फिर आश्वासनों में पक्का होता बौंसाल पुल'।
फिर आश्वासनों में पक्का होता बौंसाल पुल।
(अरुण कुकसाल की कलम से)
‘कल्यो कंडी, बकम डंडी, आ ग्या मंगी नंग्या-नगीं’ नयार नदी पार करते हुए ससुराल से वापस आ रहे व्यक्ति की ‘कल्यो कंडी’ के साथ-साथ सारी लट्टी-पट्टी बहने की घटना के बाद यह तुकबंदी हंंसने-हंसाने के लिए 80 के दशक तक पूरे असवालस्यूं में खूब बोली जाती थी.
कोटद्वार-पौड़ी ‘हाई वे’ पर सतपुली से 7 किमी. आगे है बौंसाल. वर्तमान में बौंसाल के पास पश्चिमी नयार नदी के ऊपर बने ये 2 पुल(नीचे पैदल ऊपर मोटर पुल) ‘हाई वे’ पर स्थित बौंसाल से भेटी-मुंडनेश्वर-कल्जीखाल-पौड़ी और उसकी ब्रांच रोड़ सरासू, मिरचौड़ा, भट्टगांव, कांड, नैल, नाव-सीरों की ओर जाने के माध्यम हैं. पूर्व मुख्यमंत्री खंडूरी जी की ससुराल नैल गांव को जाने वाली लोकप्रिय सड़क ‘साजन चले ससुराल’ पर भी इसी पुल से गुजरने के बाद जाया जाता है. भले ही साजन का अभी तक ससुराल आना संभव नहीं हो पाया है.
बताते चलें कि पैदल पुल का निर्माण बिना कोई विशेष सरकारी मदद एवं मार्गदर्शन लिए स्थानीय जन-सहभागिता के बल पर सन् 1950 में किया गया. तब असवालस्यूं इलाके के तमाम गांव के मर्द महीनों तक रोज सुबह 5 बजे इस स्थल पर आकर पुल निर्माण के कार्य में जुट जाते थे. नजदीकी गांव मरगांव, डुंक, पीपला, सरासू से लेकर किनगोड़ी, सुरालगांव, जैथलगांव, उरमोला, कांड, नाव, चामी, सीरों, लयड़, भेटी गांव तक की महिलायें पुल निर्माण में लगे अपने-अपने गांव के लोगों के लिए सुबह का कल्यो लेकर ठीक 8 बजे यहां पहुंच जाती थी. इस पैदल पुल बनने से असवालस्यूं में एक नये युग की शुरुवात हुयी. खुशी इस बात की कि पुल बनने से नयार पार करते हुए लोगों के बहने की घटनाओं से छुटकारा मिला. हां उनको जरूर नुकसान हुआ जो व्यावसायिक तौर पर नदी पार कराने के प्रति व्यक्ति चव्वन्नी कमा लेते थे.
सन् 1950 से 1982 तक यह पुल रोज सैंकडों पैदल आने-जाने वालों की चहल-कदमी से गुंजायमान रहता था. लिहाजा पूरे मान-सम्मान के साथ देख-रेख और मरम्मत का यह हकदार था. 32 साल बाद सन् 1982 में इस पैदल पुल के ऊपर नये तख्ते वाले मोटर पुल पर भागती गाड़ियों की गड़गडाहट शुरू हुयी. उसके बाद पैदल पुल पर लोगों की पद्चाप बीते दिनों की बात हो गयी थी. आने-जाने वालों ने इस पैदल पुल की तरफ देखना भी मुनासिब नहीं समझा. आज यहां से गुजरते हुए केवल इस पैदल पुल की उपस्थिति भर दिखाई देती है.
आज यह पैदल पुल बाहर से कमजोर जरूर दिखता है पर अंदर की मजबूती उसकी बरकरार है. दूसरी ओर पैदल पुल के 32 साल बना मोटर पुल अपने बनने के 10 साल बाद ही कांपने और हांपने लगा था. वर्षों से मोटर पुल के जगह-जगह पर टूटे तख्तों से आती गड़गडाहट इसे रेल पुल का आभास देती है. बच्चों से लेकर सयानों के लिए यह रोमांच है, पर सयाने इस गड़गडाहट में छिपे खतरे से भी अंजान नहीं है. टूटे तख्ते जब ज्यादा ही खतरनाक दिखते हैं तब उनको बदल कर इस पुल पर कामचलाऊ मरमपट्टी कर दी जाती है. मंञी से लेकर मुख्यमंञियों के राजदरबार में इसको पक्का पुल बनाने की गुहार जनता लगाती रही है. और आश्वासन एवं त्वरित कार्यवाही की पुड़िया लिए छुटभय्ये नेता कई दिनों तक इलाके में ‘लो जी मैनें करा दिया’ के जुमले इतराकर कहते हुए डोलते रहते हैं. हर साल कुछ दिनों बाद लोग भी भूल जाते हैं और सरकार भी आदतन बौगा (नजरअंदाज) मार देती है.
आजकल फिर इस पुल के पक्का होने की बातें जोरों पर है। हे सरकार, सैकड़ों गांवों को आवागमन की सुविधा देने वाले इस पुल की जल्दी सुध लो और इसको पक्का करो. यह जान लो आजकल तो इस बौंसाल पुल से ‘खतरों के खिलाड़ी’ ही आ-जा सकते हैं। आमजन तो डरते हुए सांस रोक कर ही पार हो पाता है. फिर इस पुल पर किसी हादसे ऱूपी बलि के बाद ‘चेते तो क्या चेते’।