस्पांस उधर से भी होता था लेकिन यह मजाक सिर्फ उसी दिन के लिए जायज माना जाता था..मैं आजतक नहीं समझा कि ये गालियाँ दी क्यों जाती रही हैं.

इसके पीछे कई कहानियां और ऐतिहासिक घटनाएं भी शामिल हैं जिनका वर्णन करूँगा तो लेख बेहद विस्तृत होता है. फिर भी रिफरेन्स के लिए बता दूँ कि छोटी दीवाली को रिन्गोड़ा रावत कुमाऊ अल्मोड़ा के चंद राजाओं से हारकर लौटे तो उन्होंने छोटी दिवाली मनानी छोड़ दी..जिसका बदला सवा लाख सेना लेकर असवाल गोरला रिन्गवाड़ा रावत सहित खस ब्राह्मणों ने बग्वाल के दिन कुमाऊ के राजा को हराकर लिया और इगास व बग्वाल मनाई…कहा जाता है कि बारह बग्वाल कुमाऊ पर बारह बार की जीत हैं.
गढ़वाल राजा के महान कवी व चित्रकार मौला राम तोमर ने बग्वाल से पूर्व आक्रमण का इस तरह वर्णन किया-
सवा लाख संग फ़ौज सलाणी, लोधी और बघाली आये तडा तोम्डा संग मही लाये.
बाकी सब गढ़ के संग लागे..खसिया बामण चले जो आगे. 

आज यह परंपरा लगभग खत्म हो गई है और वर्तमान के आधुनिक युग ने उसकी जगह प्रदूषण के संसाधनों को अपना लिया है.
मैं कृतज्ञ हूँ जौनसार बावर की संस्कृति का जहाँ आज भी दीवाली में भैलो (होला) जलाए जाते हैं और वहां के सवर्ण अपने निम्न वर्ग को निशाना बनाकर गया करते हैं-
होलिड़ी होलिड़ी होला..होल की बूटी….
खैर यह भी भरपूर मजाक का बिषय है इसे भी गंभीरता से नहीं लिया जाता. लेकिन आज भी इस जनजातीय क्षेत्र की दिवाली में न पटाके जलते हैं न लडियां लगाईं जाती है बस प्रकाश पर्व के रूप में रात भर जश्न चलता है और सुबह होता ही गॉव के लोग गॉव की सरहद पर खड़े होकर दुसरे गॉव को अपना प्रकाश-पुंज दिखाकर दिवाली की मुबारकबाद देते हैं.
पहाड़ में कभी सरसों के दानों से बिशेष इसी अवसर के लिए तेल निकाला जाता था जिससे दिए जलाए जाते थे. सच कहूँ तो जब मैं दसवीं का छात्र था तब पटाके चलन में आये थे उससे पहले हम उन्हें शादी ब्याह के अवसर पर ही फोड़ा करते थे.

आज के परिवेश में इस दिन करोड़ों का धुंवा और बारूद गंगनचुम्बी आसमान में जहर बनकर घुलता है और कई दिनों तक वह पूरे देश के प्रदूषित करता है.
आईये इस प्रकाश पर्व को उन्ही रस्मो रिवाज का रूप दें जिन्हें हमारे पूर्वज जमारे लिए छोड़ गए थे.
आई बग्वाल ब्वे कातिक, भैला ख्यलला बै रातीक।
जौ-क्वादा आटाको पीन्डु पकैकी, बिगरैला फूलून डलुणी सजै की
पीन्डु खलाला बै हाथिमा, भैला ख्यलला बै रातीमा।।
 भैलो भै भैलोsssss. . ………..!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *