बेहद अनोखी है मछुवारों की दुनिया! अपनी वोट में ही खाना, सोना, ताड़ी पीना और गाना ! बेहद अनूठा है इनका अपना लोक?

बेहद अनोखी है मछुवारों की दुनिया! अपनी वोट में ही खाना, सोना, ताड़ी पीना और गाना ! बेहद अनूठा है इनका अपना लोक?
(मनोज इष्टवाल)
ओ मांझी रे अपना ठिकाना…दूर है किनारा मांझी रे….! अगर ऐसे ही कुछ बोल आपको टिहरी झील के किनारों पर मंधिम रौशनी के टिमटिमाते दीयों से दिखने को मिले तो भ्रम मत पालिए क्योंकि यहाँ खड़ी नाव में रात को मछुवारे या तो खाना पका रहे होंगे या फिर खाना खाकर सुस्ता रहे होंगे.
इन बंगाली मछुवारों की दुनिया भी बेहद अलग है. रात को टिहरी झील के गहरे हरे पानी में अपनी अपनी नाव लेकर जाल बिछाना अर तडके फिर जाल में फंसी मछलियां निकालना इनकी दैनिक दिनचर्या का एक हिस्सा है.
यों तो सम्पूर्ण टिहरी झील में मचली पकड़ने के कई लाइसेंस जारी हैं लेकिन हर बिजनेशमैंन के पास मछुवारे के रूप में बंगाली मोशाय ही होते हैं. भले ही ये शक्ल सूरत में सांवले या काले हों लेकिन उस से कई खूबसूरत इनके नाम होते हैं. व्यवसायी रतन असवाल जहाँ कहते हैं कि ये न हों तो हम पहाड़ी लोगों के वश की बात नहीं है यहाँ मछली पकड़ना. वहीँ व्यवसायी विजयपाल रावत का कहना है कि ये अपनी धुन के पक्के होते हैं. मछलियां आज किस ओर रुख करेंगी यह अनुमान ये लोग पहले ही लगा लेते हैं. विजयपाल कहते हैं कि इनके नाम बहुत खूबसूरत होते है जैसे- विश्वजीत, बिशम्बर, विनायक इत्यादि
हमारे साथ भूगर्भवेता दिनेश कंडवाल ने जब एक बंगाली से उन्हीं की भाषा में बात की तो मैं आश्चर्यचकित रह गया. बंगाली मुझे बोलनी तो नहीं आती लेकिन बहुत साल मेरे एक बॉस अमिताभ वासु हुआ करते थे जब मैं अमेरिकन कम्पनी DuPond for East Inc में नौकरी करता था तब से जानता था कि बंगाली कितनी मीठी और सरल बोली है.
दिनेश कंडवाल जी जब फराटेदार बंगाली बोलने लगे तो हम सब हतप्रभ थे क्योंकि वे इतनी अच्छी बंगाली बोलेंगे कोई सोच भी नहीं सकता. उनका वार्तालाप कुछ यूँ था –
दादा मोना हो छे… अपनी बंगाली!
जबाब-हांजी
आपनार बाड़ी कोथाई?
जबाब- बांग्लादेश
उखाने कोथाय!
ज- सेठा आमी जानी नाय.. आमार बाबा नानकमत्ता ऐसे छीलो। आमार जन्मों इखाने ही.
आमी जानी प्रथमो वेटा पछिम बंगो ऐसे छिले तार पोड़े नानकमत्ता
बिस्वजीत दास….
वार्तालाप समाप्त हुआ तो मेरा रुझान हुआ कि किस तरह इन लोगों की दिनचर्या को समझ सकूँ इसलिए चुपचाप एक किनारे हो लिया ताकि मेरा आशय कोई न समझ सके. आखिर पत्रकारिता का पहला वसूल भी यही होता है कि आप पत्थर से भी स्टोरी निकाल लाओ तो तब पत्रकार कहलाते हो.
मैं बंगाली समुदाय के इर्द-गिर्द मंडराता हुआ एक बंगाली से बोला- यार ये तो बताओ आप दिन में तो ऊपर आ जाते हो रात क्यों नाव में जाकर सोते हो वहीँ पकाते हो वहीँ खाते हो. जबकि बाहर तो इतनी जगह है कहीं भी टेंट तम्बू लगाकर रह सकते हो. वो बोला- नहीं बाबू ! ये तो दिनचर्या का हिस्सा है. जिस से पेट पल रहा है उस बोगी को खाली कैसे रहने दें फिर वह हमें अपनों के बीच बनाए रखती है. दूर घर की याद भी ताजा रहती है और शुकून भी . पानी में रहकर जो शुकून मिलता है वह कहीं नहीं है.
फिर तो खूब भांग गांजा सुलपा चलता होगा! मेरे इस प्रश्न पर वह हंसा और बोला- नहीं रे बाबू ! यहाँ ताड़ी (दारु) भी नसीब नहीं होता भांग, गांजा तो बहुत दूर का बात है! अच्छा है नहीं मिलता साला नशा खोटा होता है ..आपस में ही दुश्मनी करवा देता है.
हाँ जब घर का ज्यादा याद आता है तो बैठकर अपने मछुवारे अपनी अपनी नाव से गीत गुनगुनाने लगते है,. जब चाँद आसमान में सुर्ख़ियों में हो और खाना पक रहा हो या फिर खा चुके हों. तब फुर्सत में बीबी बच्चा लोग याद आता है तो पता चलता है हम भी बंजारे जैसे ही तो हैं. फिर मांझी और किनारे पर हमारे गीतों के बोलों में जो पीड़ा फूटती है वह दिल चीर लेता है.
बाबू आपने सूना कभी ओ गीत- ओ मांझी रे …अपना ठिकाना ! दूर है किनारा मांझी रे.?
मैं बोला – हाँ सूना है लेकिन ये तो किसी फिल्म का है. वह सुलटे हाथ पर उलटा हाथ मारता बोला – वही तो साला! हम कहते हैं न ये तो हम मछुवारों का गीत है लेकिन हिट हुआ बाबू ! बोल ही तो बदले बाकी तो वही है हमारे दिल का दुखड़ा..दिल को चीरने वाला दर्द!
अभी आगे कुछ बात और होती कि ऊपर से आवाज आई- ओ पंडित जी, अरे आवा यार, झणी कख रै जन्दो छुयूँ म ! (हो पंडित जी , अरे आओ यार , जाने कहाँ रह जाते हो गप्पों में)! आवाज ठाकुर रतन असवाल की थी मैं कुछ जवाब देता इस से पहले ही बंगाली सुर्ती मुंह में डालकर बोला – ठीक है बाबू ! फिर मिलेंगे!
किस्सा क्लाइमेक्स तक पहुँचने से पहले ही छूट गया ऐसे में ठाकुर रतन असवाल की यह आवाज इतनी अच्छी नहीं लगी क्योंकि अब इस स्टोरी के लिए दुबारा जो जाना होगा मछुवारों के बीच उनकी रात्रीचर्या का अध्ययन करने!
फोटो साभार- दिनेश कंडवाल सम्पादक देहरादून डिस्कवर 

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