बुरांसी गाँव…..एक पीड़ा जो 39 बर्ष पुरानी टीस बन आज भी ज़िंदा है!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 20 जून 2020)

हिमालय दिग्दर्शन यात्रा-2020! ढाकर शोध यात्रा……!

यह बड़ा अजब सा रास्ता था! मैं अन्य साथियों से इसलिए पिछड़ गया था क्योंकि मुझे बमुश्किल राजखील व बुरांसी जूनियर हाई स्कूल रास्ते पर एक जगह मोबाइल का नेटवर्क प्रोपर मिला था! टीम मेम्बर अब तक बुरांसी के रास्ते पर दूर निकल चुके थे! उनकी सीटियाँ शायद मेरी लोकेशन जानने की कोशिश कर रही थी कि मैं कहाँ हूँ! सुरक्षित हूँ भी कि नहीं..! मैं सीटियों का जबाब सीटियों में दे रहा था कि आल इज वेल..!

बुरांसी जूनियर हाई स्कूल से थोड़ा नीचे चलने पर मुझे हाल ही में यहाँ पहुंची कच्ची सडक दिखाई दी, जहाँ नेपाली मजदूर एक गाडी से बिस्तर उतार रहे थे! मैं समझ गया कि यहीं कहीं से नीचे उतरने का रास्ता है! एक मकान दिखा तो वहां नितिन काला अपने बैग में सामान निकालकर फिर ठूंस रहे थे! मुझे देखकर प्रसन्नचित्त हो बोले- पहुँच गए आप..! आपका व दिनेश कंडवाल जी का रुक्सेक यहीं पड़ा है! आप आवश्यक ही सामान साथ लेकर चले! क्योंकि कल यहीं से आपका बैग इसी गाड़ी से गोल्डन महाशीर कैंप पहुँच जाएगा!

मैंने अपनी एनर्जी ड्रिंक बोतल, पेस्ट व नाईट ड्रेस रखी व नीचे उतरने लगा! अरे बाप रे….! यह रास्ता है या ….! नितिन हंसा बोला- इष्टवाल जी, पूरे नीचे पहुँचने तक ऐसा ही है! मतलब बुरांसी गाँव तक! मैंने प्रश्न किया कि क्या यह बुरांसी गाँव नहीं है? जबाब नितिन ने नहीं बल्कि अपने आँगन में कुर्सी डाले बैठे सज्जन ने दिया! बोले- नहीं अभी आप राजखील में हैं! यह मकान जिसमें आपका सामान रखा हुआ है, यह राजखील में है!

मुझे आश्चर्य हुआ कि राजखील गाँव तो यहाँ से लगभग दो-ढाई किमी. ऊपर रह गया! खैर जब हम नीचे उतरने लगे तो रास्ता कहीं पर एक फुट चौड़ा तो कहीं पर 10 इंच…! मुझे लग गया था कि यह गाँव भी पलायन की जद में ही है! क्योंकि यहाँ से मकान तो दिख रहे थे लेकिन उनमें कोई चहलकदमी नहीं थी! जिधर नजर दौड़ाओ झाड़ के रूप में जंगल उग आये दिखाई देते हैं! यहाँ भी बंजर ही बंजर! चेहरे पर मुस्कान रेंग गयी क्योंकि अभी तक हमारे द्वारा जितनी लम्बी यात्रा की गयी सब जगह गाँवों में दिल का सूना साज ही दिखाई दिया! मानों पेड़ पौधों और झाड़-जंकाड़ के बीच फैले संदर बंजर खेत हमें देखकर गाना गा रहे हों कि- “ दिल का सूना साज, तराना ढूंढेगा, मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा!” क्योंकि यहाँ अब लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत “ न दौड़ न दौड़ तै उंदरी का बाटा, उंदरी का बाटा! उंदरी कु सुख द्वी चार दिनाकु, उकाळी कु सुख सदानि कु सुख लाटा” की कोई वैल्यू नहीं रह गयी थी! हाँ…देश विदेशों में फ़ैली कोरोना महामारी अगर बिकराल रूप ले लेगी तो लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के यहीं बोल हंसते ज्युंदाळ जैसे हो जायेंगे क्योंकि तब पलायनवादी समाज के पास इसके अलावा और कोई आप्शन बचता भी नहीं है!

फिलहाल बिलकुल डाउन स्लोव से गुरजते हुए लगभग आधा घंटा बाद हम नीचे गाँव तक पहुंचे! यहाँ से थोड़ा रास्ता साफ़ नजर आया लेकिन घरों में ताले व आंगनों में उगी झाड फूंस ने बता दिया था कि यहाँ पलायन ने कितनी अति मचाई है! नितिन एक निमदारीदार मकान की फोटो खींचने लगा तो नीचे मुड़ते एक अधेड़ उम्र की महिला दिखाई दी! वह घर के बिलकुल बगल में बोई एक क्यारी में अपनी हरी सब्जी की पौध को शायद निहारने आई थी! ग्रामीण अंदाज में मैंने उन्हें नमस्कार किया और पूछा कि हमारे सहपाठी लोग कहाँ रुके होंगे! बहुत माधुर्य स्वर में बोली- बाबा या ओ ताळ जू आखिरी मकान दिखेणु च! (बेटे वो नीचे जो आखिरी मकान दिख रहा है!) फिर बोली- अभी तुम मल्ला बुरांसी म छवा उ तल्ला बुरांसी (अभी तुम ऊपर वाली बुरांसी में हो वह नीचे वाली बुरांसी है!)

अर्जुन देव डोबरियाल व उनकी श्रीमती ! फोटो -हिमांशु बिष्ट

यहाँ से बमुश्किल 300 मीटर दूरी पर वह मकान था लेकिन थकावट से इतने बुरे हाल थे कि मुझे वह तीन किमी. से भी अधिक लग रहा था!यह आश्चर्यजनक था कि हम लगभग 15-16 मकानों को लांघ चुके थे लेकिन सिर्फ एक ही महिला व एक ही पुरुष अभी तक हमें नजर आया था! मुझे लगा सब वहीँ गए होंगे जैसे अक्सर ग्रामीण परम्पराएं होती हैं!

जब हम उस शानदार जंगलाधार मकान तक पहुंचे तो पाया कुछ परिचित चेहरे हमें ही देख रहे हैं! फिर ध्यान आया कि ये तो गोल्डन महाशीर कैंप के ही कर्त्ता-धरता हैं! एक आध चेहरे के रूप में यह चिन्हित हो गया कि ये बुरांसी गाँव के बासिंदे हैं! यह घर अपने बिस्तार के साथ बड़े आँगन के रूप में फैलाव लिए हुए था! इस मकान में वर्तमान में अर्जुन देव डोबरियाल व उनकी धर्मपत्नी रहती थी! बच्चे कहीं बाहर पढ़ रहे थे! बाद में पता चला कि इस मकान में रहने वाले पूर्व में पांच भाइयों का परिवार था! परिवार विस्तार के साथ-साथ व साधन सम्पन्नता के साथ सब आपस में भाई बाँट के साथ बंटते गए! अलग घर बने भी लेकिन सभी लगभग पलायन कर चुके हैं! सिर्फ उनके एक बड़े भाई अध्यापक विशेश्वर दत्त डोबरियाल व उनकी अर्धांगनी अपने नए बने आवास में अपना बुढापा काट रहे हैं जबकि उनके बच्चे बाहर महानगरों में अपने परिवार सहित रह रहे हैं!

यह गाँव कभी क्या….! अभी भी लगता है कि साधन-सम्पन्न रहा होगा लेकिन पलायन ने इस गाँव की ऐसी कमर तोड़ी कि लगभग देश दर्जन नीचे व इतने ही ऊपर गाँव के परिवारों अर्थात 30-35 परिवारों के इस गाँव में बमुश्किल दर्जन भर लोग ही रह रहे हैं! आज शाम हमें दुगड्डा ऐता के चंद्रेश योगी व विवेक नेगी ने भी बुरांसी में ज्वाइन कर लिया!

आज शाम वही ग्रामीण स्तर पर स्वागत सत्कार! मालू से लबालब भरे जंगल हैं लेकिन मैन पॉवर न होने के कारण शहरी चमकीले पत्तलों में खाना खाया गया! रोटियाँ बनाने वाले भी पुरुष व घर की गृहणी थी! आज श्रीमती कुसुम बहुगुणा को बुखार आ गया था, शायद लगातार लम्बी पैदल यात्रा की थकान का बुखार था! हम इस बड़े मकान के एक हाल में शानदार गोबर माटी से पुते कमरे में सोये! अधिवक्ता अमित सजवान के साथ कुछ नवयुवक इस घर के बगल में ही बने घर में सोने गए जबकि मिर्ची बाबा व मिर्ची माता (मुकेश बहुगुणा/श्रीमती कुसुम बहुगुणा) के लिए अलग कमरे में चारपाई लगी थी! रात एक कुत्ते के पिल्ले ने जोकि भोटिया नस्ल का काला पिल्ला था! पहले प्रणेश के एयरफोन को काटा बाद में आकर दिनेश कंडवाल जी की बगल में लेटकर सो गया!

एक पीड़ा जो 39 बर्ष पुरानी टीस बन आज भी ज़िंदा है!  

द्वारीखाल-बांघाट मोटर मार्ग पर अपनी व्यथा सुनाते विशेश्वर प्रसाद डोबरियाल गुरूजी!

नाम विशेश्वर प्रसाद डोबरियाल उम्र 84 बर्ष, पेशा- सेवानिवृत्त अध्यापक! पैरों में किसी युवा से कम चपलता नहीं! वाणी में ज्ञान पुंज व दिल-दिमाग में सिर्फ एक ही रट- “द्वारीखाल बांघाट मोटर मार्ग”!

39 बर्ष पूर्व 1981 में इन्होने तत्कालीन सांसद हिमवती नन्दन बहुगुणा से डाडामंडी-द्वारीखाल-बांघाट सड़क मार्ग की संस्तुति करवाई थी! जिस पर तत्काल कार्यवाही हुई व 1983-1984 तक डाडामंडी से द्वारीखाल तक 15 किमी. सडक बन भी गयी लेकिन बहुगुणा जी की मृत्यु के बाद बाकी की सड़क अर्थात द्वारीखाल-बांघाट मोटरमार्ग कागजों में ही बनकर तैयार हो गयी! भला विशेश्वर प्रसाद डोबरियाल जी कहाँ घुटने टेकने वाले थे उन्होंने लगातार पत्राचार किया! 2013 में सतपाल महाराज से भी इस सडक की गुहार लगाईं! इन्स्पेक्शन भी हुआ लेकिन आजतक   

यह सडक लोक निर्माण विभाग के किसी कार्यालय में धूल फांक रही है!

उनके द्वारा आरटीआई के माध्यम से मांगी गयी सूचनाओं का जबाब जिस गोल-मटोल अंदाज में पेश किया गया है वह तमाम सरकारी व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाता है! काश…इनके क्षेत्रवासी कभी एकजुट होकर इनके समर्थन में खड़े होते तो आज द्वारीखाल बांघाट मार्ग निर्माण से कोटद्वार पौड़ी की दूरी न सिर्फ 20 किमी. घटती बल्कि बरसात व आपातकाल में यह सहायक सडक के रूप यात्रामार्ग को सुचारू बनाए रखती!

विशेश्वर प्रसाद डोबरियाल जी को शायद हमसे ज्यादा आशा थी इसलिए पूरा पत्राचार का झोला टाँगे हमारे पास पहुँच गए! ठाकुर रतन असवाल ने उन्हें यह कहकर मेरी तरफ बढ़ा दिया कि ये सतपाल महाराज के ख़ास आदमी हैं, यह इस मामले को समझ लें तो ये मान लीजिये कि सड़क बन गयी! ऐसी हालत में एक बुजुर्ग को सुनना मेरे लिए किसी अमृत से कम नहीं था! उम्मीद करता हूँ कि उनकी यह मुराद उनके जीते जी सरकार अवश्य पूरी करेगी! प्रश्न यह भी है कि गाँव से लगभग एक किमी ऊपर महकमे ने दूसरी सडक ला दी है जो कुल्हाड़ बैंड से होकर राजखील से आगे बढती हुई पहुंची है!

फोटो साभार- हिमांशु बिष्ट!

क्रमशः…..!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *