पृथ्वी से स्वर्ग की ओर एक रास्ता…..! यात्रा पथ पर ओसला का जनजीवन व वहां की शिल्पी नारी….!

( मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 29-05-2013/संस्मरण-4)

रात्री भोजन व दूध भरा गिलास जोत सिंहजी के घर रहा! मेरे सहपाठी सभी सरदार सिंह राणा जी के घर का आतिथ्य ग्रहण कर रहे थे. जोत सिंह जी की मंझली बेटी दो दिन से बुखार से तप रही थी जुखाम व सिरदर्द अलग से हाबी! मुझे उम्मीद दिखी कि मेरा प्राथमिक इलाज उन्हें ठीक कर सकता है. देहरादून से चलते समय मेरे अनुरोध पर माननीय स्वास्थ्य मंत्री जी ने विधान सभा परिसर में स्थित अस्पताल से कुछ दवाइयां प्राथमिक इलाज की हमारी टीम को मुहैया करवाई थी. वही दवा अब यहाँ काम आई ! जिसके कारण मुझे एक गिलास दूध नसीब हुआ।

आतिथ्य के साथ दूध यहाँ बिरले लोगों की किस्मत में ही लिखा है क्योंकि यहाँ के देवता के पुरोहित या माली (पश्वा) का आदेश होता है कि वह इस क्षेत्र का दूध किसी बाहरी ब्यक्ति को ना पिलाए. थानेश्वर देवता के हुक्म से यह सब होता है यह यहाँ के लोगों का मानना है. जोत सिंह जी से जब मैंने पूछा फिर हमें क्यूँ दूध पिलाया आपने ! उनका जवाब था – साहब आप कौन से बाहर के हुए, वैसे भी आप पंडित हैं, यह हमारा सौभाग्य है.

खैर सुबह उनकी बिटिया बिलकुल स्वास्थ्य नजर आई तो मैंने उनके कुल देवता को नमन किया. सुबह मंदिर परिसर में दवा मांगने वालों का तांता लग गया कोई अपना कमर दर्द कहता, तो कोई अपना सर दर्द तो कोई जबरदस्ती खांसता! मुझसे जितना बन पाया मैंने दो दो चार चार दवा गोलियां जिनका नाम के साथ प्रिस्क्रिप्शन लिखा था लोगों को दी. और इस पुण्य के लिए विधान सभा के डॉ. डोभाल व उनके स्टाफ का दिल से शुक्रिया अदा किया.

सुबह की दिनचर्या में सबसे बड़ी समस्या खुले में शौच की हुई. मैं ठहरा रफटफ पहाड़ी लेकिन मेरे साथ गए शहरों की पैदाइश युवाओं को काफी मशक्कत कर खुले में शौच के लिए कई खेत लांघने पड़े.

जहाँ ये टीम ठहरी थी वहीँ सरदार सिंह राणा द्वारा हथकरघा कहें या फिर हस्तशिल्प एक लंबा सा ऊनि कपड़ा लटका रखा था जिसको प्रेस करने के लिए बीच में एक मोटा साडंडा टांग रखा था ताकि यह ऊनि वस्त्र सूखने के बाद भी सिकुड़े नहीं. गॉव का एक कुत्ता जो हमारी टीम को सबसे प्यारा लगा वही एक मात्र था जो रातभर हमारी सुरक्षा व्यवस्था में रहा व विदाई पर हमें पवाणी गॉव की सीमा तक सकुशल छोड़ने आया.

जब हम गॉव से विदा हुए तो लगा गॉव के कुछ लोगों ने राहत की सांस ली क्योंकि रातभर विदेशी मेहमान कहाँ रहे यह पता नहीं लेकिन इन लोगों को यह मुसीबत थी कि हम निकलें तो बला टले.

ओसला की शिल्पकार बस्ती से निकलते हुए देखा कि कुछ महिलाये मशीन पर बैठ हस्तशिल्प से ऊनि कपड़ा बन रही हैं . मैंने वहां जाकर उसे समझने की कोशिश की. उनका भी यही कहना था कि आदमी दिन भर ध्याड़ी मजूरी के लिए भटकता है तो हमारे पास भेड़ बकरियों के ऊँन के कपडे बुनने के लिए आ जाते हैं जिस पर बहुत मेहनत लगती है साब! पहले ऊँन को धोओ फिर सुखाओ फिर सुलझाओ फिर कातो और फिर मशीन में उसे कपडे का रूप देना मनमाफिक डिजाइन बनाना इत्यादि कार्य होता है. मशीन खराब हो गयी तो घर ग्रहस्थी का चरखा भी बंद! गॉव की दुकान में भी आजकल उधार नहीं मिलता.

मुझे बड़ा आश्चर्य यह हुआ कि यहाँ सुबह से रात पड़ने तक महिलाएं ही अपनी हाड़तोड़ मेहनत से भागीदारी निभाती हैं फिर मर्द क्या काम करता है, यह समझना बेहद मुश्किल! खैर ओसला ग्राम को अंतिम प्राण कर उसके अंतिम छोर की माटी को ह्रदय से लगाकर मैं मन ही मन बुदबुदाया कि हे पर्वत देव इन पर्वत के लोगों की रोजी रोटी में बरकत रखना अपनी छत्रछाया में रिधि-सिधि देना ताकि इनका ह्रदय यूँही सबके लिए निष्कलंक रहे और मुझ जैसे और लोगों को आसरा देने की हिम्मत रहे.

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