भिलढुंग गाँव…जहाँ एक घर में गण की आँछरियों ने दफन कर दिया वहीँ के तांत्रिक पदान कपरवाण का पूरा परिवार!

भिलढुंग गाँव…जहाँ एक घर में गण की आँछरियों ने दफन कर दिया वहीँ के तांत्रिक पदान कपरवाण का पूरा परिवार!

(मनोज इष्टवाल)
रहस्य और रोमांच तो यों भी उत्तराखंड की धरती के हर कण-कण में विधमान हैं लेकिन ऐसा रहस्य और रोमांच जो आपकी रूह कंपा दे, के बारे जानना है तो देर मत कीजिये और जा पहुँचिये भिलढुंग गाँव!

(भिलढुंग गाँव)
अगर इस गाँव का शब्द विवेचन किया जाय तो अर्थ कुछ ऐसा निकलता है जैसे भिल= भील, डुंग = पत्थर ! यानि भील का पत्थर! ऐसे कई गाँव पूरे उत्तराखंड में हैं जो अपने नाम के साथ अपना पुराना उदबोधन लेकर जन्में हैं और वहीँ से उनकी संरचना का इतिहास मिलता है! कहा जाता है कि सतयुग में मणिकूट पर्वत शिखर पर भील एकलब्य के वंशज रहा करते थे महाभारत काल में गुरु द्रोण को अपना अंगूठा दे बैठे! भील द्रविड़ भी माने गए द्रविड़ की उत्पत्ति धनुष से मानी जाती अहै और ये सभी आदिवासी जनजाति के लोग हुए जिनका पेशा ही शिकार करना था और पसंदीदा भोज्य हिरन (उत्तराखंड में जिन्हें ग्वीड/काखड) कहा जाता है! जहाँ ये महाभारत काल में एकलब्य के वंशज गिने गए वहीँ इन्हें इक्षाकुवंश का माना गया और जिस भील ने अपनी विद्वता से रामायण ग्रन्थ की रचना की उन्हें वालिया भील कहा गया जो बाद में महर्षि बाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए! भील प्राचीन निषाद भी कहलाये जो राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में आदिवासी रहे व इनका राजस्थान के बांसवाडा सहित कई स्थानों में कई बर्षों तक राज रहा!
भिलडुंग यानि भील का पत्थर अगर इस गाँव को कहा जाता रहा है तो जरुर इसमें कहीं न कहीं कोई रहस्य छुपा रहा होगा! पूरे गढ़वाल पर राज करने वाले गोरखा अगर किसी गाँव में दाखिल नहीं हो पाए तो वह तल्ला उदयपुर का यही गाँव है जिसका नाम भिलढुंग है!
यहाँ के लोगों को इस क्षेत्र का जनमानस “भिलढुंग का ग्वीड” कहकर भी पुकारते हैं! जिसका शाब्दिक अर्थ होता है एक ऐसा हिरन नस्ल का जानवर जो ऐसे स्थान पर रहता है जहाँ आसानी से कोई पहुँच ना पाए!

(भुवनेश्वरी मंदिर गणडांडा)
ऋषिकेश नीलकंठ दुगड्डा मार्ग पर मात्र 32 किमी की दूरी पर पन्या ड़ाली नामक स्थान (जहाँ पर एक छोटा सा हनुमान मंदिर अवस्थित है) से बांयी ओर मुड़कर एक पहाड़ी पैदल रास्ता जाता है जो लगभग डेढ़ किमी. पैदल चलने के बाद एक छोटे से गाँव में खतम हो जाता है! यहाँ बसागत के बमुश्किल 8-10 घर हैं लेकिन उनमें से लगभग सभी घरों पर ताले झूल रहे हैं. एक आध परिवार जो गाँव में रह रहा है उनमें रविन्द्र जुगराण नामक एक ब्यक्ति बेहद जीवटता से कृषि व बकरी पालन कर रहे हैं!
इसी गाँव में जाने माने ए ग्रेड ठेकेदार रघुवर दत्त जुगलाण हुए जिनके पुत्र वेद जुगलाण डीएवी छात्र संघ में भी रहे और चुनाव भी लड़े! भले ही यह परिवार वर्तमान में देहरादून में रह रहा है! इस गाँव के सबसे पहले सरकारी नौकर बनने का सौभाग्य विष्णुदत्त जुगलाण को मिला जिनके पुत्र समाजसेवी विनोद जुगलाण आये दिन अपने सामाजिक कार्यों के बूते पर अखबारों व टीवी चैनल्स में छाए रहते हैं! गाँव में श्रेष्ठ रहे पूर्वजों में सर्व प्रथम सरकारी सेवा का सौभाग्य पाने वालों में स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभा चुके भारतीय सैनिक स्वर्गीय श्री विष्णु दत्त जुगलान पुत्र श्री लूँगी राम जुगलान पहले व्यक्ति थे।जबकि ऋषिकेश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुमार स्वर्गीय वैध श्री गँगा राम जुगलान रहे। आयुर्वेदाचार्य स्व. श्री रामानन्द जुगलान जो कि तत्कालीन जोशीमठ में आयुर्वेद विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे। यहीं के स्व. वासुदेव शर्मा जुगलान अपने समय के प्रबुद्ध समाजसेवी व लेखक माने जाते थे जबकि  स्वर्गीय ईश्वरी प्रसाद जुगलान वेद पाठी जी के नाम से विख्यात रहे,जबकि स्वर्गीय श्री श्याम सुन्दर जुगलान नौगाँव राजकीय इण्टर कालेज नौ गाँव उत्तरकाशी में प्रधानाचार्य और स्वर्गीय श्री विश्वम्बर दत्त जुगलान सनातन धर्म इंटर कालेज सहारनपुर में प्रधानाचार्य रहे। प्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा के यहाँ अनुष्ठान कर चुके स्वर्गीय पं. श्री हँस राम जुगलान ख्याति प्राप्त पण्डित रहे।
रिवर्स माइग्रेशन पर आवाज बुलंद करने से पहले विनोद जुगलान व लुधियाना में बैंक में बड़े आधिकारिक पद पर कार्यरत इनके भतीजे रमेश शर्मा जुगलाण इत्यादि के साथ मिलकर विनोद जुगलाण ने बेहद दृढ़ता के साथ लामबंद होकर गाँव की तस्वीर संवारनी शुरू की! पहले पूरे गाँव को रंगाया पुताया और बाहर बसे ग्रामीणों से अनुरोध किया कि कम से कम तीन माह या छ: माह में कुछ दिन तो गाँव में व्यतीत कीजिये! कार्ययोजना को सफल बनाने के लिए राजेश शर्मा जुगलाण के पिता हरिप्रसाद जुगलाण भी गाँव पहुंचे व भगवतकथा आयोजन के साथ बिखरे हुए ग्रामीणों को गाँव बुलाना शुरू किया और अब हाल यह है कि गाँव का हर ग्रामीण अपने मकानों की दशा देख छुट्टियों में गाँव आने को लालायित है!

(फल्दाकोट गाँव)
अब आते हैं उस रहस्यमयी सत्य कथा की ओर जिसे गुजरे अभी एक सदी भी पूरी नहीं हुई और जिसके साक्ष्य आज भी गाँव में मौजूद हैं व इस क्षेत्र का हर ग्रामीण इसकी सत्यता पर मुहर लगाता है! शूटिंग स्पॉट की तलाश में मेरी भट्ट ऑप्टिकल देहरादून के मालिक अश्विनी भट्ट से बात चल ही रही थी कि हमें ऐसी लोकेशन नजदीक नहीं मिल रही जहाँ तिबारी वाला मकान हो! अश्विनी बोले- क्यों न आप एक बार हमारा गाँव का मकान देख आओ! उन्होंने अपने पारिवारिक भाई दिनेश भट्ट का नम्बर दिया उनसे बात हुई तो पता चला वह इस समय अपनी ग्राम सभा के प्रधान हैं! फिर क्या था कड़ियाँ जुडती गई बहुत दिनों से समाजसेवी विनोद जुगलाण अपने ऋषिकेश स्थित आवास में हमें आने का न्यौता दे रहे थे तो सोचा उनसे मिलता जाऊं! विनोद जुगलाण ख़ुशी ख़ुशी मेरे साथ भट्ट जी के “गाँव अटट” चलने को तैयार हुए उनसे ही जानकारी मिली कि दिनेश भट्ट वह शख्स हैं जिनके घर से वर्तमान राजनीति होकर गुजरती है व इस समय वे प्रधान संगठन के भी अध्यक्ष हैं!
हमें विनोद जुगलाण जी ने पन्या डाली नामक स्थान पर मिलने को कहा और हम नियत समय लगभग एक बजे दोपहर वहां पहुंचे तो वे पसीने से तरबत्तर लाल कुरते सुगठित चुफ्फे (चुटिया), खूबसूरत दिल बनाती काली सफ़ेद दाढ़ी व चिरपरिचित मुस्कान के साथ एक पहाड़ी जंगली रास्ते से सड़क के छोर पर आते दिखे! आपसी परिचय में जहाँ मैंने अपने भतीजे ललित इष्टवाल का उनसे परिचय करवाया वहीँ उन्होंने बताया कि वो सामने लगभग डेढ़ किमी. दूर उनका गाँव भेलढुंग है जहाँ की पुन: बसागत के लिए वे सब मिलकर एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए हैं! उनके साथ उनके भतीजे रमेश शर्मा जुगलाण व रविन्द्र जुगलाण थे जिनके साथ हम लगभग 7 किमी यात्रा कर “अटट गाँव” पहुंचे!
कहानी विस्तार न ले इसलिए मूल पर लौटते हैं! बात पर बात आई और बात निकलती चली गयी! भिलढुंग गाँव के शीर्ष पर स्थित ऊँची छोटी पर नजर गयी तो वहां दो मंदिर दिखाई दिए और उन मंदिरों के गर्भ से जब सत्य कथा कि घटना बही तो कसच कहिये तन बदन के रोंवें खड़े हो गए! उन्होंने बताया यह छोटी गण डांडा यानि गैणा डांडा नाम से जानी जाती है जहाँ की आंछरियों ने हमारे गाँव के कपरवाण व रैद्वाण जाति का समूल ही नाश कर डाला ! इन परियों ने ऐसा किया कि आम आदमी की रूह ही कांप जाय! उन्होंने बताया कि गण की परियां हमेशा धान कूटने हमारे गाँव की ओखलियों में आ जाया करती थी! रात-भर वे धान कूटती छोपत्ति खेलती और सुबह सबेरे धान की भुस्सी यूँहीं ओखली के आस-पास बिखेरकर चली जाती! लोगों की नींद खुलती तो देखते इतनी भूसी रोज आ कहाँ से रही है! मालदार पदान कपरवाण हमारे वंशजों को जुगडी गाँव से यहाँ अपने रसोइया के रूप में लाये थे! नित्य ऐसी घटनाओं का सिलसिला जारी रहा तो एक दिन योजना के तहत सभी ग्रामीण बिना शोर शराबे के जगे रहे ! चांदनी रातों का यही काल था ! गर्मियों की शुरुआत हो गयी थी!

(गण डांडा के नीचे बसा कुकरियाधार गाँव)
विनोद जुगलाण बताते हैं कि उनके पूर्वज बताते है कि उस दिन चांदनी की रौशनी से भिलढुंग की फिजा कुछ ज्यादा ही नहाई थी! ग्रामीण देखना चाहते थे कि आखिर रोज यहाँ होता क्या है! लगभग 12 बजे अचानक अजीब से मदमोहक संगीत की स्वरलहरियों के साथ हवा में तैरती कई अफसरायें उतरी उनके हाथ में बड़ी बड़ी मुसल थी! सूप थे व धान के घिल्डे पीठ में लदे थे! वे इतनी अप्रितम थी कि जिसकी भी उन पर नजर पड़ी वह उन्हीं के बशीभूत हो गया !
तांत्रिक पदान कपरवाण ने अपनी तन्त्र विद्या से सबको गूंगा बना दिया था ताकि कोई आवाज न निकाले कहीं ऐसा न हो कि किसी की आवाज निकले और ये परियां उन्हें हर कर अपने साथ ले जाएँ! उन्होंने रात भर धान कूटा थक जाती तो फिर अंगान में गोल-घेरे में छोपत्ति नृत्य करती! खूब हंसती खिलखिलाती और सुबह होने से पूर्व सारा धान कूटकर वापस चली गयी! यह क्रम चलता रहा और इस घटना की जानकारी धीरे धीरे एकगाँव से दूसरे गाँव पहुँच गयी! तब से तांत्रिक पदान कुछ अपनी ही अधेड़बुन में रहे! व उन्हीं परियों के ख़्वाबों में दिनरात उन्हें वश में करने की युक्ति ढूंढते रहे ! एक दिन जब यह सब चल रहा था तब पदान ने उन्हें ललकारा तो वे पदान की ओर लपकी ! पदान ने पूर्व से अभिमंत्रित चावल व थूक से सने छोटे कंकण उनकी तरफ फैंक दिए ! और परियों को कील दिया! परियां अर्द्धमूर्छित हो वापस चल दी वे कूटे हुए धान के चावल अपने साथ नहीं ले जा सकी, वे जाते हुए कह गयी कि जो यह धान खायेगा उसका हम समूल नष्ट कर देंगी!

(परियों की थात गणडांडा )
किसी ने भी उनका छोड़ा चावल नहीं छुआ लेकिन अपनी तंत्र विद्या के अहम में डूबे पदान कपरवाण ने वह चावल अपने घर में रख कर पकाने शुरू कर दिए ! फिर क्या था उनके घर में हर दिन एक व्यक्ति किसी अज्ञात बीमारी से मरने लगा! जितने मरते रहे वे दरवाजे से बाहर नहीं निकल पाए! और तो और मात्र पदान ही बाहरी कमरे तक सुरक्षित रह सका! कई जोर लगाने पर भी अंदर से बंद दरवाजे नहीं खुले और एक दिन बाहरी कमरा भी बंद हो गया और पदान भी वहां ज़िंदा लाश में तब्दील हो गया तब से वह मकान बंद है व ज़िंदा लाशों का रहस्य आज भी रहस्य बना है! अब गण डांडा की परियां हैं कि नहीं यह कहना संभव नहीं है लेकिन उन्हें आज भी हर बर्ष उनकी भेंट विभिन्न गाँवों से पहुँचती है!
गण डांडा एक भिलढुंग व दूसरी ओर से फल्दाकोट, कंडवालगाँव व कुकरियाधार गाँव से घिरा हुआ है! कहते हैं जब भी इन गाँवों में कोई सार्वजनिक कार्य होते थे तब पहले के तैके की पकोड़ी ड़ल्ली (न्योते) के रूप में गणडांडा की आँछरियों (परियों) को ही भेजी जाती थी बदले में वे रातो-रात गाँव में बड़े बड़े बर्तन खाना बनाने के लिए छोड़ जाया करते थे! जिन्हें साफ़ करके फिर सुरक्षित स्थान पर ग्रामीण रख देते थे जिन्हें वे स्वयं वहां से ले जाया करते थे! एक बार कुकरियाधार के कुकरेती ने लालच में आकर एक डेगछे का सुनहरा कंगन निकालकर अपने पास रख दिया! परियां रुष्ट हुई और उस दिन से उन्होंने बर्तन देने बंद कर दिए व कुकरियाधार के कुकरेती उस दिन से नष्ट होने शुरू हो गए! यहाँ भी कालान्तर में जुगलाण आकर बस गए हैं!
परियों के रहस्य पर प्रकाश डालने के लिए मैंने स्कन्दपुराण व शिब पुराण के कई अध्यायों के वर्णन पढने शुरू किये तब स्कन्द पुराण के कलिकागमन (20.25) में मणिकूट पर्वत के मैदानी भू-भाग में बसे चंद्रेश्वर मंदिर में चन्द्रमा द्वारा अपने क्षय रोग की मुक्ति के लिए आदिदेव महादेव की 14 हजार बर्ष तपस्या करने के प्रसंग के साथ साथ, मणिकूट शिखर पर शंकर भगवान के पाँचों विग्रहों की पूजा, मणिकूट की उत्तरवाहिनी पापनाशिनी नदी बल्लभा, अन्य नदिया नंदिनी, पंकजा व मधुमती के जिक्र (शिबपुराण) के साथ चन्द्रकूट पर्वत पर भुवनेश्वरी मन्दिर में माँ भुवनेश्वरी की गनिकाओं का वर्णन मिलता है! चन्द्रकूट और मणिकूट पौराणिक ग्रन्थों में एक ही पर्वत शश्रृंखला के नाम माने गए हैं जिनसे बल्लभा नदी निकलकर कालिकुंद होकर घुटगाड़/घटूगाड़ में हेमवती (हिंवल) नदी में मिलती है! यह प्रमाणिक करता है कि हो न हो गण डांडा वास्तव में परियों का आश्रय स्थल रहा हो क्योंकि यहाँ एक कुंवा ऐसा है जिसकी गहराई का अंदाज किसी को नहीं है और गंगा जी के जल की भांति यह भी अपने रंग बदलता है! बहरहाल यह यात्रा बेहद रोचक व रोमांस भरी रही! उम्मीद है अगले शोध के साथ मैं आपको अपनी टीम के साथ गण डांडा कुछ ही अंतराल बाद मिलूं!

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