भाजपा के शासनकाल में एबीवीपी का बंठाधार..!


(मनोज इष्टवाल)
पहले महादेवी कन्या पाठशाळा और अब एसजीआरआर में एबीवीपी का सूफड़ा साफ़ होना वर्तमान सरकार के लिए सवालिया निशान लगाने जैसा है. डीएवी और डीवीएस पर अब निगाह भले हि लगी हो लेकिन छात्र संगठनों में झुके कंधे से चुनाव लड़ रही एबीवीपी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत अब उन्हीं की टूट से बनी आर्यन बनी हुई है जिन्हें नेताओं की अनदेखी ने एक धड्ड़े के रूप में अलग थलग कर दिया है.
यह चौकाने वाले आंकड़े हैं क्योंकि जिस तरह एबीवीपी अपनी ही सरकार में दो चुनाव राजधानी में गँवा चुकी है उस से साफ़ जाहिर होता है कि युवा वर्तमान कार्यप्रणाली से नाखुश हैं. अब जबकि छात्र संघ चुनाव के बाद नगर पालिकाओं के चुनाव होने हैं व विपक्ष बिशेष रूप से कांग्रेस बहुत ही  शांत तरीके से अपने को साबित करने में लगी है उस से यही लग रहा है कि हो न हो यह चुनाव भी वर्तमान सरकार से छिटककर दूर हो जाय क्योंकि आरएसएस से सरकार हो या फिर जनता दोनों का मोहभंग होता नजर आ रहा है . शायद इसके पीछे आम कार्यकर्ता को हाशिये पर रखना विफलता के लक्षण हैं.
इसलिए भाजपा को प्रदेश संगठन के साथ हर उस छोटे से छोटे चुनाव पर नजर गडाये रखनी होगी जो आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का भविष्य तय करने में कारगर साबित होगा वरना जिस तरह जमीन हाथ से फिसल रही है वह भाजपा के लिए सबक, सबब व चिंता के बिषय से कम नहीं है.

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