प्रीतम भरतवाण…एक ऐसा शख्स जो इंसान को देवता बना दे! डांडी-कांठी क्लब ने मनाया जागर संरक्षण दिवस!

प्रीतम भरतवाण…एक ऐसा शख्स जो इंसान को देवता बना दे! डांडी-कांठी क्लब ने मनाया जागर संरक्षण दिवस!
(मनोज इष्टवाल)
भीड़ का वह चेहरा जिसने उस विधा को उस काल में अपनाया जब उस विधा के उसके अपने ही उस से मुंह मोड़कर दूर भाग रहे थे! ढोल के बोल सुनने के लिए एक वक्त ऐसा भी आया जब कान तरसने लगे लेकिन इसके गजाबल और हाथ की थाप ने उस काल के भक्षण से पहले ही इसे कालजयी बना दिया! फिर क्या टिहरी गढ़वाल, क्या गढ़वाल, क्या उत्तराखंड और क्या भारतबर्ष…! विश्व भर में इसके नाद-निनाद का डंका बजना शुरू हो गया जैसे ब्रह्म के आवाहन पर यह सब हुआ हो! और जब इसके उत्कंठ से शब्द रुपी गंगा में जागर बहे तो साक्षात शिव के भैरवी अवतार, माँ पार्वती के सोलह श्रृंगार और नव दुर्गाओं के प्रकट होने में जरा भी देर नहीं लगी! आपपुत्र (ढोल) को कन्दोटी (आवजी पुत्र) में टाँगे जब इन्होने गजाबल का राल पूड़े पर प्रहार किया और बांये हाथ की थाप से पार्वती पूड़े को सहलाया माँ राजराजेश्वरी सुरकंडा,चन्द्र्बंदनी, ज्वाल्पा, काली, बालकुंवारी अष्ट भैरव, नौ वीर नारसिंग का आवाहन किया तब राजधानी के टाउन हाल में कई मनुष्य देवता बन अवतरित हो गए! भला माँ शारदा के इस पुत्र प्रीतम भरतवाण को कौन नहीं जानता होगा!
प्रीतम भरतवाण का जन्मदिन भी ऐन उसी दिन हुआ जिस दिन देश के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी पैदा हुए विगत 17 जुलाई को प्रीतम भरतवाण पूरे 48 बर्ष के हो गए ! डांडी-कांठी क्लब देहरादून द्वारा उनके इस जन्मदिवस को “जागर संरक्षण दिवस” का नाम देकर जहाँ एक ओर प्रीतम भरतवाण के इस कार्य को लोक संस्कृति के बहुत ही बिशेष पर्व के रूप में जागर दिवस का नाम दिया वहीँ दूसरी ओर क्लब द्वारा उनके जन्म दिवस पर “राज्य वाद्य यंत्र सम्मान-2018” भी शुरू किया गया जिसमें प्रदेश भर के जाने माने कलावन्तों को सम्मानित किया गया!
डांडी-कांठी क्लब ने अब तक जो भी कार्य किये हों उसके प्रोफाइल में उन्होंने अब ऐसे दो हीरे जड़ दिए जिनकी चमक और घमक सिर्फ कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने ही नहीं देखी बल्कि सम्पूर्ण समाज इनका ऋणी भी रहेगा!
(ढोल के साथ सुंदली देवी)
टिहरी गढ़वाल के आमपाटा की सुन्दली देवी व माँ सुरकंडा देवी के नीचे बसे हटवाल गाँव टिहरी गढ़वाल की उषा देवी ऐसे नगीने हुए जिन्होंने अपने पुरुष समाज के कन्धों से उतरे ढोल की कन्दोटी काँधे पर डालकर उसकी डोरिकाओं की कसौणी (मूंदडी) कसकर औजी बाजगी समाज को ऐसी चुनौती दे डाली की सब हतप्रभ रह गए! जहाँ सुन्द्ली देवी ने अपने पति की मृत्युं के बाद ढोल काँधे पर डाला वहीँ उषा देवी ने इसे अपने पति की प्रतिष्ठा के रूप में बजाना शुरू किया ! भले ही दोनों ने इसे परिवार की आय का जरिया बनाया हो लेकिन आज सभी उत्तराखंडी समाज बिना किसी जाति-भेद के इन कलावंती नारियों को नमन करता दिखाई देता है!
(आशा देवी)
उषा देवी ने जब काँधे पर ढोल डालकार जागर गानी शुरू की तो सारा हाल तालियों से गूंजता रहा और इनाम की बौछार भी होती रही! ऐसे में यह समझ नहीं आया कि क्यों हमारे समाज द्वारा इस समाज को उपेक्षित किया गया जिस से यह समाज छिटककर दूर जा पहुंचा!
यहाँ अगर प्रीतम भरतवाण के योगदान की बात की जाय तो ज्यादा ठीक रहेगा क्योंकि वे योंहीं विश्व प्रसिद्ध जागर सम्राट नहीं कहलाने लगे! उसके पीछे खड़ा उनकी ढोल के प्रति अकाट्य श्रद्धा विश्वास और विधा ने उन्हें समाज में मान मनोबल यश कीर्ति सभी तो दी ! शायद इसलिए कि उन्होंने अपने पुरखों से चली आ रही पारम्परिक धरोहर को आगे बढाने में जरा भी हिचक नहीं की और पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी ढोल को बुलंदियों तक पहुंचाने की जिद रखी! वे पहले ऐसे बिरले कलाकार हैं जिन्होंने अपने समाज के टूटते बिखरते आशियानों में फिर ढोल के बोल घोलने शुरू कर दिए! हाल ही में संस्कृति विभाग के सौजन्य से उन्होंने पूरे प्रदेश भर के 1500 ढोल वादकों को हरिद्वार में एक साथ एक मंच देकर एक अभूतपूर्व योगदान दिया जिस से इस समाज के लोगों की अपने पेशे में रूचि बढ़ी और तो और अब हर पहाड़ी समाज का वाशिंदा ढोल के बिना अपने कार्य पूर्ण होना नहीं मानता! प्रीतम ने सचमुच पुनः अपने समाज को ज़िंदा ही नहीं किया बल्कि पहाड़ी समाज के हर जाति वर्ग के लोगों में ढोल की अहमियत का भी ब्यापक प्रचार प्रसार किया!
यह मेरी उम्र में पहला इत्तेफाक दिखने को मिला जब लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने किसी सार्वजनिक मंच में दुसरे के मंच से कोई गीत गाकर सुनाया हो! मैं समझता हूँ यह प्रीतम भरतवाण की कमाई का ही वह अंश है जिस मंच को साझा करने के लिए इस कालजयी रचनाकार ने जरा भी देर नहीं लगाईं !
हास्यकलाकार घनानन्द को हर वक्त हंसाते हुए ही देखा है लेकिन उनकी बेहद गंभीरता से कही गयी बात उस कारीगर के लिए सबसे बड़ा इनाम रही जिसने काष्ठ शिल्प में उत्तराखंड को जीवित करने में जरा भी देरी नहीं की! काष्ठ शिल्पी दिनेश लाल की काष्ठ कला का बेजोड़ नमूना यहाँ देखने को मिला! हमेशा की तरह ढोल सागर ज्ञाता उत्तम दास ने ढोलदमाऊ पर अपने हाथ आजमाए लेकिन जब उन्होंने महामृत्युंजय शिब स्त्रोत और शिब तांडव को गाकर ढोल में सुनाया तो सब हैरत में पड़ गए! उनकी भाव भंगिमा देखने लायक थी!
कांग्रेस के पूर्व मंत्री व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने भी कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हुए कहा कि जब प्रीतम पांच बीसी पार कर जायेंगे तब भी उनके ढोल से गूंजे शब्द बंद हाल में नहीं बल्कि बिशाल मैदान में गूंजेगे! उन्होंने हंसी ठिठोली में कहा कि क्योंकि प्रीतम तब उम्र दराज हो जायेंगे और मैं किशोर किशोर ही रहूँगा!
प्रीतम भरतवाण का मंच संचालन कर रहे गणेश खुगशाल गणी भला कहाँ रुकने वाले थे उन्होंने प्रीतम के आगे बाध्यता रख दी कि वे भी गायें! यूँ तो जाने कितने कलाकारों ने आकर मंच पर प्रस्तुतियां दी लेकिन कल्पना चौहान ने लोकगीत गाडू गुलबंद गुलबंद को नगीना सुनाकर लोकगीतों की पैरवी की ! प्रीतम भरतवाण ने ढोल काँधे पर डालकर जैसे ही देवी-देवताओं का आवाहन किया कई महिलाओं पर देवियाँ अवतरित हो गयी पुरुष भैरवी जमाण के साथ नाचने लगे! यह बेहद अलग तरह का अनुभव था जिसमें बिना किसी अनुष्ठान के ही जागर में इतनी शक्ति हो कि इंसान देवता बन जाय तो यकीनन वह व्यक्ति जागर सम्राट ही कहा जाएगा और उसके जन्मदिवस को जागर संरक्षण दिवस के रूप में डांडी-कांठी क्लब द्वारा मनाया जाना लाजिमी भी है!

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