प्रवासी पहाड़ियों को सोचने को मजबूर कर गया "चल अब लौट चले"..!
प्रवासी पहाड़ियों को सोचने को मजबूर कर गया “चल अब लौट चले”..!
(मनोज इष्टवाल)
सचमुच नाटक हमेशा से ही भाव अभिव्यक्ति के वे स्रोत रहे हैं जिन्होंने कई बार जन मानस के अन्तस तक पहुंचकर उनके मन की आह और थाह में ऐसी उथल पुथल मचाई कि कई हृदय निर्जीव से सजीव हो गए तो कई ने मझधार में अटकी नाव की तरह अपने फैसलों को पार लगाने की हिम्मत जुताई!
नाटकों के 100 बर्ष पूरे होने पर अभिव्यक्ति कार्यशाला विगत कई महीनों से उत्तराखंड के कई जिलों में अपने नाटकों का मंचन किया गया. उसी श्रृंखला में प्रज्ञा आर्ट दिल्ली ने अभिव्यक्ति कार्यशाला के तत्वावधान में देहरादून के टाउन हाल में गढ़-कुमाऊं से हुए अंधाधुंध पलायन पर “चल अब लौट चलें” नामक नाट्य प्रस्तुति जो जो तालियाँ बटोरी वह नाटक की सफलता को दर्शा गयी!
इस नाटक की पटकथा, परिकल्पना व निर्देशन लक्ष्मी रावत (श्रीराम सेंटर फॉर परफोर्मिंग आर्ट व आईजीएनसीए में कार्यरत) द्वारा किया गया ! नाट्य प्रस्तुती के लिए यूँ तो हर पात्र ने अपने अपने अभिनय के साथ अपने डायलॉग के हिसाब से बेहतर देने की कोशिश की लेकिन शराबी नरी (राहुल राघव) ने अपने अभिनय का लोहा मनवाते हुए नाटक के माध्यम से जितने भी प्रश्न उछाले यकीनन उनका जवाब हर प्रवासी ढूंढ रहा होगा!
नरी नामक पात्र अपनी जिन्दगी में बेशुमार दौलत पाने के बाद भी जिस तरह शराब के सहारे अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने की कोशिश करता है जो उसे इसी पहाड़ी समाज ने दी और जब पुन: बिलख-बिलख कर अपनी विरासत में लौटने की गुजारिश करता है तब सचमुच आंसू छलक पड़ते हैं! एक बाप द्वारा जो स्वप्न बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए देखे गए उन्हें गाँव से दिल्ली लेजाकर अंग्रेजियत का पाठ पढ़ाया उसी ने उसे इतना विचलित कर दिया कि वह गाँव लौटने को छटपटाता रहता है लेकिन उसके साथ परिवार का कोई भी सदस्य खडा नहीं होता! वहीँ उसका बूढ़ा बाप अपने घर खेत के विरह में शहर के तंग कमरे में बंद पड़ा पगला जाता है सिर्फ इस दिव्य स्वप्न के सहारे वह अपनी यादों को ज़िंदा रखने की कोशिश करता है कि वह आज भी अपने गाँव में ही है, वह अपने आस-पास उन ताने बानों को जोड़ने की कोशिश करता है जो वह विरासत में अपने गाँव छोड़ आया था. जैसे बारिश आ रही है, मौसम ख़राब है, बिजली चमक गयी, लकडियाँ सुखाने डाली थी उन्हें संभाल दो इत्यादि!
दादा (वासु सिंह) व पोते आरव (जयवर्धन लखेड़ा) ने अपने अभिनय के साथ पूरा इन्साफ किया. दोनों की भावपूर्व अभिव्यक्ति ने सभी की आँखें नाम करने में कोई कोर असर नहीं छोड़ी! सचमुच इन दोनों का अभिनय बेमिशाल था जिसे पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने मंच पर जाकर भी सराहा है.
छोटे बेटे के रूप में मोनू ने जहाँ उस शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न उठाया है कि बचपन में जो पिता या माँ उनके बच्चे से अंग्रेजी सुनना चाहती है वह जवानी में कैसे उसे पहाड़ का व्यक्ति बना सकती है! संस्कार बचपन से अंग्रेजों के डाल दिए जाएँ तो यकीनन बच्चा जवानी में कैसे अपनी लोक संस्कृति के प्रति रुझान रख सकता है! नेहा /लीना की दोहरी भूमिका में प्रज्ञा सिंह रावत ने जहाँ अपने बदलते परिवेश पर प्रश्न चिन्ह्न लगाए वहीँ पंजाबी बहु द्वारा अपने गाँव के प्रति अपना रुझान दिखाना व पहाड़ के प्रति उपेक्षा दिखाती उसकी ननद शालू (सोनाली) ने जिस तरह अंग्रेजी संस्कृति के भौतिक चरम को प्रदर्शित किया वह भी हमारे प्रवासी समाज पर प्रश्नचिह्न लगा गया!
माँ कमला (शिवानी वर्मा) भी अब अपने हाथ से फिसलते उस धरातल से परेशान है जो उसने अपने बच्चों के सपनों को संजोने के लिए बुने थे व बच्चे माँ की ढील के कारण अब तल्ख़ तेवरों के हो गए हैं. मामा की बेटी का तलाक की बात हो या फिर पिता के गाँव में मंदिर निर्माण की बात ! हर जगह प्रवासी समाज अधेड़बुन में है कि आखिर किया जाय तो क्या किया जाय! सभ्य समाज जहाँ मंदिर की जगह विद्यालय की व्यवस्था सुधारने की बात करता है वहीँ धार्मिक समाज को अपनी रीतियों में ब्याप्त मंदिर चाहिए तो माँ को कीर्तन करवाने हैं और बेटे को खुशियों में डीजे पर झूमना है.
हर बहस शराब के प्यालों से शुरू होती है और वहीँ गुम हो जाती है लेकिन सच कडुवे आखर की तरह वहीँ आकर खडा हो जाता है जहाँ से चला था! जिन्होंने पहाड़ जिया सबको पहाड़ की चिंता है लेकिन नए बच्चे उस संस्कृति को अंगीकार करना ही नहीं चाहते क्योंकि उनके माँ बाप ने कभी यह जरुरत ही नहीं समझी कि उनके बचपन के स्वर्णिम दिन गाँव की यादों से साझा कर दिए जायं. पटकथा का संबसे दबा लेकिन सशख्त अंग अगर कोई था तो वह एक पति का अपनी पति को डेलिवर किया गया यह सन्देश कि तू ही है जिसने बच्चे बिगाड़े या फिर एक बेटी का अपनी भाभी को यह कहना कि माँ खुद गाँव जाने का नाम नहीं लेती तो हम कैसे जाएँ?
पटकथा लिखते समय जहाँ लक्ष्मी रावत ने उसके हर पहलु को उजागर करने की कोशिश की जिसमें डोंर थाली, देवी देवता, रुक्मणी, हन्थ्या हो या फिर एक बेटे से उसके मालदार चाचा का सौतेला व्यवहार लेकिन वह पलायन की मुख्य वजह स्वास्थ्य शिक्षा पानी को उजागर करने में कहीं न कहीं चूक कर गयी. मदन सिंह (अयमान रहमान) भले ही अपने संवाद में मंदिर की जगह विद्यालय निर्माण की बात करता है लेकिन उसमें ऐसा कोई संवाद शामिल नहीं हुआ जिसमें यह साबित किया जा सके कि शिक्षा की कमी के कारण ही ज्यादातर पहाड़ी बच्चे बड़े शहरों में प्राइवेट जॉब, या होटलों में बर्तन मलकर या उनकी बीबियाँ कोठी में काम करके छोटे से किराए के कमरे में गुजर कर रहे हैं भले ही नरी ने अपने संवाद में ये बातें रखते हुए कहा कि वे गाँव में मकान तो बना देते हैं लेकिन घर न लौटने की वजह से वे टूट जाते हैं लेकिन पूरा संदेश नहीं जा पाया ताकि इस मर्म पर ऐसा मरहम लगता जो अकाट्य हो!
बहरहाल लक्ष्मी रावत ने पलावित लोगों की वह कहानी पटकथा के रूप में अवश्य उजागर की है जो खुद उनके प्रवासी जीवन का घटना क्रम सा लगता है. और तभी यह कहानी हर एक के दिल में उतरने में कामयाब भी हुई! पटकथा में पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन असवाल के गाँव मिर्चौड़ा कैसे शामिल हुआ यह पूछने पर लक्ष्मी रावत जवाब देती हैं कि जब उनकी 22 सदस्यों की टीम श्रीनगर से नाटक कर दिल्ली लौट रही थी तब उनके पास रतन असवाल का फोन आया और उन्होंने उन्हें पूरी टीम सहित अपने गाँव पहुँचने के लिए कहा . कई जगह गाड़ियां बदल-बदल कर जब टीम मिर्चौड़ा पहुंची तो वहां के ग्रामीण माहौल में ये युवा ऐसे रमे की दो दिन तक उनके दिलो-दिमाग से गाँव से बाहर निकलने का मन ही नहीं हुआ. शानदार आवाभगत के बाद जब यह नाटक पटकथा के रूप में उभरा तो इस टीम ने यही गुजारिश रखी कि गाँव का नाम मिर्चौड़ा ही हो तो बेहतर..! और हुआ भी वही!
पोते व दादा के अभिनय में बेमिशाल अभिनय क्षमता के दर्शन हुए ! दादा के एक संवाद में भौतिकवादी इस युग की वह बात सामने आई जब वह कहते हैं- “मशीनें सेवा नहीं करती, वो सिर्फ चलती हैं”! ने वह सत्य उजागर किया जो आज का वर्तमान है. जिसने सारे सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ भौतिकता के चरम पर रख दिए हैं!
नाटक मंचन में दादा (वासु सिंह), नरी उर्फ़ नरेंद्र (राहुल राघव), बीरेंद्र सिंह उर्फ़ बीरू (अमित चौधरी), मदन सिंह (अयमान रहमान), सुरेन्द्र सिंह उर्फ़ सुरु (राजू राजे सिंह), बिजेंद्र सिंह बिज्जू (पंकज रावत), नेहा/लीना (प्रज्ञा सिंह रावत), सोनू (राघव कंसल), मोनू (जितेश शर्मा), कमला (शिवानी वर्मा), शालू (सोनाली), आरव (बच्चा) जयबर्धन लखेड़ा व लक्ष्मी रावत ने अपने अपने अभिनय के साथ पूरा इन्साफ किया है!न मंच सज्जा राजू राजे सिंह, मंगल सिंह, वस्त्र सज्जा शाजअहमद , मंच सामग्री नामित, प्रतीक नेगी, व्यवस्था आकाश, दीपक, संगीत गौरव शर्मा, प्रकाशनश सेठी व टीम प्रभारी पी.एस. चौहान इत्यादि ने अपनी अपनी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया.