फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय य लाइफ (पार्ट-1)

मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफैयर ऑफ़ माय लाइफ)!
(अपनी जिंदगी के उन सुनहरे पन्नों की बेबाक कहानी जिसे कहने लिखने के लिए पत्थर का जिगर चाहिए! लेकिन वर्तमान समाज के लिए “प्यार” शब्द नजीर बने इसलिए उन यादों को आखरों में ढालकर एक लघु उपन्यास आपके समक्ष ला रहा हूँ जिसकी कतरने आपके अतीत को भी अवश्य झंझोड़ डालेंगी ऐसा मेरा विश्वास है! – मनोज इष्टवाल)

तब हलकी हलकी मूंछे उगनी शुरू हो गयी थी. दुबली पतली काया …!रंग काला कहूँ या सांवला ..!चलो जो भी उचित समझो, मान लेते हैं. गजब का फुर्तीला.(चीते सी फुर्ती कह सकते हैं क्योंकि मुझे मेरे दोस्त ब्रूसली सा फुर्तीला मानते थे.गरीब घर में जन्म एक फौजी का बेटा ..लेकिन सपने आसमान की तरह ऊँचे !  एकदम निडर..!
तब मैं बारहवीं कक्षा में पढता था सभी गुरुजन मुझे एक्स्ट्रा ब्रिलियंट कहा करते थे.स्पोर्टमैन भी नंबर एक का था! कुल मिलाकर अपनी तारीफ़ में यही कह सकता हूँ कि सर्व गुण सम्पन्न (कुछ ज्यादा हो गया शायद)..!  लेकिन इन्हीं गुणों की खान देखकर प्रधानाचार्य जी ने मुझे स्वयम जनरल मॉनिटर के लिए नोमिनेट किया और एक सुर में सबका समर्थन भी हासिल हुआ!  मैं पहला भाग्यशाली विद्यार्थी रहा इंटर कॉलेज जखेटी पौड़ी गढ़वाल का जिसका कोई चुनाव नहीं हुआ. न ही छात्रों ने मेरा नॉमिनेशन किया. पहली बार और शायद अंतिम बार प्रधानाचार्य जी ने मुझे नोमिनेट किया था!
गहराही से जाऊँगा तो कहानी उलझ जायेगी.सच पूछिए तो हाई स्कूल तक मुझे यह भी पता नहीं था कि लड़की और लड़के में अंतर क्या होता है, लेकिन ग्याहरवीं कक्षा में पहुंचते ही प्रेम रोग कैसे लगा उसका दिलचस्प उदाहरण है.
मेरे मामाजी का लड़का प्रकाश  जो अब फ़ौज में है. वह भी पढने हमारे ही घर आ गया था.इतना हंसमुख और बातूनी कि अगर सन्डे को अपने गॉव लौट जाए तो गॉव की सभी भावियाँ पूछने लगती थी कि लज्जू नि दिखेणु. (लज्जू निक नाम) हम भाई कम और दोस्त ज्यादा थे. मेरे पास जहाँ बीडी सिगरेट और तम्बाकू सुपारी का कोई ऐब नहीं था. इन महाराज ने जितना बेवकूफ मेरा बनाया उतना किसी ने नहीं बनाया होगा. रजाई के अंदर मुंह डालकर ये और गोकुल बारी-बारी से बीडी का सुट्टा मारते थे और मै कहता था यार कुछ जलने की बदबू आ रही है ! ये कहते थे तू अपने नाक चेक करवा. खैनी के डिब्बे कहाँ-कहाँ रखते थे बता नहीं सकता.जाने रास्ते में कब लोगों की पी हुई बीडी के तुडडे उठाकर रखते थे. मैंने लाख कोशिश की लेकिन इन्हें पकड नहीं सका…!
यह प्रसंग इसी से जुडा है.तब मेरी ख्याति अपने इलाके में क्रिकेट में बहुत हो गयी थी एक पट्टी से दूसरी पट्टी और शहरों तक मुझे क्रिकेट का बुलावा आना शुरू हो गया था. मेरे ताऊजी तो मुझे धर्मा जोगी के नाम से पुकारा करते थे. स्कूल से बच्चे घर नहीं पहुँच पाते थे तब तक में शान्यकाल  का नास्ता कर खेतों में स्टंप तक गाड देता था. एक दौर ऐसा भी आया कि मेरी गेंदों से भयातुर हमारे गॉव के कई लड़के मैच खेलने के लिए मुझे टीम में शामिल करने से डरते थे.
खैर..क्रिकेट के इसी जूनून ने मुझे प्यार का पहला पाठ पढ़ाया . प्रकाश के अनुरोध पर मैंने उनकी पट्टी में भी उनके गॉव की टीम से मैच खेलने शुरू कर दिए.तब विपिन  उनके कप्तान हुआ करते थे. एक दिन किसी गॉव के मैच में जनता इतनी भारी संख्या में मैच देखने पहुंची थी कि क्या बताऊँ. मेरी हर गेंद डालते ही तालियाँ शुरू हो जाती!मैंने 5 ओवर में 18 विकेट ले लिए तब जाकर पता लगा कि फलां गॉव की आई टीम ने अपनी साख बचाने के लिए अब तक 22 लोगों को मैच खिला दिया था और 23-24 नम्बर बैटिंग के लिए क्रीज  पर थे. अचानक पांचवे ओवर की चौथी गेंद फैंकते हुए मुझे ख़याल आया कि हर ओवर में मैं 4 विकेट निकाल रहा हूँ. अब तक तो टीम आउट होनी चाहिए .जब गिनती हुयी तो झगडा होने की जगह सब हंसकर लोट-पोट हो गए. क्योंकि स्कोर बोर्ड के अनुसार 8 रन पर 22 आउट हो चुके थे.खैर यह मैच हम यूँही जीत गए..
दूसरी टीम से शुरू हुए मैच में पहले बल्लेबाजी आई और सलामी जोड़ी के रूप में मैं स्ट्राइक पर और महेंद्र  दूसरे छोर पर थे. मैंने पहली ही गेंद पर छक्का जड़ा. छक्का इतना लम्बा था कि गॉव के मकानों के बगल में केले के बागीचे में गेंद जा गिरी.
तब गेंद एक आध ही हुआ करती थी. ऊपर से उसी दौर में बकरा मैच की शुरुआत हुई थी. पहले विजेता टीम को शील्ड या कप मिलते थे..लेकिन इसी बर्ष (1984)  विजेता टीम को बकरा जीत के तौर पर दिया जाता था.गेंद ढूँढने सभी गए लेकिन गेंद नहीं मिली जिससे खेल में बिलम्ब होना शुरू हो गया था. मैं भी बल्ला उठाकर गेंद ढूँढने पहुँच गया.मेरे आईडिया से गेंद मिल गयी. तब तक मुझे  बगल से आवाज दी !  देखते हैं अगला छक्का किसी की गोद में न गिरे. मैंने पलटकर देखा तो देखता ही रह गया . छज्जे में बैठी लड़कियों के झुण्ड के बीच मंदाकिनी जैसी कजरारी आँखों वाली उस लड़की ने मुझे इस तरह आकर्षित किया कि मैं उसे अप्सरा समझने लगा.
पिच में पहुंचा और यही टार्गेट देखने लगा कि अगली कौन सी ऐसी बोल मिले जिसे में उसकी गोद तक पहुंचा दूँ. इसी अधेडबन में मैंने दो बॉल बर्बाद कर दी थी . हर बॉल पर ताली पड़ती और शॉट न खेलने के बाद सबकी यही प्रक्रिया निकलती..ओह नो….
बस चौथी बाल मिली और मैंने पूरे जोर से आँखें बंद कर शॉट खेला.कमर के उछाल की बाल बल्ले के बीचों बीच लगी और सनसनाती हुई उसकी छज्जे से लटकी टांगों पर टकराती टकराती बची. वह इतनी जोर से चीखी- हे माँ जी तैंन मारे छयो मी..(हे माँ इसने मार दिया था मुझे)और झट से अपने पैर हटा लिए. उसकी सहेलियां हंसने लगी और मेरा मुंह शर्म से लाल हो गया ! उस जमाने में यह दौलत सिर्फ लड़कियों का ही आभूषण नहीं हुआ करता था बल्कि लड़के भी शरमाया करते थे.
अब ये मत कहना कि यह तो अति है मैंने अगली बाल पर फिर छक्का जड़ा जो उसके सिर के ऊपर बने आले में लगा और बाल आले में ही फंस गयी.
बस यह नैन-मटका..शुरू हुआ तो शुरू हो ही गया.अब भूख प्यास बंद ..एकांतवास प्यारा..किताबों में दिलचस्पी कम..हर वक्त उसकी सूरत ही आँखों में थी
(क्रमशः)

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