पौड़ी की रामलीला के 121 बर्ष पूरे! लोकगायक नेगी 54 बर्ष पूर्व बने थे रामलीला के बानर!
पौड़ी की रामलीला के 121 बर्ष पूरे! लोकगायक नेगी 54 बर्ष पूर्व बने थे रामलीला के बानर!
(मनोज इष्टवाल)
अगर गढ़वाल में कोई फ़ारसी थियेटर की बात करे तो बड़ा अजीब सा लगता है लेकिन सत्यता झुठलाई भी नहीं जा सकती क्योंकि ब्रिटिश काल के दौर में जितने भी नाट्य विधाओं का कुमाऊँ-गढ़वाल में अवतरण हुआ बताया जाता है वे मैदानी भू-भागों से ज्यादात्तर लाई गयी और मनोरंजन का साधन बनी! यहाँ इस बात का तो ध्यान नहीं आता कि आदिगुरू शंकराचार्य के उस काल में बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार प्रसार को रोकने के लिए उनके अनुनय भक्तो ने किस तरह से देवभूमि उत्तराखंड में रामायण, महाभारत के नाटकों का मंचन किया लेकिन कुछ इबादत्तें जरुर अपने निशाँ छोडती आगे बढती हैं! पौड़ी की रामलीला की शुरुआत भी कुछ उन्हीं कड़ियों में एक है जो पहले आजादी की लड़ाई के उद्देश्य पर केन्द्रित बताई जाती रही व बाद में इसका प्रारूप बदलता गया!
कुमाऊं गढ़वाल में सर्वप्रथम रामलीला का प्रचलन गढ़-कुमाऊँ कमिश्नरी अल्मोड़ा से बताई जाती है क्योंकि उस दौर में गजेटियर में इसके अंश छपे थे जिसका काल सन 1860 आंका गया है! इसी काल को आगे बढाते हुए महात्मा गांधी के नमक आन्दोलन को देखते हुए बागेश्वर में इसकी शुरुआत 18 90 में हुई और यह छ: बर्ष बाद यानि 1996 में गढ़वाल कमिश्नरी पौड़ी आ पहुंची ! कई विद्ववतों का मानना है कि इसी दौर में श्रीनगर के डांग गाँव में भी रामलीला का आयोजन किया गया जिसका बर्ष 1996 बताया जाता है!
पौड़ी की रामलीला के बारे में पौड़ी के संस्कृतिकर्मी दिनेश रावत बताते हैं कि पौड़ी की रामलीला का मंचन सन 1993 तक यह रामलीला पूर्ण रूप से फ़ारसी थियेटर शैली में होती थी! जिसके संवाद के लिए कोई पार्श्व आवाज इस्तेमाल नहीं होती थी लेकिन इसके बाद बदलते सामाजिक परिवेश में जहाँ रामलीला से भाव भंगिमा नृत्य, पार्श्व गायन, डायलॉग व थियेटर शैली का नया बदलाव जुड़ा वहीँ इसमें महिलाओं ने भी रामलीला के महिला किरदारों को निभाना शुरू किया!
मुझे आज भी याद है जब पौड़ी गाँव कु. इति नेगी की पहली महिला रामलीला कलाकार बनने का गौरव प्राप्त हुआ था तब यह घर-घर चर्चा थी कि भला एक महिला कलाकार कैसे उतने मर्दों के बीच अभिनय कर सकती है? इति नेगी ने अहिल्या का अभिनय निभाया था! सुप्रसिद्ध लोकगायक व गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं – मैंने भी अहिल्या का रोल निभाया है लेकिन सर्वप्रथम आज से लगभग 53-54 बर्ष पूर्व मैं रामलीला का बानर बना था! इसके अलावा भरत, शत्रुघन आदि का भी उन्होंने रामलीला में अभिनय किया है! वे बताते हैं कि हम बाल्यकाल में कुछ मित्र गाँव के पटवारियों के चौक में अपने ही हाथ से धनुष बाण व कागज़ के मुकुट बनाकर रामलीला मंचन का स्वांग करते थे! उम्र बढती गयी और फिर एक बार मैंने व भाई बीरेंद्र कश्यप, गौरी शंकर थपलियाल आदि ने रामलीला में अपने अपने अभिनय के पात्र निर्धारित किये ! मैंने जानबूझकर घूँघट वाली मंथरा का रोल ढूंढा क्योंकि उस से लोगों को पहचानना सरल नहीं होता ! लोगों ने पहचाना तो नहीं लेकिन मेरे मंथरा के गीतों पर इनाम खूब आया!
यह सबसे आश्चर्यजनक बात रही है कि पौड़ी की रामलीला सिर्फ गढ़वाल कुमाऊं तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इसका प्रचार पूरे देश के कई शहरों में था उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इसमें जो भी सरकारी कर्मचारी आया वह किसी भी जातिवर्ग का रहा हो अक्सर उनमें से कईयों ने इस रामलीला में अपनी भागीदारी निभाई ! इसमें पौड़ी के आस-पास ही नहीं बल्कि ठेठ राठ क्षेत्र, कुमाऊं, बनारस, लखनऊ, गुजरात, आगरा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों से कलाकारों ने आकर शिरकत की! यही कारण भी रहा कि यहाँ की रामलीला विविधता भरी रहती थी जिसमें गीत संगीत, अभिनय, दृश्य संयोजन, मेकअप इत्यादि की गुणवता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गयी! इसमें सर्व धर्म एक समान का बंधुत्व देखते ही बनता है! यही कारण भी है कि यहाँ के भाई चारे में क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम क्या इसाई और क्या सिख! कभी भी जाति-मजहब का कोई क्लेश दिखने को नहीं मिला! रामलीला में चाहे इलाही बख्श रहे हों या सलार या फिर विक्टर साहब …! सब की भागीदारी में पुरुषोत्तम राम के जयकारे पहले भी लगते थे और आज भी लगते हैं! आज भी पौड़ी की रामलीला देखने के लिए यहाँ के मुस्लिम इसाई व सिख परिवार खूब उमड़ते हैं!
वैसे पहाड़ भर में जितनी भी रामलीलाएं आयोजित हुई हैं उनमें ज्यादात्तर दिखने को यह मिला कि छविराम ढौंडियाल कृत रामलीला का राधेश्याम तर्ज पर मंचन होता है लेकिन पौड़ी की रामलीला में राग-रागिनी, मालकौस, भैरवी, विहाग, दरबारी, पहाड़ी राग, धानी, कब्बाली, बहीर-ए-तबील, छन्द, चौपाई, दोहा, कहरवा, दादरा, झपताल, खेमटा, दीपचंदी, रूपक सहित शास्त्रीय संगीत से जुडी लगभग हर विधा का प्रयोग होता है और जिसे शास्त्रीय संगीत का जरा सा भी ज्ञान होता है वह पूरी रामलीला की हर रात बहुत दिली-तमन्ना से उसका श्रवण करता है!
आपको बता दें कि इसके मंचन से प्रभावित होकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली द्वारा सन 2008 में जनपथ की रामलीला में इस रामलीला को शोधार्थियों के लिए अभिलेख के तौर पर दर्ज करवाया गया! वहीं यह रामलीला वर्तमान में यूनेस्को की धरोहरों में सम्मिलित की जा चुकी है जो पूरे उत्तराखंड के लिए गौरव की बात है। ज्ञात हो कि बर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने इसे वृृृहद रूप देेेकर रामलीला मेंं चार चांद लगाए और जहां पूर्व में रामलीला की शुरुआत सन 1996 -97 में कांडे हुई थी उसे पौड़ी रामलीला मैदान में लाया गया।
गांव में इस रामलीला की सबसे बड़ी खाशियत यह है कि इसमें आठ बर्ष से लेकर 80 बर्ष तक की उम्र के कलाकार आज भी अपनी पात्रता निभाते हैं ! ऐसे दो तीन बिरले कलाकार हैं जिन्होंने 80 बसंत पार कर दिए हैं फिर भी रामलीला में अपनी भागीदारी निभाना नहीं भूलते! इनमें सबसे वयोवृद्ध वीरेन्द्र सिंह नेगी, महिताब सिंह प्रमुख हैं!
(फोटो साभार- मयंक आर्य।)