नीलांग घाटी की गरतांग गली में 1962 के बाद मानव चहलकदमी..!
नीलांग घाटी की गरतांग गली में 1962 के बाद मानव चहलकदमी..!
………………….भारत तिब्बत व्यापार की सैकड़ों बर्ष पुरानी इबादत का साक्षी है यह पुल!
मनोज इष्टवाल की कलम से :-
- 59 साल बाद पहली बार पर्यटक पहुंचे गरतांग गली!
- गरतांग गली व नीलांग घाटी को प्रमोट करने में पिछले 10 साल से जुटा एक राजस्थानी तिलक सोनी!
- पर्यटन विभाग ने गरतांग गली को व्यवस्थित करने के लिए अवमुक्त किये 25 लाख रुपये !
- जिलाधिकारी उत्तरकाशी आशीष श्रीवास्तव ने अपने रिस्क पर गरतांग गली का रास्ता खुलवाया!
यकीनन आप भावविभोर हो जाते हैं जब पहाड़ और पठार को एक साथ सामंजस्य बिठाते देखते हैं. एक ओर उतुंग शिखरें तो वहीँ दूसरी ओर पठारी ऐसा भूभाग जहाँ ज़रा सा पैर फिसला नहीं कि मीलों गहरी खाई में गिरते ही आपके हाड़-मांस का पता नहीं चलता! बेहद कौतुहल भरी एक ऐसी ही घाटी तिब्बत भारत रेशम व्यापार के उन हजारों-हजार सालों का इतिहास अपने अन्तस में समाये हुए है जिस घाटी की गरतांग गली विश्व की जानी मानी ऐसी गलियों में शुमार है जिसके पुल के निर्माण कला को देखकर बड़े बड़े इंजिनियर अपने दांतों तले अंगुली दबाकर के रह जाते हैं.
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से उत्तरकाशी, उत्तरकाशी से 90 किमी. गंगोत्री मार्ग पर अवस्थित भैरों घाटी, भैरों घाटी की जाड़ गंगा पर बने स्टील पुल से ठीक पहले बांयीं ओर नीलांग घाटी को एक पैदल रास्ता जाता है जहाँ से नीलांग की दूरी लगभग 28 किमी. बताई जाती है जबकि भैरों घाटी से मात्र दो किमी. आगे जाड़ गंगा के एक छोर पर गरतांग गली नामक लगभग 150 मीटर लंबा लकड़ी का एक पुल निर्मित है जो यकीनन आज भी सैकड़ों बर्ष पूर्व से अब तक रहस्य रोमांच का बिषय बना होगा. इस पुल को देखने के बाद ऐसा लगता है कि इसके निर्माता पेशावरी पठान जरुर कोई जिन्न रहे होंगे जिन्होंने उस काल में एक ऐसे पुल की संरचना कर डाली जिसके बारे में वर्तमान में भी सोच पाना असम्भव है!
यह पुल या गली भारत तिब्बत व्यापार की सबसे अबूझ कड़ी रही है जिस से होकर सैकड़ों साल दोनों देशों के व्यापारिक सम्बन्ध चलते रहे. यहाँ तक पहुँचने के लिए दो मार्ग उपयुक्त हैं जिनमें पहला मार्ग हरिद्वार से नरेंद्रनगर, टिहरी, धरासू, उत्तरकाशी, भटवाड़ी, गंगनानी और हर्सिल से होकर जाता है। देहरादून से मंसूरी, चंबा और टिहरी होते हुए भी नीलांग घाटी तक पहुंचा जा सकता है,जबकि अन्य देहरादून, मसूरी, नैनबाग़, डामटा, नौगाँव, बडकोट, राड़ी डांडा होकर उत्तरकाशी पहुंचता है. विगत 2015 में उत्तराखंड के वन मंत्री रहे दिनेश अग्रवाल ने इस घाटी को वाइल्ड लाइफ पर्यटन की दृष्टि खोलने की घोषणा की जबकि यह घाटी 1962 में चीन व भारत युद्ध के दौरान बेहद सेंसटिव जोन मानकर मानव चहलकदमी के लिए पूर्ण रूप से बंद कर दी गयी थी! सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि तिब्बत चीन सीमा से लगी उत्तराखंड की इस सीमा पर विवाद उठने के बाद भी आज तक एक भी गोली नहीं चली फिर भी यह भू-भाग लगभग 47 साल तक बंद रखा गया.
कहा जाता है कि नीलांग घाटी में हमेशा ही तिब्बती घुसपैठियों का दबदबा था। इस घाटी के निवासियों को जाध भोटिया नाम से पुकारा जाता रहा है जिनके तिब्बतियों से कभी अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे. यहाँ लाल बाबा का मंदिर है जिसे कुछ स्थानीय निवासी लामा मानते हैं तो कुछ हनुमान नाम से पुकारते हैं. नीलांग घाटी को तिब्बती लोग ‘चोनशा’ कहा करते थे। इसमें नीलांग और जादुंग नाम के दो गांव पड़ते थे। एक अंग्रेज ए गेर्राड ने 1820 में इसे ‘चुनसाखागो’ जबकि 1850 के दशक के आसपास इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वाकिफ रहे एफ विल्सन ने ‘चुंगसा खागा’ नाम से उल्लखित किया है। नीले पहाड़ों के कारण स्थानीय लोग इसे नीलांग नाम से जानते थे। एक अन्य अग्रेंज जे बी फ्रेजर ने सबसे पहले इस क्षेत्र में जाने का प्रयास किया था। वह गंगोत्री तक गये थे लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से लोगों को परिचित कराया था। उन्होंने नीलांग यानि चोनशा और उस क्षेत्र के ‘जाध भोटिया’ निवासियों के बारे में लिखा था। रिकार्डों के अनुसार ‘सर्वे आफ इंडिया’ के कैप्टेन जान हडसन और लेफ्टिनेंट जेम्स हरबर्ट पहले यूरोपीय थे जो गोमुख तक गये थे। वे 31 मई 1817 को वहां पहुंचे थे। लेफ्टिनेंट हरबर्ट दो साल बाद फिर से इस क्षेत्र के बारे में पता करने के लिये निकले थे और आखिर में 13 सितंबर 1817 को नीलांग पहुंचने में सफल रहे थे।
हर्षिल में बसने वाला अंग्रेज सिपाही विल्सन भी अफगानिस्तान युद्ध से भागकर इसी रास्ते भागकर यहाँ आया था. जिसने बाद में हर्षिल व उसके आस-पास का क्षेत्र टिहरी नरेश से खरीदकर इसे अपनी जागीर बना लिया था और टिहरी नरेश के समकालीन अपनी मुद्रा प्रचलन में लाई थी. जहाँ किंवदन्ती है कि विल्सन ब्रिटिश काल में ब्रिटिश सरकार का जासूस था और उसे इस बेहद दुर्गम क्षेत्र की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार ने सौंपी थी ताकि रूस की फ़ौज इस रास्ते भारत पहुँचने में कामयाब न हो सके वहीँ दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि विल्सन को 1850 के आसपास टिहरी नरेश ने इस क्षेत्र को बसाने की जिम्मेदारी भी सौंपी थी।
(युद्ध स्तर पर चल रहा है गरतांग पुल की मरम्मत का कार्य)
विल्सन ने इस क्षेत्र में कई पुल बनाये थे तथा हर्षिल और नीलांग के बीच मार्ग तैयार करवाया था। विल्सन ने यहाँ अपने को स्वघोषित राजा प्रचारित किया और इस क्षेत्र में विल्सन नामक प्रजाति के सेबों का बड़ी मात्रा में उत्पादन किया आज भी हर्षिल का विल्सन प्रजाति का सेब प्रसिद्ध है. ‘विल्सन ने इस क्षेत्र पर अपने अनुभवों पर आधारित एक किताब ‘माउंटेनियर’ भी लिखी थी। यह भी अजब इत्तेफाक है कि जिलाधिकारी आशीष श्रीवास्तव ने विगत कुछ महीनों पूर्व ही अपने जिले के आराकोट बंगाण क्षेत्र के चान्शल को ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 घोषित करवाने में काफी मेहनत की थी जिसका नतीजा यह हुआ कि पर्यटन विभाग को मजबूरन द्रोणागिरी ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 के साथ ही इसे भी ट्रेक ऑफ़ द इयर घोषित करना पड़ा.
(गरतांग पुल पर udit ghildiyal)
वहीँ हाई फीड के निदेशक उदित घिल्डियाल का कहना है कि गरतांग गली पहुँचना सचमुच सपने साकार होना जैसा ही है, क्योंकि यह 150 मीटर पुल किसी तिलिस्म से कम नहीं लगता है. उदित बताते है कि यह तिलक सोनी की बर्षों की मेहनत का नतीजा ही है कि सरकार इस ओर ध्यान केन्द्रित कर पाई. वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने गरतांग गली व नीलांग घाटी को पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है.
पत्रकार धर्मेन्द्र पन्त लिखते हैं कि भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से जुड़े सी एल ग्रीसबाक ने 1882 और 1883 में नीलांग घाटी का दौरा करके यहां के विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने ‘जियोलोजी आफ द सेंट्रल हिमालय’ में लिखा है कि जब वह नीलांग गये तब वहां के स्थानीय निवासियों जाध और तिब्बती लोगों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। 1930 के दशक में इस पूरे क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया गया था। ब्रिटिश खोजकर्ता जे बी औडेन (महान कवि विस्टन ह्यूज औडेन के छोटे भाई) 1939 में भागीरथी की सहायक नदियों की खोज करते हुए नीलांग घाटी तक पहुंच गये थे। उन्होंने बाद में यहां का मानचित्र तैयार करवाने में अहम भूमिका निभायी।
नीलांग घाटी से जुड़ी एक दिलचस्प घटना भी है। आस्ट्रिया के दो पर्वतारोही हेनरिच हेरर और पीटर आफशेनेटर दुनिया की नौंवी सबसे ऊंची चोटी नांगा पर्वत पर चढ़ाई करने के लिये भारत आये थे लेकिन तभी 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों पर्वतारोहियों को देहरादून में कैद रखा। परिजनों ने भी उनका साथ नहीं दिया और यहां तक कि हेरर की गर्भवती पत्नी इंग्रिड ने आस्ट्रिया से ही उनके लिये तलाक के कागज भेज दिये थे। हेरर और आफशेनेटर 1944 में जेल से भागने में कामयाब रहे। वे छिपते छुपाते नीलांग घाटी होकर तिब्बत पहुंच गये। हेरर वहां दलाई लामा के गुरू भी रहे। बाद में उन्होंने जेल से छूटने और फिर हिमालय के कठिन रास्तों, नीलांग घाटी आदि से होते हुए तिब्बत तक पहुंचने और वहां बिताये गये दिनों पर एक किताब लिखी जिसका नाम था, ‘सेवन एयर्स इन तिब्बत’। बाद में 1997 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनी थी।
विगत 27 सितम्बर 2017 वर्ल्ड टूरिज्म डे पर एसपी उत्तरकाशी के नेतृत्व में पुन: 25 सदस्यीय दल ने पुन: इस क्षेत्र में चहलकदमी की है जिनमें दिल्ली गुडगाँव के जाने माने पर्वारोही विक्रम मलिक, वेयर ईगल डेयर के ग्रुप प्रमोटर तिलक सोनी, टाइम्स ऑफ़ इंडिया एडिटोरियल ग्रुप के सुबोध घिल्डियाल, ब्लॉगर मयंक आर्या, हाईफीड के निदेशक उदित घिल्डियाल, टाइम्स ऑफ़ इंडिया की सीमा शर्मा, दिल्ली से शैलेन्द्र ठुकराल व उनकी धर्मपत्नी के अलावा दिल्ली राजस्थान व विदेशी पर्यटक शामिल हुए !
(लगभग 49 बर्ष बाद गरतांग गली पहुंचा पहला टूरिस्ट दल के सदस्य )
ऐसा नहीं है कि इस घाटी में यहाँ के आम जन का प्रवेश वर्जित रहा हो लेकिन बाहरी लोग इस घाटी में इस से पूर्व नहीं जा सके हैं ऐसा सूत्रों का मानना है। यहाँ के लोग बताते हैं कि गरतांग गली का यह पुल इतना चौड़ा है कि आप इसमें सामान से लदा याक लेकर जा सकते हो वहीँ उदित घिल्डियाल बताते है कि इस गली में कई ऐसे डेंजर जोन दीखते हैं जिनमें कई मीटर तक लकडियाँ हवा में झूलती दिखाई देती हैं. उन्होंने बताया कि दल मात्र दो या तीन मीटर तक ही गरतांग गली के पुल तक गया क्योंकि इस पुल की मरम्मत का कार्य बहुत तेजी से चल रहा है जो आने वाले बर्षों में दुनिया भर के पर्यटकों को यहाँ लाने में अवश्य सक्षम होगी!
आपको याद दिला दें कि जब तक इस गली का निर्माण नहीं हुआ था तब तक तिब्बतिया व्यापारी मीलों हिमालयी उच्च भू-भाग नापकर अपने याक से भारत में व्यापार के लिए पहुँचते थे. उन दुर्गम रास्तों से कई बार याक व व्यापारी बर्फ में ही दफन हो जाते थे. इसलिए पेशावरी पठानों द्वारा पूर्व में इस गली का निर्माण करवाया गया था. यह निर्माण कार्य कब प्रारम्भ हुआ इस सम्बन्धी सूचनाये यथार्थ में प्राप्त नहीं हो पाई हैं फिर भी यहाँ के मूल निवासी इसे सैकड़ों साल पुराना पुल मानते हैं. यहाँ जाध भोटिया लोगों के कई गाँव हैं जिनमें सोनम, त्रिपानी, पुलम, संग, सुमला, मेंडी इत्यादि प्रमुख हैं. जाड़ गंगा के पठारी भूभाग पर निर्मित गरतांग गली से 25 किमी दूरी पर नीलंग व नेलांग से 8 किलोमीटर दूर नागा तथा नागा से 15 किलोमीटर दूर जादूंग तथा नीलापानी है! लोगों का मानना है कि गढ़वाली सेना ने माधौ सिंह भंडारी व वीर भड लोधी रिखोला के नेतृत्व में इसी मार्ग से द्वापा (तिब्बत) विजय अभियान जारी रखा था.
(दुर्लभ अरगली भेड़)
इस क्षेत्र में बेहद दुर्लभ भेड़ अरगली की चहलकदमी को वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के कैमरों ने कैद कर ही दिया.आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अरगली नामक यह जंगली भेड़ संसार के तिब्बत व कजाकिस्तान के अलावा देश के उत्तराखंड प्रदेश के मात्र इसी भूभाग में निवास करती है ऐसा माना जाता है.
बहरहाल समुद्र तल से लगभग 10,800 फिट की उंचाई पर अवस्थित नीलांग घाटी पर आने वाले दिनों में कई पर्वारोहियों के पैर पड़ेंगे यह तय है लेकिन अभी उन्हें कुछ और इन्तजार करना होगा क्योंकि उत्तराखंड टूरिज्म द्वारा इसे विकसित करने के लिए बजट आबंटित कर दिया है और इसको आबाद करने के लिए तेजी से कार्य भी चल रहा है. वहीँ जिला प्रशासन उत्तरकाशी ने पर्यटन विभाग के साथ मिलकर इस पर तीव्र गति से कार्य करना शुरू कर दिया है. यकीनन इस पर जितनी तेजी से कार्य चल रहा है उसके लिए पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज व पर्यटन सचिव मीनाक्षी सुन्दरम बधाई के पात्र हैं!
फोटो साभार -मयंक आर्य