प्रख्यात पत्रकार व साहित्यकार राजेन्द्र धस्माना को श्रद्धान्जली!

प्रख्यात पत्रकार व साहित्यकार राजेन्द्र धस्माना को श्रद्धान्जली!

सम्पादकीय.

  • संसद मार्ग दूरदर्शन के उस कमरे के झूलते परदे आज भी याद हैं मुझे.
  • मनोज….सुना है तुम मेरा व भूपेन्द्र का नाम लेकर लोगों से पैंसे ले रहे हो?

व्यक्ति जन्म लेते समय नंगा ही संसार में आता है और चिता में भी उसे नंगा करके ही लिटाया जाता है. जन्म से मृत्यु तक वह दुनिया के जाने कितने सतरंगी रंग देखता है व समाज को अपनी उपस्थिति से आभास कराता है. ढोल की तरह  ख़ुशी के शब्द व दुःख विपदा के पलों को संजोता व्यक्ति जब पैदा होता है तब यांऊँ यांऊँ का उसका रोना घर परिवार में ख़ुशी की किलकारी ला देता है लेकिन जब वह उम्र के साथ बड़ा होता है तो यही रोना अधिकतर वेदनापुंज में डूबा होता है. और जब शरीर नश्वर काया में तब्दील होता है तब मानव शरीर खामोश रहता है लेकिन जाने कितने दहाड़े मारकर रोते हैं कितनी आँखें छलकती है और कितने दिलों में हुक उठटी दबती है. जीना और मरना इंसान का नित नियम है इसे टाला नहीं जा सकता.

जब मैं शायद नौवी कक्षा का छात्र था तब हमारे गाँव में पहला ब्लैक एंड वाइट टेलीविजन आया था. पिताजी समाचार के शौक़ीन थे इसलिए ऐसा कम ही होता था जब वे समाचार के समय टेलीविजन के आगे न बैठें. समाचार समाप्त होते ही स्क्रीन अक्सर काली होती थी तो उस पर सफ़ेद रंग से लिखा – राजेन्द्र धस्माना समाचार सम्पादक छपा हुआ आता था. या स्क्रीन सफ़ेद हो तो काले शब्दों में लिखा यही नाम उभरता था. पिताजी की आँखें ख़ुशी से फैलती और कहते- देखा ये राजेन्द्र धस्माना हैं, बग्याली गाँव के! हमारी नैल की कोई फूफू हैं इनके पास!
अब यह बात सुनते सुनते मन ऊब सा गया था क्योंकि रोज वही बात पिताजी समाचार समाप्त होते ही दोहराते थे. कभी कहते तेरी दादी की बहन इनके पड़ोस में बग्याली गाँव में हैं उनका बेटा पोस्ट मैन का काम करता है. एक दिन मैंने कह ही दिया- पिताजी आपने फ़ौज में रहते हुए सात समुद्र पार घुमा दूसरा विश्व युद्ध लड़ा फिर ये धस्माना क्या आप से बड़ा है?
वे मुस्कराए और बोले- मेरे जैसे असंख्य फौजियों ने विश्व युद्ध लड़ा लेकिन सिर्फ एक गढ़वाली पहली बार, बार-बार समाचार सम्पादक के रूप में नाम के साथ होता है जिसे पूरा हिन्दुस्तान हर दिन देखता है. यह पहले तो पूरे पहाड़ के लिए गर्व का बिषय है दूसरा हमारे लिए इसलिए कि कहीं से हमारे  रिश्तेदार होने से यह गर्व दुगना हो जाता है.
ज्यों ज्यों उम्र बढती रही अक्ल का दायरा बढ़ता रहा और सच मानिए बारहवीं तक पहुँचते पहुँचते राजेन्द्र धस्माना मेरे आदर्श हो गए. बस अब यही कल्पना रहती थी कि उन्हें नजदीक से देख सकूँ. दिल्ली पहुंचा आगे की पढ़ाई शुरू हुई तब राजनीति में आया और छात्र राजनीति के दौरान जहाँ अखबारों में सुर्खियाँ बना तो एक आध बार दूरदर्शन आना जाना भी हुआ. अब तक समाचारों में प्रभात डबराल नामक दुसरे गढ़वाली के नाम की चर्चा होने लगी थी.  यह चर्चा चल ही रही थी कि डोबल्या गाँव से हमारी फूफू जी जोकि चोपड़ा गाँव रहती थी और उनका पूरा परिवार वर्तमान में मुंबई में है के पुत्र भूपेन्द्र कैंथोला दूरदर्शन में अच्छे पद पर चयनित हो कर आ गए थे. ख़ुशी दुगनी हुई क्योंकि अब दूरदर्शन में पहाड़ दिखने लगा था. अब तक आकाशवाणी और दूरदर्शन के दर्जनों चेहरों को भी मैं जानने लगा था.
मैंने पढ़ाई के साथ रंगमंचों से जुड़ना शुरू कर दिया था और भारतीय कला केंद्र के एक मित्र नेगी के साथ सरोजनी नगर में मुट्ठी भर पनपते पहाड़ी मानस के कलाकारों को प्रशिक्षण देने का काम भी शुरू कर दिया था.
इसी दौरान लगभग 1988-89 में मेरे द्वारा प्रख्यात साहित्यिक ब्यक्तित्व व दिल्ली के गढ़वाल हितैशिनी सभा के संस्थापक सदस्य बद्रीश पोखरियाल व उनकी संस्था के सदस्यों द्वारा सृजित गढ़वाली नृत्य नाटिका ” शकुंतला नृत्य नाटिका” पर काम करना शुरू कर दिया! तब मुझे डॉ. शिबानंद नौटियाल ने यह नाम सुझाया था जोकि पूर्व में उत्तर प्रदेश में शिक्षा मंत्री रहे. उन्ही के कहने पर मैं बद्रीश पोखरियाल जैसे ब्यक्तित्व से मिला जिन्हें मूर्धन्य कवि कन्हैयालाल डंडरियाल अपने गुरु माना करते थे.
संयोग देखिये “शकुन्तला नृत्य नाटिका” जोकि मूलत: गढ़वाली में लिखी गीत नाटिका थी को पूर्व में स्टेज पर लोकगायक स्वर्गीय चन्द्रसिंह राही ने संगीत दिया और मेरे द्वारा निर्देशित इसी नाटिका को उन्ही के पुत्र संगीतकार वीरेन्द्र नेगी के दिशा निर्देशन में नीलम कम्पनी से संगीत दिया गया जिसके गीत तब एक हिमाचली गायिका व वीरेन्द्र नेगी ने स्वयं गाये थे.
मेरी रात दिन की मेहनत अभी फलवती भी नहीं हुई थी कि एक दिन मुझे राजेन्द्र धस्माना जी का बुलावा आता है. मैं ख़ुशी से उछळ पड़ा क्योंकि मैंने अभी दो दिन पहले ही अपना यही प्रोजेक्ट दूरदर्शन में जमा किया था. मुझे लगा कि मेरा प्रोजेक्ट मंजूर हो गया है और मुझे बड़ा प्लेट-फॉर्म मिल गया है. नियत समय पर मैं दूरदर्शन पहुंचा तब प्रबोध डोभाल बाहर ही मिल गए तो मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा कि भूपेन्द्र कैंथोला का ऑफिस कहाँ पर है. क्योंकि भूपेन्द्र भाई से मेरी इस दौरान मनोज नैनवाल (मामा जी के लड़के) उनके आवास  में सिर्फ दो बार ही मुलाकात हुई थी इसलिए इतना घुलेमिले भी नहीं थे. क्योंकि उनका बचपन दिल्ली गुजरा और हमारा गाँव! उनकी पढ़ाई लिखाई और हमारी पढ़ाई लिखाई में जमीन आसमान का अंतर था इसलिए झिझक लाजमी थी.
प्रबोध मुझे भूपेन्द्र दा के पास ले गए तो भूपेन्द्र भाई बड़े गंभीरता से मिले. मुझे ग्लानी महसूस इस बात की हुई कि मैं बिना बताये आ गया शायद मुझे पहले इन्फॉर्म करना चाहिए था. मैं बोला- भाई सॉरी, बिना बताये चला आया दरअसल मुझे..! भूपेन्द्र दा..बोले इट्स ओके ! हम तुम्हारा ही इन्तजार कर रहे थे ! और अपनी सीट से उठते हुए मुझे बोले- आओ ! हम दोनों सीधे राजेन्द्र धस्माना के कमरे में पहुंचे! भूपेन्द्र दा बोले- ये हैं मनोज ! राजेन्द्र धस्माना ने मेरी ओर देखा और बोले- कौन मनोज !
मैं तपाक से बोल पड़ा- मनोज इष्टवाल ! आपने बुलाया था ना मुझे..! मैं धारकोट का हूँ और बग्याली से आप हमारे रिश्ते….! अभी शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि उन्होंने अँगुलियों के बीच फंसी सिगरेट वाले हाथ को उठाते हुए गंभीरता से मुझे चुप होने को कहा और कश मारते हुए कहा- मनोज सुना है तुम मेरे व भूपेन्द्र के नाम पर पैंसे ले रहे हो लोगों से!
मेरा मुंह पीला पड़ गया जुबान से बड़ी मुश्किल से शब्द निकले- पैंसे ?  वे बोले- हाँ भई पैंसे! जो तुम सरोजनी नगर में कलाकारों को ट्रेनिंग दे रहे हो और दूरदर्शन में जो तुमने प्रपोजल सबमिट किया है उसके अगेस्ट तुमने उन कलाकारों से 500 रूपये प्रति व्यक्ति यह कहकर लिया है कि मेरे भाई भूपेन्द्र कैंथोला और राजेन्द्र धस्माना के माध्यम से मैं यह नृत्य नाटिका दूरदर्शन के लिए तैयार कर रहा हूँ!  तुमने सबके फॉर्म में यह लिखा है.
मैं गुस्से में कांपने लगा कांचे पर लटका झोला निकाला और उस से वे तमाम फॉर्म निकाले जिन पर उन कलाकारों के फोटो व एड्रेस चस्पा थे और भूपेन्द्र व धस्माना जी के सामने रखते हुए कहा- सर ये हैं वे फॉर्म ! अब बताईये कि कहाँ आप लोगों के नाम हैं और कहाँ वह रकम जिसके बारे में आप कह रहे हैं.
उन्होंने फॉर्म तसल्ली से चेक किये और मेरी ओर बढाते हुए बोले- सॉरी, लेकिन हमें यही खबर दी गयी थी. फिर भूपेन्द्र दा की ओर मुड़ते हुए बोले- देखा भूपेन्द्र ये लोग सिर्फ नाम के बड़े होते हैं. किसी की ख़ुशी पछा नहीं पाते! यह प्रकरण हुआ न मैंने उनसे पूछा कि वो कौन था जिसने मेरे सपनो पर पानी फेरा और न ही उन्होंने कभी बताया. मैंने अपनी फाइल दूरदर्शन से भी वापस मांगी और तैरते आंसुओं के साथ वापस लौट आया. भले ही मैने यह नाटिका फिर लखनऊ दूरदर्शन से प्रसारित करवाई लेकिन उसके बाद कभी भी दूरदर्शन में इन लोगों से मिलने नहीं गया. मैं उनके आवास में मिलने जरुर जाता था. दूरदर्शन के बाद जब वे गांधी पर काम कर रहे थे तब यदा-कदा उन्हें मिलने उनके आरके पुरम ऑफिस भी जाया करता था. वे हमेशा मुझे पूछते थे – कैसा चल रहा है. काम करता रह..असफलता ही सफलता के द्वार खोलती हैं. अब मुझे ही देख कहाँ मैं बग्याली में गोर चराता था सरकार ने यहाँ लाकर पटक दिया. तू सब कुछ करना पर गाँव मत छोड़ना वहां की माटी में अलग तड़प है अलग शुकून है.
आज वे नश्वर हो गए लेकिन आँखें नम कर गये. उन्होंने मुझे जिन्दगी की हर परिस्थिति में जूझना सिखाया हर बार उनके गंभीर चित्त पर उभरती मुस्कान उस अर्द्धनारेश्वर के समान मुझे संचेतना देती रही जो उनकी कलम की धार से निकलकर कई मंचो पर बही. ऐसे महान ब्यक्तित्व को नमन ..श्रधान्जली

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