बेटी और मायका….? एक अगाध संस्मरण।

(मनोज इष्टवाल संस्मरण 19 जनवरी 2015)


पुत्र प्राप्ति के लिए माँ बाप जाने कितनी हसरत पाले होते हैं लेकिन जाने क्यूँ हम लोगों ने बेटी के ह्रदय में उतरने की कोशिश नहीं की। आज जिस पोस्ट को मैं लिख रहा हूँ उसमें हो सकता है कि कई बेटियों के आंसू निकल आयें क्योंकि इस पोस्ट में एक एक शब्द उनकी अंतरात्मा की झलक में शामिल होंगे।

हुआ यह कि विगत दिनों मुझे अपने भांजे की मंगनी (शघाई) में पयासु गॉव जाना हुआ जहाँ मेरी ये छोटी बहन कुसुम भी आई हुई थी। सभी बहनों में छोटी और लाडली कुसुम ने मंगनी के बाद मुझसे अनुरोध किया कि “भैजी मीथेंन चौडयूँ लीजै…जख भटिन मी अपणा गौ अर गॉव की सरी सरहद देख साकू” (भाई जी मुझे चौडयूँ गॉव की सबसे उतुंग शिखर ले जा …जहाँ से मैं गॉव की सारी सरहद देख सकूँ.)! यह चौड्यूं हमारे गांव की ऐसी उतुंग शिखर है जहां पयासूगांव और हमारे गांव धारकोट की आपसी सरहद मिलती है।

हमारे गॉव के घर में इसलिए ताला पड़ा इसलिये पड़ा हुआ हैं क्योंकि मेरी धर्मपत्नी कुछ ज्यादा ही संस्कारी है, उसे बस मेरे घर में ताले झूलते ज्यादा पसंद हैं। बहन का गॉव से मोह भला कैसे नकार सकता था। मैंने भी सांय के समय कुसुम व उसके श्रीमान को बोला चलो- चौडयूँ डांडा (चौडयूँ शिखर) चलते हैं। फिर क्या था, आनन -फानन वह तैयारी हुई और हम लगभग दो किमी. पैदल चल उस उतुंग शिखर पर पहुँच ही गए, जहाँ हमारी देवी बालकुंवारी का मंदिर और वर्तमान में घने चीड़ का जंगल सा बन गया है। कुसुम मुझे वहां के बंजर खेतों के बारे में बताती रही कि ये हमारा है, वाला वह ताई जी, ये उन चाचाजी का, ये फलां का वो फलां का…..! मैं एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता ..क्योंकि वह उन गड़े मुर्दों को खोद रही थी जिनके बारे में बात करना भी बेकार है क्योंकि आज चौडयूँ तोक पूरा ग्राम बन पंचायत में शामिल किया गया है। लेकिन उसके मन की पीड़ा उसके शब्दों में झलकती मुझे ज्यादा तकलीफ इसलिए दे रही थी कि मेरे व छोटे भाई के प्रवासी हो जाने के बाद उसने गांव में मर्दों वाला वह हर काम किया जो मुश्किल होता है जैसे हल लगाना, घास की परखुंड़ बनाना, बुखड़ा लगाना, लकडी फाड़ना इत्यादि। वह यह सब काम भी करती व पौड़ी कालेज की पढ़ाई भी पूरी करती। यह सब मेरी आँखों के आगे दृश्य पटल बन दिख रहा था।

इन सब बातों के बाद आखिर हम वहां पहुंचे जहाँ बड़े-बड़े शिलाखंड हैं , और वहां से गॉव व उसकी सरहद काफी निचली सतह पर है। कुसुम बहुत समय तक अपलक सिर्फ और सिर्फ गॉव व उसके हरे भरे खेतों के साथ बंजर हुई जमीन को निहारती रही। मैं भी कैमरा निकालकर फोटो खींचता रहा।

अचानक कुसुम पर नजर पड़ी तो देखा वह अपनी ओड़ी हुई शाल के पोर से अपनी पलकों पर मंडराए आंसू पोंछ रही थी। एक बेटी की पीड़ा मैं समझ सकता था..इसलिए उसे जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया और विषय बदलते हुए कहने लगा- कुसू देख तो वो अपना कुत्ताखाल तोक जहाँ बड़ा सा जंगल उग आया है…।

वह कुछ देर अपने आपको नियंत्रित करती हुई आखिर बोल ही पड़ी – भैजी तुझे कितना पता है ..! तूने कभी हल चलाया होता तो उन खेतों में तो पता होता कि कहाँ पर हल की फल पत्थरों पर टकराती है, कहाँ पर चुपड़ी मिटटी और कहाँ उखड है इसका भी पता होता। कभी घास काटी होती या फिर कभी बोट (लकडियाँ) काटी होती तो पता होता कि कहाँ पर किनगोडा की कंटीली झाड़ियाँ हैं और कहाँ पर तूंगा के….! उसके शब्दों में जमाने की पीड़ा थी। जिसे मैं महसूस कर सकता था।

वह बोली- मैं स्कूल से आकर कैसे पिताजी के लिए तम्बाकू बनाकर ले जाती थी ..कैसे खेत का घास बांधकर पलखुंड (घास का मचान) लगाती थी। कब हल लगाती थी कब कलेवा बनाती थी यह एक-एक बात आज भी मेरे जहन में है। लेकिन दुःख हो रहा है ..अपनी पूरी सरहद का वह बड़ा हिस्सा जिस पर मुझे गर्व था कि हमारी खेती गॉव में सबसे बड़ी है आज वही बंजर में तब्दील है। तुम जैसे भाई जो रहे क्योंकि तुम लोगों ने कभी इसकी परवाह ही कहाँ की कि हमारे बाप-दादा या उनके भी बाप-दादाओं ने इन्हें खेतों में तब्दील करने में कितनी मेहनत की होगी। फिर पल्लू से आंसू पोंछते हुए दूसरी दिशा में मुंह घुमा लिया ताकि मैं उसके उन आंसुओं को न देख सकूँ।

कुछ देर बाद खामोशी के बाद बोली- हाँ…मैं देख रही हूँ कि डूंडवाडी, कैरणी, पैल्वड इत्यादि के खेत हरे हैं और उनमें उन्नत किस्म की फसल लहलहा रही है…! वह मेरी तरफ पलटकर बोली- इन खेतों को आखिर कौन चलता कर रहा है! अब मैं भी ग़मगीन हो गया था आखिर जन्मभूमि जो हुई, मैंने भरे गले से बोला- सुमति (गोकुल की धर्मपत्नी) …? कुसुम ने हाथ जोड़े और जाने कितनी दुआएं देती हुई बोली- हे देवी माँ सुमति के घर परिवार में हमेशा अन्न -धन की बरकत रखना जिसने मेरे पसीने से सींचे हुए खेतों को अभी तक हरा भरा करके रखा है.। फिर कुसुम अपनी अंगुली से गबरौन्यू ,पीपलाखील सहित जाने कितने खेतों को दिखाती हुई बोली – भैजी, वहां मैंने ऐसा किया था यहाँ मैंने ऐसा किया था…? आखिर किस दोष की सजा मिल रही मेरे मायके के खेतों को….! आखिर किसकी नजर लगी मेरे घर परिवार को….! जो इस तरह एक तरफ घर में ताला लटका हुआ है और दूसरी ओर खेत बंजर हो रहे हैं। औरों के खेत तो आज भी हरे भरे हैं. काश कि…..!

वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई कि फिर उसकी सुबकियां तेज हो गई उसके अंतस की पीड़ा को भला मुझसे ज्यादा कौन समझ सकता था। उसके उद्गारों में उसके खून पसीने की वह बास समाई थी जो उसने अपने मायके के दिनों में अपने खेत खलिहान गाय बैल भैंस घर आँगन सबको दिया। मेरी यह बहन ऐसी है कि स्कूल कॉलेज करने के बाद असमय पिताजी के देहांत के बाद एक बेटे की भाँती घर की हर जिम्मेदारी निभाती रही उसने हल तक चलाया..उसने ही क्या उससे बड़ी यशोदा ने भी…।

आज जब उसकी पीड़ा उसके अंतर्मन से फूटती दिखाई दी तो लगा कि माँ बाप बेकार में बेटे के लिए तरसते हैं। बेटा शादी के बाद अपना गृहस्थ सुख देखता है और यह भूल जाता है कि उसके अतीत से जुडी मीठी यादों में उसका क्या क्या कुछ समाया है, जबकि बेटी को बाबुल का घर शादी के बाद ही छोड़ देना पड़ता है लेकिन उसका अपनी जन्मभूमि से अटूट लगाव मरते दम तक बना रहता है।

धन्य है तू मेरी बहन तूने मेरा जमीर जगा दिया लेकिन क्या करूँ अपने वश में आखिर है भी क्या। तेरी पीड़ा के साथ मेरे पितृ देवता और देवी देवता भी मेरी तरह रो दिए होंगे।

अचानक बड़बाड़ी से कपोतरी चाची की आवाज गूंजती उसे सुनाई दी। वह प्रसन्नचित्त हो बोली-भैजी, सुन तो! शायद कपोतरी चाची किसी पर गरम हो रही है।

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