भैरोघाटी पुल ऐतिहासिक है।

भैरोघाटी पुल ऐतिहासिक है।

(वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाँई की कलम से)
पहले नदी पर राजा बिलसन ने रस्सी का पुल बनाया, रसी के सहारे कई लोग पार होते थे। गंगोत्री जाते थे। तब गंगोत्री 12 किलोमीटर पैदल का रास्ता था। फिर लकड़ी का पुल बना। 1882 में अपनी पुस्तक हिमालयन गजेटियर में एटकिन्सन ने इस पुल का ज़िक्र एक
रसी के सहारे किया है। बाद 70 के दशक में स्थानीय कुछ लोग गाड़ी का टायर खोल कर, गाड़ी के पुर्जे खोल कर दूसरी तरफ शिफ्ट करते थे। और दूसरी ओर जुड़ा कर गाड़ी गंगोत्री जाती थीं। क्योकि 85 तक मोटर वाहन पुल नहीं था। सबसे ज्यादा कठिनाई सेना को होती थी। 1962 का युद्ध हमने ऐसे ही लड़ लिया। अर्जमेंटन सीमित थे।

इस पुल का उद्घघाटन 1986 में यूपी के चीफ मिनिस्टर श्री नारयण दत्त तिवारी ने किया था। तिवारी उत्तराखण्ड के मामलोंमें ऐतिहासिक हैं। उन्होंने सोच लिया होगा कि इस इतिहासकी चीज बनने में मदद की जाय। तिवाड़ी का नाम आज भी पुल पर चमकता है। पुल को बनाया बीआरओ ने था। उसके बाद गंगोत्री की किस्मत जैसे खुल गई। लोगों की पहुँच गंगोत्री मंदिर तक हो गई। आर्थिक उदारीकरण की इबारत लिखी जाने लगी। लेकिन सवाल है क्या हमने 62 का युद्ध बगैर भरोघाटी के पुल के लड़ी? भेरोघाटी से आगे नेलांग का रास्ता है।

बीआरओ और हमारी यूपी सरकार का यह ऐतिहासिक काम था। करीब 500 मीटर गहराई में नदी में अच्छे अच्छे की हिमत्त नहीं होती है पुल बनाने की। लेकिन यह देर से बना। बहुत बड़ा स्पान का है। कहने को तो हावड़ा बन गया था। लेकिन वहाँ 1910 तक देश की राजधानी थीं कलकत्ता। फिर गंगोत्री का भेरोघाटी पुल क्यों नहीं ? गंगोत्री का इतना प्रचार भी उस दौर में नहीं था। अब हुआ है। इस पुल से यात्रियों की सहूलियत के जैसे पंख लग गए है। लेकिन ज्यादा सुरक्षा बलों को है। जिनकी गाड़िया यहीं से तिब्बत बॉडर पर जाती हैं। हमारी हिफाज़त चीन से करती है। जो चीन अपनी सीमा चिन्यालीसौड़ तक बताता आया है।
 

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