पैत्रिक धरती पर पाँव रखते ही लगा जैसे पितरों ने गोदी में उठा लिया हो..!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 5 फरवरी 2016)
माउंट आबू क्षेत्र राजस्थान से धारा नगरी के परमार वंशी राजपूतों के साथ बद्री-केदार यात्रा कर चौन्दकोट परगने के चौन्दकोट गढ़ी के सानिध्य में अमेली डांडा और वनदेवी दीवा की गोद में आकर बसे पंडित जयमल व शकुनी ईष्टवाल ने अपनी बसागत की शुरुआत नौखंडी नामक गॉव से की, जहाँ उन्होंने नौखंडी नाव (नवल/कुआँ) बनाकर अपने को व्यवस्थित किया और जीतू बगड्वाल के वंशजों के कुल पुरोहित बने।

चौन्दकोट गढ़ी की संरचनाकार इन भाइयों को बगड्वालों का श्राप झेलना पड़ा और गॉव की बसागत नौखंडी से कालांतर में ही इसोटी गॉव हुई। उसके बाद शाखाएं फूटी सौकार, पदान, थोकदार, जगरी थोक में बंटते गॉव से जो धनिक रहे पलायन करते हुए अन्य गॉव बसते बसाते रहे! इसोटी से केष्ट जाकर हमारे ही बन्धु-बांधव केष्टवाल कहलाये। शायद पलायन समाज का एक दुर्गुण या गुण रहा है, पलायन एक सतत प्रक्रिया रही है इस बात को नकारा नहीं जा सकता। दुर्गुण इसलिए कि इससे गॉव की आबादी घटी और परिवार बंटे। गुण इसलिए कि जो बाहर निकला उसने शिक्षा ली और ऊँचे पदों पर आसीन हुए।
खैर हम भी अपने पूर्वजों के अनुशरण करते हुए नौखंडी से इसोटी, इसोटी से कुलाणी, कुलाणी से डोबल्या, डोबल्या से धारकोट, धारकोट से नैल, देहरादून, गाजियाबाद, दिल्ली, फरीदाबाद, राजस्थान इत्यादि शहरों की शरण में जा बसे। दूसरी शाखा बैंदुल, गवाणी, होते हुए देश विदेश के कई महानगरो में जा बसी! लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि इष्टवाल वंशज पौड़ी गढ़वाल के चौन्दकोट से ही निकलकर अन्यत्र फैले हैं!

आज से लगभग बीस पच्चीस बर्ष पूर्व जब मैंने यह जिद ठान ली कि अपने वंशजों की खोज खबर लेकर वंशावली लिखूं तब इसोटी तक सड़क नहीं थी। तब किर्खु से नैली, पीपली होता हुआ यहाँ पैदल पहुंचा था। तब गॉव पास एक चक्की हुआ करती थी और तुनाखाल जहाँ आज बाजार बसा है वहां पीपल पेड़ के पास हमारे वंशजों के मरघट..!
आज भी वे कई बुजुर्ग याद आते हैं जो आज मौजूद नहीं हैं लेकिन मुझे अपना वंशज समझकर उनके दिलोदिमाग में जो ख़ुशी हुई थी वह उनकी आँखों में चेहरे पर चमकती दिखी! खैर काल की गर्त में कई चीजें समाकर यादों में शामिल हो जाती हैं, नौखंडी तो मैं अपने डीएसपी चाचाजी स्व. महेश चंद इष्टवाल के मंझले पुत्र कैलाश इष्टवाल के साथ दो तीन बार गया हूँ जो नौखंडी से दुर्गापुरी कोटद्वार आ बसे हैं इसलिए वहां लगभग सभी भाई बहन मुझे पहचानते हैं, लेकिन बर्षों बाद जब इस बार अपने भांजे विवेक की शादी के बाद इसोटी गाँव गया और वहां रुका तो पाया जैसे वह धरा वह खेत, वह खलिहान मुझे देख प्रफुल्लित हो गए हों, आँगन, घर व पनघट नाच उठे हों। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि मनोज इष्टवाल के नाम को वहां हर तोक की ठेठ ग्रामीण महिलाएं मेरी काकी, बोडी, दादी, फूफू, बहनें, बेटियां सब जानती हैं। सबका स्नेहिल हाथ सर माथे था तो छोटों का नमस्ते प्रणाम की मुद्रा में ।
मैंने भी हर तोक में बैठकर अपनी उपस्थिति का आनंद दिलाया। पनघट में गया जिसकी दशा अब बिगड़ चुकी है क्योंकि घर-घर पानी आ गया है। बिष्णु जल धारे के इस पानी से अपने को तृप्त किया और वहां कपडे धो रही गॉव की भूली/बेटी के साथ फोटो भी खिंचवाया। सच कहूँ तो इसी पनघट के रास्ते होता हुआ एक पैदल बटिया घळया गाँव होकर बिनसर जाती थी! मैं मुस्कराया क्योंकि इस रास्ते की दशा में आज भी उत्तरोत्तर सुधार कम ही हुआ था ! ठेठ गढ़वाली में बोलूं तो गुज्यरु जैसा बाटा जो 20 से 25 बर्ष पूर्व था उसमें सुधार तो आया लेकिन आज भी बच्चे रास्ते को गंदा करने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं!
लौटते समय सौकार तोक में बैठा! वहीँ इसोटी के हर तोक के माल्टे चखे, हेमू भाई ने भी तोहफे में माल्टा दिया।अमेली की उतुंग शिखर पर नजर पड़ी तो याद आया वहां क्षेत्र के सुप्रसिद्ध समाजसेवी भतीजे कविन्द्र इष्टवाल द्वारा ग्रामीण सहयोग से दीवा वन देवी का बिहंगम मंदिर निर्माण करवाया हुआ है तो थोड़ा नीचे देहरादून के सालावाला रहने वाले सौकार ख्वाळ के उमेश इष्टवाल व परिजनों द्वारा काली मंदिर तथा अन्य द्वारा माँ का मंदिर बनवाया हुआ है उसके दर्शन किये!
सरहद ऐसे लग रही थी मानों मैंने बचपन में इन खेतों पर हल चलाया हो, घास लकड़ी काटी हो। माँ, बहनों-भाभियों को साथ ठठा मजाक किया हो, और मेरे पूर्वजों ने मुझे गोदी में उठाकर पूरा क्षेत्र घुमाया हो। सचमुच आँखें ख़ुशी से सजल हो गयी। जब विदा हुआ तो लगा घर छोड़कर जा रहा हूँ। मन भारी था पूर्वजों की ऐसी पैत्रिक धरा को मेरा नमन!