पौड़ी जिले का एक और गाँव हुआ भुतवा! गीन्ठीपानी गाँव के अंतिम दम्पति ने भी छोड़ा गाँव!
(मनोज इष्टवाल)
जब कुछ नहीं रहा तो सिर्फ आह साथ थी! बूढी-वीरान आँखों में गर्म-गर्म आंसू और हृदय में पीड़ा का बोझ! पीताम्बरी देवी जब अपने आँगन से नीचे उतरी और पलटकर अपने घर को देखा तो उनके अतीत का बबंडर उनकी आँखों में तैरने लगा! बलबीर सिंह ने बमुश्किल अपने को संभाला था कि अपनी पत्नी का यह हाल देखकर वे मजबूती से उनकी बान्हे पकडे मिले! शायद उनके मन में यही पीड़ा रही थी कि कभी ऐसी ही बांह पकड़कर जब मैं तुझे यहाँ लाया था तब मन में यही विचार था कि यही घर आँगन हमारी अब से जिन्दगी के अंतिम क्षणों तक साक्षी रहेगा! ये खेत खलिहान, सगोड़े और तेरी चूड़ी, कुटली, दरांती के साथ चेहरे की मुस्कान इन फिजाओं को यों ही महकाए रखेंगी! ताउम्र…मरते दम तक!
(फाइल फोटो)
वहीँ पीताम्बरी देवी भी यही प्रश्न कर रही होगी कि मैं जब यहाँ घूँघट ओड़कर इस घर में आई थी तो सोचा था अब यहाँ से अर्थी ही उठेगी! मेरे जेठ देवर, नाती पोते बेटे इत्यादि के कंधों से गुजरकर जब मैं अपने श्मशान घाट पहुंचूंगी तो धन्य हो जाउंगी! लेकिन पीताम्बरी देवी ने शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन वही ऐसी अंतिम इस गाँव की बहु, सास या फिर मालकिन होगी जो अपने दरवाजे सदा के लिए बंद करते समय इस गाँव को वीरान छोड़ जायेगी!
ये कहानी और इसके पीछे की ऐसी पीडाओं की कल्पना ही की जा सकती है क्योंकि शायद ही गीन्ठीपानी नामक छोटा सा गाँव कहीं उत्तराखंड के मानचित्र में अब कभी नजर आये! विकास खंड द्वारीखाल के पट्टी लंगूर का यह गाँव द्वारीखाल सडक मार्ग से तीन किमी. दूरी पर बसा हुआ है. कभी इस गाँव में रौनक हुआ करती थी! हंसी ठट्ठा मजाक के ठहाकों से गूंजता यह गाँव अपने अतीत के चरम की हर कहानी कहता रहा! लेकिन राज्य निर्माण के बाद यहाँ से एक एक करके इन 18 बर्षों में लगभग 18 ही परिवार गाँव छोड़कर शहरों की तंग कोठरियों में अपने को कैद कर गए! कारण यह था कि न सडक मार्ग से ही गाँव जुड़ पाया न शिक्षा और न स्वास्थ्य! रोज चढ़ाई चढ़कर द्वारीखाल आओ और फिर तीन किमी. पैदल चलकर गाँव पहुँचों!
जिनके तो बेटे थे वे अपने माँ-बाप परिवार के साथ गाँव से बहुत पहले पलायन कर गए! मात्र गाँव में बचे रहे तो बलवीर सिंह व उनकी पत्नी पीताम्बरी देवी! मजबूरी थी भाग्य में पुत्र रत्न की प्राप्ति जो नहीं लिखी थी! बुढापे में भला जाते भी कहाँ? सरकारी आश्वासनों की ताक में व अपनों के लौटने की उम्मीद में बलवीर सिंह और पीताम्बरी देवी अपने गाँव को आबाद किये रहे! उनकी मजबूरी थी कि जाएँ तो जाएँ कहाँ! बेटियाँ बुला भी रही थी लेकिन बाप इस बात से झिझक जाता कि भला बेटियों के घर का कैसे खाएं! लेकिन सच यह भी है कि वक्त इंसान के लिए बेहद कठोरता और निर्ममता के साथ आता है! आखिर जब दोनों ही असहाय होने लगे तो एक दिन ईश्वर के भरोंसे गाँव व कुलदेवता भूमिदेवता को अंतिम नमस्कार कर कोटद्वार आ गए!
अब समस्या यह है कि कोटद्वार में ध्याड़ी मजदूरी तो कर नहीं सकते! बेटियाँ ही सहारा हैं जो इनके गुजारे के लिए कहीं किराए का कमरा देखकर उनकी बाकी जिंदगी की खेवनहार बन सकें! फिर भी प्रश्न यही खडा होता है कि आखिर कब तक? इस लेख को लिखने से पूर्व जाने कितनी जगह सम्पर्क जोड़ने की कोशिश की कि कहीं से कोई तो क्लू मिले! गीन्ठीपानी के किसी सज्जन का नम्बर तो मिले ताकि इस बूढ़े दम्पत्ति का पता चल सके! यह सोचकर कि ये अगर मिल जाते तो मैं उन्हें अपने पास ले आता ताकि मुझे कुछ दिन सेवा का मौक़ा तो मिलता, क्योंकि जब तक मेरे माँ-बाप ज़िंदा रहे तब तक मैं उनके लिए कुछ नहीं कर पाया! शायद उसका प्राश्चित करने का मौक़ा यही होता!
यह कहानी एक ऐसी बेटी ऐसी बहु ने मुझे सोशल साईट पर लिखने को कहा जिसने न अपनी ससुराल देखी और न ससुरासियों से कभी गाँव लौटने की कल्पना की ही बातें सुनी लेकिन उस बहु के दिल में कशिश जरुर है कि काश…मैं अपने गाँव की तस्वीर बदल सकती!काश..सरकार यह जरुरी कर देती कि प्रत्येक ग्रामीण को अपने बंजर खेतों को आबाद करना है तो मजबूरी में कम से कम इसी बहाने सही गाँव दुबारा बस जाते! यह लेख मैं उसी बहु या बेटी को समर्पित करना चाह रहा हूँ जिसने मुझे लिखा- सर, मेरे मोबाइल में लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गीत बज रहा है और मेरी आँखें भीग रही हैं! मालुम गीत के बोल क्या हैं! फिर गीत के बोल लिखती हैं-
हे जी सार्युं म फूली ग्ये होलि फ्योंली, लयेड़ी मी घौर छोड़यावा!
हे जी घरबौडू ह्व़ेग्ये होलो बालु बसंत मी घौर छोड़यावा!……..
सच पूछिए इन शब्दों की पीड़ा जब मेरे ही दिल को चीर गयी तो उस बहु या बेटी का क्या हाल रहा होगा जिसने मुझसे पहले सोशल साईट पर और बाद में मेरा नम्बर लेकर सिसकियों के साथ बात की! वह कैसे अपने नमकीन आंसुओं की इबारत अपनी जुबां में रखकर सुना रही होगी जिस जुबां ने मेरे आंसुओं का सैलाव पैदा कर दिया हो! मैं बोला- भुली, काश…तेरी पीड़ा तेरे घर वाले, तेरे सास, ससुर या फिर निगोड़ी वह धरती ही समझ पाती जिसकी गोद में तू रहकर अपने पति के गाँव की एक झलक देखने को तरस रही है! वह सबसे ज्यादा दुखी इस बात से थी कि बलबीर सिंह और पीताम्बरी देवी अब गाँव छोड़कर गए हैं तो वे कैसे इस बुढापे में जीवन यापन करेंगे! मैंने झूठा ही सही लेकिन ढांडस बंधवाते हुए कहा – भुली, तू निश्चिन्त रह! अगर उनका कहीं कोई सम्पर्क सूत्र हुआ तो मैं ऐसा अवश्य कर सकता हूँ कि वे अपने गाँव में आकर आराम से दो रोटी खा सकें! सरकार से गुजारिश करेंगे कि कम से कम उनके जीते जी तो वह गाँव ज़िंदा रहे!
मैंने कहा कि मैं स्टोरी एक बहु को समर्पित करना चाहता हूँ आपके नाम के साथ! वह बोली -भैजी ऐसा मत करना! भूल से आपने अगर ऐसा जिक्र भी कर दिया तो घर वाले सीधे बोलेंगे कि यही होगी और कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि इसी के पेट में पीड़ा रहती है कि चलो गाँव चलकर देखते हैं! हमारे पास सभी संसाधन हैं तो फिर हम क्यों न गाँव जाकर उसकी खुशहाली के लिए कोई योजना बनाए!
काश…ऐसी बेटी ऐसी बहु हर गाँव हर घर में पैदा होती जिसके दुखड़े में उसके पति का गाँव हो जिसके सपनों में मालू ग्वीराल और विभिन्न बारानाज हों! काश…ऐसी देवियाँ आकर ऐसे वीरान होते गाँवों की तस्वीर बदलने का जिम्मा उठाती! काश…गीन्ठीपानी जैसा गाँव फिर से ज़िंदा हो पाता!…..काश…!
Nice
Very transparent and emotional description of the plight of our senior citizens of Uttarakhand who have no option but to leave their villages empty handed, having no source of survival. I m literally shaken from inside.
शुक्रिया भाई साहब।
मनोज ईस्तवाल जी। लेख में जो मार्मिक विवरण है। उस से मन बहुत दुखी होता है। परंतु हम कर भी क्या सकते है। जीवित होकर भी अपनी कब्र देखने के समान लगते है ये भूतिया गांव। आपके लेख के लिए धन्यबाद
हम कर बहुत कुछ सकते हैं अगर प्रजातंत्र में नेतातन्त्र हावी न होने दें।
सही कहा मनोज जी आपने ….! ऐंसी की मजबूरी आन पड़ी जो हम गाँव छोड़ रहे है … एक कहावत है न की गिरगिट को देख गिरगिट रंग बदलता है… सायद हम भी वही है ….! और ये रंग बदलने वाली बीमारी महिलाओं पर ज्यादा हावी होती है …. पुरुष वर्ग तो फिर भी मान जाये …! पलायन मजबूरी नहीं …. शोक है दिखावा है …बीएस और कुछ नहीं …! फिर वही लोग कहते है की एक न एक दिन सब पहाड़ वापस आ जायेंगे ….! कब आएगा वो दिन…! 🙁
जी सही कहा
Apko number de Diya hai sir Mene.
+918193834684 ye hai balveer Singh Ka number
थैंक्स जी।
Ek ek shabd dil cheerta hua lagta h……. Mere man k bhi kisi kone me ye khayal aata h ki kaash kuch aisa ho jaye ki ham apne ghar gaun wapas ja sake
shukriya, swagat aapka.
बहुत बहुत शुक्रिया मैडम। कम से कम आपने अपने मन की पीड़ा तो शांत की
मार्मिक चित्रण।
बलवीर सिंह का नंबर ये है-. +918193834684