बेहद कठिन है लोक संस्कृति के बिषयों का फिल्मांकन व निर्देशन..!
(मनोज इष्टवाल शूटिंग संस्मरण 15जनवरी 2017)
निर्देशन करना आम व्यक्ति को शायद बेहद सरल लगता है क्योंकि लाइट साउंड कैमरा एक्शन बोलने में टाइम ही कितना समय लगता है लेकिन सच ये है कि बिसोई में छुमका गीत की शूटिंग करते समय एक बुजुर्ग नौटियाल जी मेरे “कट इट” चिल्लाने से बेहद परेशान थे। वे बेचारे इसलिए परेशान थे कि अभिनेत्री आकर अभी मुश्किल से कुछ सेकण्ड ही सामने आई दो बोल हुए नहीं कि मैं बार बार ये शब्द दोहरा देते और जो ओके होता उसे ओके कहता और जो एन जी होता उसे एन जी कहता।

सुप्रसिद्ध अभिनेत्री अदिति उनियाल व सितारा को दृश्य फिल्मांकन पर चर्चा करते हुए निर्देशक मनोज इष्टवाल
अब सारी रात काली होने वाली बात जो हुई लोग माघ की मरोज पर अपनी महफ़िल का मजा लेते हैं यहाँ एक तो पहले ही बिसोई में शराब बंदी की वजह से माघ की पौणाई पर मंदी है ऊपर से इतनी खूबसूरत अभिनेत्रियाँ तैयार होकर आती बाद में और मैं उन्हें जल्दी वापस भेज देता।
शूटिंग शायद नौटियाल जी ने ही क्या कई अन्य लोगों ने भी पहली बार देखी थी उनकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि सिर्फ 5 मिनट के गाने में अभी दो घंटे गुजर गए और एक अंतरा स्थायी तक नहीं फिल्माया जा सका।

नौटियाल जी अपने बगल में बैठे सज्जन को बोलते – अरे यार इसे किसने इतनी ज्यादा पिला दी..! ये बेचारी लडकियां जरा सा नाच रही हैं तब तक यह कट कट बोल दे रहा है. इसे बाहर बिठाओ जब तक इसका नशा नहीं उतर जाता।
बड़ी मुश्किल से नौटियाल जी को वह व्यक्ति समझा पाए कि शूटिंग ऐसे ही होती है। खैर 8 बजे से शुरू हुई यह इंडोर शूटिंग सुबह के 3 बजे समाप्त हुई! नौटियाल जी तब तक जमे रहे लेकिन जब उनकी बात सुबह मेरे व कैमरा सहयोगी चन्द्रशेखर चौहान जी के कानों में पड़ी तब हमने खूब ठहाके लगाए।मैं मन ही मन बोला – सचमुच नौटियाल साहब, यह नशा ही तो है…लोक संस्कृति का. जिसके सिर चढ़ता है जल्दी से नहीं उतरता।
निर्देशन वह भी एक ऐसे गीत पर जिसके बारे में आप उत्तराखंडी तो क्या जौनसार बावर का लगभग 60 प्रतिशत जन मानस भी नहीं जानता कि यह छुमका आखिर होता क्या है फिर उन्हें समझाना पड़ता है कि यह भितरा के गीत, भीतर के नाच हैं, जिसे छुमका कहा जाता है! छुमका इसलिए कहा जाता है क्योंकि गीत के बोलों की शुरुआत छुमका शब्द से ही होती है, जैसे छोड़े, भारत, जंगू, भाभी, गंगी इत्यादि गायन की कला है यह भी ठेठ वैसी है लेकिन इस सब से अलग हटकर. यह माघ की ठण्ड में मेहमान व घर परिवार व गॉव के लोगों द्वारा घर के अंदर संचालित ऐसा प्रोग्राम होता है जिसमें सभी खूब गाते व नाचते हैं! यहाँ के बूढ़े बुजुर्ग बताते हैं कि जब वे छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे तब उस काल में जौनसार बावर अक्सर माघ में बर्फ़ से लकदक रहता था इसलिए किस तरह ठंडी रातों को गरम किया जाय उसके लिए छुमका जैसे आयोजन बहुत जरुरी भी थे।


छुमका अक्सर पुरुष वर्ग लगाया करता था कुछ ऐसी धारणा भी रही लेकिन ऐसा भी नहीं कि छुमका महिलायें न लगाती रही हों या उस पर नृत्य न करती रही हों! सचमुच इस बिषय पर फिल्मांकन व निर्देशन इसलिए भी कठिन है क्योंकि यह कभी एक या दो पर केन्द्रित नाटी बन जाता है तो कभी बहुसंख्यक तांदी या फिर हारुल जैसा नृत्य।
इसमें मंझा हुआ कलाकार हो तो पूरी महफ़िल की रंगत ही अलग है! कैमरा कर रहे चन्द्रशेखर चौहान के अनुभव व उत्तराखंडी बेहतरीन अदाकारा अदिति व नवोदित गायिका सितारा के अभिनय व गायन ने शान्ति वर्मा तन्हां व सितारा के इस गीत को बेहद खूबसूरत सजा दिया। रही सही कमियाँ बिसोई के जिस घर में यह गीत फिल्माया गया उस परिवार ने पूरी कर दी। ऐसे परिवार व ग्रामीणों का धन्यवाद जिन्होंने हमें पूरी रात सहयोग दिया। घर की बहुवें वक्त बेवक्त पूरी यूनिट को चाय पिलाती रही। हमने सभी कमरों में अपना सामान फैलाया हुआ था छोटे बच्चे भी रात भर जागते रहे या फिर उन्हीं की बांहों में झूलते सोते रहे। वह असहनीय पीड़ा होती है लेकिन उन चेहरों पर छलकता प्यार सचमुच देवभूमि की महिलाओं को देवितुल्य बना देता है! इसी लिए तो इस क्षेत्र को अतिथि देवो भव: कहा गया है। जहाँ मेहमान भगवान के सामान समझे जाते हैं!
जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के तमसा (टोंस) नदी पार चाहे हिमाचल हो या फिर यमुना पार रवाई जौनपुर या पर्वत क्षेत्र, इस सम्पूर्ण घाटी में मरोज का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन इस छुमके का स्वरुप हर क्षेत्र में बदलता रहता है! इसे आराकोट रोहडू क्षेत्र में मुंजरा नाम से पुकारा जाता है जबकि यमुना नदी के निचले पर्वतीय भू-भाग के लोग इसे भित्तरा के गीत नाम से पुकारते हैं तो कुछ लोग साझे की रोटी के गीत के रूप में जानते हैं!
जौनपुर क्षेत्र के समाजसेवी व वर्तमान में क्षेत्र पंचायत सदस्य अमेंद्र बिष्ट एक वीडिओ शेयर करके कहते हैं कि ऐसी पुरातन परम्पराएं हमारे क्षेत्र की लोक व कार्य संस्कृति की अमूल धरोहर हैं क्योंकि जब तक ये जीवित हैं तब तक हमारा लोक समाज जीवित है! अधिकत्तर मैदानी भू-भागों में यह सुनने को मिलता है कि वहां महिलाओं के साथ पुरुष समाज का व्यवहार न्यायोचित्त नहीं होता लेकिन हमारे समाज में महिला की स्वतन्त्रता इस बात का परिचायक है कि उसे इस हिमालयी भू-भाग में सर्वाधिकार सम्पन्न बनाया गया है! जौनसार बावर के संस्कृति कर्मी नन्द लाल भारती, सुश्री शान्ति वर्मा तन्हा, सुरेन्द्र सिंह चौहान, सह निदेशक सूचना केएस चौहान, साहित्यकार टीका राम शाह, वरिष्ठ पत्रकार जोशी, समाजसेवी व वर्तमान में क्षेत्र पंचायत सदस्य इंद्र सिंह नेगी, लोक संस्कृति समाज के मुद्दों को बेहद सजगता से उठाने वाले गढ़ वैराट के सम्पादक बारू चौहान व प्रेम पंचोली जैसे कई प्रबुद्ध व्यक्तित्वों का भी यही मानना है कि यह लोक संस्कृति व लोक समाज का वह अभिन्न अंग है जो जब तक जीवित है तब तक हम और हमारा समाज भी ज़िंदा है जिस दिन यह सब नहीं होगा उस दिन न हम होंगे न हमें इस जनजातीय क्षेत्र का ही दर्जा प्राप्त होगा!
देखिये किस तरह के हैं इस लोक संस्कृति के रूप विन्हास! और किस तरह होते हैं भित्तरा के गीत/छुमका:-
https://youtu.be/wHHQ_33ppS8