प्रकृति,पहाड़ और पलायन की कथा-व्यथा से जुड़ा एक माँ की खुद का गीत..!

प्रकृति,पहाड़ और पलायन की कथा-व्यथा से जुड़ा एक माँ की खुद का गीत..!

(मनोज इष्टवाल)

जिसकी सुध 17 साल बाद अब सरकार ले रही है उसके भविष्य की लकीरें लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी इस से लगभग दुगने साल पहले अपनी कलम से खींचकर, गले से सींचकर सुर में ढालकर उस हर माँ को निढाल कर चुकी है जिसने प्रकृति प्रदत्त इस प्रदेश में अपने नौनिहाल को रोजगार के लिए भटकते हुए गाँव घर छोड़ते देखा है. और वही बेटा या बेटी जब बर्षों बाद भी माँ की आँखों की प्यास बुझाने नहीं आती तब वह अपने दिल के उदगार को गीत के बोल में ढालकर जिस तरह अपनी भूली-बिसरी यादों के साथ उस वक्त को याद करती है वह यकीनन दिल को गहराई तक ऐसे घाव से घायल कर देता है जिसकी मरहम हम अभी तक नहीं ढूंढ पाए है!

जिन शब्दों को कंठ से निकले स्वर से ढालकर श्रृंगारित किया गया है उनका कोई तोड़ दूर दूर तक यहाँ नजर नहीं आता. प्रकृति प्रदत्त मेलु-घिन्घोरा के फल जहाँ बचपन की पहली सीढ़ी से जवानी की तरफ बढ़ते क़दमों के यादगार पहलु नजर आते हैं वहीँ चौमास (बरसात/हरियाली) में एक माँ भाव-विह्वल होकर अपने मैन की हुक शांत करने की कोशिश करने का यत्न करती नजर आती है.

पलायन को चोट करती ये पंक्तियाँ शायद ही कोई कवि हृदय इतनी ख़ूबसूरती से लिख पायेगा जितनी खूबसूरती लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की ये पंक्तियाँ है:-

चौक उदास च सूनी डंडयाळी
बरखाम रुणीन कूडै पठाली.
बरखा का बूँद भि लग्दा अंगार,
जिकुड़ी कु चैन न बोण न घार,
त्वे बिना सेणी न खाणी ऐजा…

(चौक उदास है, बैठक सूनी, बरसात या बारिश में रोती हैं छत्त/मकान की खपरैल. बारिश की बूँद भी लगती अंगार, दिल को चैन न घर न बाहर, तेरे बिना सोना न खाना आजा!)

जल, जंगल, जमीन और घर के आस-पास के माहौल को जितनी कुशलता से रखा गया है वह पलायन की व्यापक परिभाषा को एक मुट्ठी में बंद करने जैसा यत्न है. चौमास के वातावरण को परिभाषित करती ये द्वीअर्थी पंक्तियाँ कि-

निरभागी सौण भादो फिर ऐगे
जिकुड़ी की खैरेई आग जगैगे 
आंखी कुयेड़ीमा त्वेथैं खुज्यांद
खौळयेकि पाछम रूण बैजांद
त्वेकू भडूलि लगाणी ऐजा…

(निर्भाग्यवान सावन-भादों फिर आ गया, दिल की बुझी आग फिर जला गया, आँखें बादलों में तुझे ढूंढती हैं, हताश होकर शाम को फिर रोने लगती हैं, तेरे को हिचकी लगा रही हैं आजा…)

उस कुहासे के अंदर एक ऐसा प्रतिबिम्ब महसूस करवाती हैं जो माँ के हृदय पटल से चौमास के इन दो मास के हर पल हर कष्ट का ब्यौरा प्रस्तुत करती नजर आती हैं. यकीनन सावन-भादो की यह बर्षा चाहे कितनी भी क्यों न बरस जाए अन्तस पटल की पीड व हूक से उत्पन्न प्यास  भला कहाँ बुझा पाती है. सचमुच यही गीत उन पहाड़ी कंदराओं से गूंजता हुआ जब खुदेड हृदय तक पहुंचता है तब वह भी ठेठ यूँही आकुल ब्याकुल और परेशान होकर रो पड़ता है जैसे प्रकृति अपने पर हुए ब्यभिचार से रो पड़ती है.

माँ का हृदय अपने बच्चे की तडफ में उसके बचपन को महसूस करता हुआ कभी दूर बादलों में पहाड़ की उंचाई पर बाज रही बांसुरी के सुर से और बढ़ जाती है तो कभी गाय बच्छियों के बुग्यालों में चुगतेगले की घंटियों में उलझकर रह जाते हैं. वहीँ नदियों में जल भराव को देखते हुए वह हृदय बेटे से बेटी के पास पहुँच जाता है जो मिलन की आस में अतृप्त भटकन लिए हुए घसरियों के बीच अपनी बेटे/बेटी की उपस्थिति दर्ज करवाकर उनके द्वारा गाये जा रहे गीतों को याद कर एक सन्देश देने का यत्न करती है. उसे कफ्फु, घुघूती हिलांस के सुरों की वेदना से जागृत करती वह माँ ही हो सकती है जिसकी कल्पनाओं के सागर में एक ऐसी खुद समाई है जो मिटने का नाम न ले! क्योंकि बिषय वस्तु वह कुछ भी बनाए लेकिन फिर आकर उसका मन उसी तरह के बोलों में सन्देश देता हुआ कहता है-

सूणी जा ग्वेर छोरोंकि बंसूली
रौळयूँ का गीत गोरुंकि घंडूली...(सुन जा गाय चुगाने वाले लड़कों की बांसुरी, नदियों के गीत गाय-बैलों की गले की घंटियां)

डांडा घसेनी लगौणी चौमासा
ड़ाळयूंमा कफ्फु घुघूती हिलांसा
त्वे रंदीन बुलाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा!

(चोटियों पर घास काटने वाली महिलायें चौमासा के गीत गा रही हैं, और पेड़ों में कफ्फु-हिलास उनके सुर में सुर मिलाकर तुझे ही बुलाती रहती रहती हैं, मेलु-घिन्घोरा के फल खाजा!)
माँs के ऐसे शब्द ऊँची पहाड़ियों, गहरी घाटियों में आकुल-ब्याकुल मन के साथ यों गूजते हैं कि वह अपना चित्त प्राण भूल सी जाती है क्योंकि उसे घास काटने वाली महिलाओं के चौमासा गीत भी लगते हैं कि वे सब उसी की तरह उसकी पीड़ा को समझ रही हैं और उसके बेटे को प्रदेश से घर बुलाने में आवाज मिला रही हैं! वही क्या यहाँ तो पेड़ों पर बैठे पक्षी कफ्फु-घुघूती और हिलांस भी बुलाती हुई अपने हिस्से के जंगली फल मेलु-घिन्घोरा खाने के लिए उसे पुकार रही है! अहा माँ तेरी यह वेदना ऐसा शूल बनकर शब्दों में उभरेगी मालुम न था! लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी सचमुच सरस्वती पुत्र हैं जो माँ का गुब्बार यूँ जन मानस के सामने प्रस्तुत कर देते हैं मानों अभी अभी पहाड़ फाड़कर कोई छोया फूट पडा हो! 
वे आगे लिखते हैं:-

त्वेखुणी मेरि मालु भैंसी पलींचा
घ्यू-दै की ठेकी लुकैकी धरींचा
सैक्युं समाळयूँ चा कुट्यूँ पिस्युं चा
चौंळ छणयां छिन दाळ दलींचा
त्यारा बाना छौं खैरी खाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,
(तेरे लिए मेरे मालू (लाडले) भैंस पाल रखी है, घी और दही की ठेकी छुपाकर रखी हुई है, सारा काज निबटा रखा है, कुटा, पिसा सबकुछ है, चांवल छान रखे है, दाल पिसी हुई है, तेरे लिए तो यह विपदा झेल रही हूँ आजा.. मेलु-घिन्घोरा के फल खाजा)

अब वह कपोल कल्पना के एक ऐसे सागर में पहुँच गयी है जहाँ ऐसा महसूस होता है मानों उसका बेटा या बेटी उसके समुख आकर खड़े हो गए हो और माँ इस उदेडबुन में है कि आखिर मैं ऐसा क्या कुछ करूँ जिससे मेरा मन अपने लाडले को तृप्त कर उसे प्रसन्न करें. तभी तो वह अपने शब्दों की ढाल में अपने उन कर्मों की प्रदानता याद करती है जिन्हें उसने अथक परिश्रम से हासिल किया है. वह कहती है कि तेरे लिए मैंने भैंस पाल रखी है, घी दूध निकालकर छुपाकर रखा हुआ है, चावल साफ़ करके रखे हैं और दाल दल रखी है. सब कुछ तेरे लिए ही तो है! तेरे लिए ही तो यह परिश्रम कर रही हूँ!

वह व्यथित मन माया की तृष्णा में इस तरह आकुल है कि ऐसे शब्द संसार में खो गया है जहाँ एक बार को पत्थर दिल भी यदि उसकी गहराई में उतरे तो सचमुच रो दे!

अहा….इस आतुर मन की इस व्याकुलता की आकुलता का भी तो अनुमान लगाईये जो कह रहा है:-

भेलू भंकार तू दौड़ी न ऐई 
बोण कुलाण का रौडी न जैई
भूली न बाटू ग्वर बाटा हिटिकी
धावडी मारि तू धार भटिकी
कंदूदी रंदीन बयाणी ऐजा 
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,…

(घाटी-पठारों में तू दौड़कर मत आना, चीड़ के जंगल में उसकी पुआल में गिर मत जाना, भूल मत जाना रास्ता गाय-बैलो वाला चलकर, आवाज देना तू धार में चढ़कर, कान हमेशा तुझे सुनने को बेताब रहते है, मेलु-घिन्घोरा के फल खाजा!)

सचमुच लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के शब्द संसार की मोहिनी कहें इसे या फिर उनके कवि हृदय का वह पुंज जिसने प्रकृति, जनमानस, जीव-जंतु के बेहतरीन तालमेल का ऐसा समावेश प्रस्तुत किया है जो एक ऐसे लोक में ले जाता है जहाँ सारी संवेदनाएं एकाकार होकर अनंत में खो जाती हैं! उन्होंने यह बात आज से बर्षों पूर्व ही महसूस कर ली थी जो आज घटित हो रहे हैं! वर्तमान परिवेश में जिस तेजी से पहाड़ खाली हो रहा है उसका यह गीत तब आभास करवा गया था जब पलायन न के बराबर था. हो सकता है उस काल में यह गीत सिर्फ बेटे/बेटी के दूर होने, नौकरी पर चले जाने की पीड़ा को प्रस्तुत कर लिखा गया हो लेकिन आज यह गीत पलायन जैसे ज्वलंत मुद्दे का वह सन्देश है जो घर के बंद कपाटों के अंदर घुसती उस उजियारे की किरण से कम नहीं जिसने कभी उस घर की देहरी लांघकर आँगन चूल्हे बरामदे के एक एक पल जिए हों. काश…हम इस गीत को सन्देश के तौर पर लेकर अपने अतीत के उन बंद पन्नों को खोलकर देखते जिन पर भौतिकवाद की दीमक लग रही है.
इस गीत को स्वर कोकुला अनुराधा निराला ने भी गाया है और उसी पीड़ा को अन्तस्मे में लेकर अपने सुरों के साथ पूरा इन्साफ भी किया है :

    मेंलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,
     छोया दूंळयूँको पाणी प्येजा.
    डांडयूँ का दिन चौमास ऐ गिन
     सासा लगींच पराणि ऐजा.

चौक उदास च सूनी डंडयाळी
बरखाम रुणीन कूडै पठाली.
बरखा का बूँद भि लग्दा अंगार,
जिकुड़ी कु चैन न बोण न घार,
त्वे बिना सेणी न खाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,

निरभागी सौण भादो फिर ऐगे
जिकुड़ी की खैरेई आग जगैगे 
आंखी कुयेड़ीमा त्वेथैं खुज्यांद
खौळयेकि पाछम रूण बैजांद
त्वेकू भडूलि लगाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,

सूणी जा ग्वेर छोरोंकि बंसूली
रौळयूँ का गीत गोरुंकि घंडूली
डांडा घसेनी लगौणी चौमासा
ड़ाळयूंमा कफ्फु घुघूती हिलांसा
त्वे रंदीन बुलाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,

त्वेखुणी मेरि मालु भैंसी पलींचा
घ्यू-दै की ठेकी लुकैकी धरींचा
सैक्युं समाळयूँ चा कुट्यूँ पिस्युं चा
चौंळ छणयां छिन दाळ दलींचा
त्यारा बाना छौं खैरी खाणी ऐजा
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,

भेलू भंकार तू दौड़ी न ऐई 
बोण कुलाण का रौडी न जैई
भूली न बाटू ग्वर बाटा हिटिकी
धावडी मारि तू धार भटिकी
कंदूदी रंदीन बयाणी ऐजा 
मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा,

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