पृथ्वी का स्वर्ग …हर की दून! करिश्माई है यहाँ कि धरती..मखमली बुग्यालों और बिभिन्न फूलों से लदी रहती है प्रकृति यह अनमोल छटा….!
पृथ्वी का स्वर्ग …हर की दून!
करिश्माई है यहाँ कि धरती..मखमली बुग्यालों और बिभिन्न फूलों से लदी रहती है प्रकृति यह अनमोल छटा….!
(मनोज इष्टवाल)
प्राकृतिक नैसर्गिकता और रूहानी महक से महकती इस घाटी में जब आप कदम रखेंगे तो पता चलता है कि आप एक अकूत सौन्दर्य के धनी पृथ्वी के ऐसे भू-भाग में आ गए हैं। जिसमें निरूशब्द प्रकृति का अटूट प्यार बसा हुआ है…जहाँ देव आत्माओं का शांत और सौम्य प्रदेश निवास करता है। हिमवत का यह भू-भाग उतुंग हिमालई शिखरों के मध्य फैला एक ऐसा क्षेत्र है जिसके तीन और चमचमाते चांदी के बर्फीले पहाड़ और बाकि धरा पर पसरी मखमली हरियाली भरे बुग्याल मन मोह लेने को काफी हैं। वहीँ इन बुग्यालों में फैले सैकंडों प्रजाति के पुष्प ऐसे दिखाई देते हैं जैसे यहाँ देवताओं ने अपने स्वप्न लोक की फुलवारी की क्यारियाँ तैय्यार की हों।
उत्तराखंड प्रदेश का उत्तरकाशी जनपद वैसे भी गंगा जमुना का उद्गम स्थल माना जाता है, जिन्हें दो धाम की संज्ञा दी गयी है लेकिन ट्रैकिंग के लिए यह क्षेत्र स्वर्ग के सामान है। हर साल यहाँ सैकड़ों की संख्या में ट्रेक्कर्स आते हैं। पृथ्वी के इस स्वर्ग यानी हर कि दून तक पहुँचने के लिए आप सबसे उपयुक्त उत्तराखंड कि राजधानी देहरादून का मार्ग चुने, क्योंकि यहाँ से आप विकास नगर, कट्टा-पत्थर,जमुनापुल होकर नैनबाग या फिर मसूरी, कैम्पटी फाल होकर नैनबाग होते हुए डामटा, बर्निगाड, नौगॉव, पुरोला, मोरी, नैटवाड, सांकरी होते हुए तालुका तक मोटर मार्ग से जा सकते हैं। रास्ते भर आप प्रकृति का लुफ्त भी उठा सकते हैं वहीँ बर्निगाड से ५ किलोमीटर कि दूरी पर स्थित यमुना नदी के बायीं छोर पर बसे पांडवों के लाक्षागृह (लाखामंडल) में भी घूम सकते हैं।
(हर की दून पैदल पथ पर)
तालुका से शुरू होता है आपका पैदल मार्ग का बेहद सुन्दर सफ़र…? प्रकृति का आनंद लेते हुए सुपिन नदी के बायीं ओर से आप अखरोट, मोरू, कैल, देवदार, रई, पुनेर, खर्सों के वृक्षों के बीच से गुजरते हुए कलकल छलछल करती सुपिन नदी के समांतर चलते हुए अपना पहाड़ी सफ़र शुरू करते हैं। रास्ते भर मोनाल, तीत्तर, बटेर, मैना, कोयल,और जंगली मुर्गियों के अलावा गोबिंद वन्य पशु राष्ट्रीय पार्क के कई अदभुत वन्य जीवों के भी आपको दर्शन होते रहेंगे। हर-की-दून पहुँचने के लिए आप कोताही मत कीजिये। प्राकृतिक नैसर्गिकता का भरपूर आनंद लेते हुए यहाँ की यात्रा का लुफ्त उठाते हुए आगे बढें। सांकरी से आपको ट्रैकिंग सम्बन्धी सारी जानकारियाँ देने के लिए जहाँ वहां ट्रैकिंग के व्यवसायिक जानकार मिल जायेंगे वहीँ आप गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के कर्मचारियों से भी इस सम्बन्ध में जानकारी ले सकते हैं. क्योंकि सांकरी में ही रेंज कार्यलय भी है। यात्रा शुरू करने से पूर्व आप सांकरी या तालुका में भी रुक सकते है। गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के अधीन तालुका तक सड़क मार्ग के अंत में एक खूबसूरत सा बंगला निर्मित है जिस पर वर्तमान मैं विभाग कुछ मूल-भूत अन्य सुविधायें जुटाकर उसे और खूबसूरत बना रहा है। यहाँ आपको चैकीदार ……..का भरपूर सानिध्य मिलेगा एवं विभागीय कर्मियों का शिष्ट व्यवहार आप महसूस करेंगे।दोनों जगह सरकारी बंगलों के अलावा व्यावसायिक होटल भी हैं। हो सके तो सांकरी से ही अपने खाने पीने का छोटा मोटा सामान साथ लेकर चले. यहाँ आपको लोकल पोर्टर मिल जायेंगे।
(हर की दून)
मेरी दृष्टि में तालुका से हर-की-दून का ट्रेक (यात्रा) करना सही रहेगा। रात्रि विश्राम आप गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा निर्मित रेस्ट हाउस या फिर वन विभाग के विश्राम गृह के अलावा वहां के स्थानीय होटल में रह सकते हैं। सुपिन नदी के साथ शुरू हुआ आपका यह रोमांच भरा सफ़र डाट्मीर गॉव की सरहद के नीचे आपको सुपिन और डाट्मीर गाड ़(सिंया गाड़) के संगम पर एक सुन्दर से मैदान में ले जाता है। कई प्रकृति के चितेरे यहीं अपना तम्बू गाड़कर अपनी सुनहरी रात गुजारते हैं। हमारे साथ चल रहे गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के बीट लठैत सूर्य प्रकाश ने जानकारी देते हुए बताया कि यहाँ से लेकर लाडा उड़ार तक की सीमा सिंया गाड में ही पड़ता है। लाडा उड़ार से भले ही सुपिन नदी पर वन विभाग द्वारा सुपिन नदी पार करने के लिए वन कर्मियों की गश्त हेतु रास्ता जाता है। आपको जानकारी दे दें कि लाडा उड़ार तक का पैदल मार्ग सुपिन नदी के लगभग १० मीटर से ५० मीटर दूरी पर समान्तर चलता रहता है। यहीं से हल्की चढ़ाई शुरू होते ही सुपिन नदी से कभी हम ज्यादा दूर तो कभी बिलकुल पास होते हुए निकलते हैं लेकिन सुपिन नदी के तेज बेग की आवाज़ आपके कानों तक रास्ते भर गूंजती रहती है।
तालुका से १०-११ किलोमीटर की दूरी पर बसे सुपिन नदी के दायें छोर पर गंगाड गॉव के देवदार कि लकड़ी से निर्मित भव्य भवन दिखाई देंगे जिनमें कास्तकारी कि बेमिशाल छवि आपको दिखाई देगी। यहीं पर्वत क्षेत्र के लोगों का प्रसिद्ध देवता सोमेश्वर का मंदिर भी है, वहीँ भैरों देवता भी इस गॉव में विराजमान हैं। यहाँ के चैहान अपने आपको उप्पू गढ़ (टिहरी गढ़वाल) से आया हुआ बताते हैं। आप गंगाड गॉव से लगभग आधा किलोमीटर पहले जंगल में बने ग्रामीण के छोटे से ढावे में चाय कि चुस्कियां ले सकते हैं, लेकिन यहाँ पर अगर मन न भी हो तो आप गंगाड गॉव में बने दो छोटे छोटे चाय के खोकों पर भी चाय पी सकते हैं। यहाँ पर सुपिन में गंदरैण गाड़ मिलती है. यहाँ की चाय में आपको पाउडर का दूध मिलेगा। मेरी तरह आप भी विश्मय में पड जायेंगे कि बुग्यालों की सैर पर निकले क्या यहाँ के लोग गाय-भैंस नहीं पालते होंगे,लेकिन यहाँ की कहानी कुछ और है। यहाँ के लोगों कि धारणा है कि यदि कोई नीच जाति का व्यक्ति उनकी गाय या भैंस का दूध पी लेगा तो गाय के थन से खून निकलना शुरू हो जाता है। वैसे मुझे गॉव में तो खूब दूध घी एवं दही मिली। वैसे इस क्षेत्र (पर्वत क्षेत्र) के लोग बहुत सरल और सज्जन हैं, हर कोई आपसे घुल-मिल लेगा. गंगाड गॉव तक का १० से ११ किलोमीटर का सफ़र आप २ से ढाई किलोमीटर की रफ़्तार से तय कर यहाँ तक आराम से ४ घंटे में पहुँच जाते हैं। बिना किसी थकान के. भले ही सीमा (ओसला) तक ३ से चार किलोमीटर का सफ़र आप दो घंटे में तय करें क्योंकि आपको रात्रि विश्राम यहीं करना होगा इसकेे पीछे कारण यह भी है कि यहाँ ठहरने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम व गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रिय पार्क का विश्राम गृह निर्मित है। पास ही दो ढावानुमा होटल भी हैं जिनमें आपकी भोजन व्यवस्था का बंदोबस्त हो जाता है। यहाँ वन विश्राम गृह के चैकीदार सरदार सिंह का आतिथ्य लेना मत भूलिए। मुझे ख़ुशी है कि गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क ने यहाँ अतिथि देवो भवरू की परंपरा पर चैकीदार रखे हुए हैं. जिनका व्यवहार आपके मन को अवश्य भायेगा।
(आटापीक हर की दून)
सीमा (ओसला) के विश्राम गृह से सौ मीटर की दूरी पर सुपिन नदी में एक पुल बना है जिसे आप दूसरी सुबह जल्दी तैयार होकर हर-की-दून पहुँचने को पार करते हैं। यहाँ से आप सुपिन के दायीं ओर हो जाते हैं जबकि बायीं ओर से एक रास्ता रुइनसारा ताल के लिए चला जाता है जो ब्लैक पीक (कालिंदी पर्वत) के आस-पास है.पुल पार करते ही बायीं ओर से रास्ता उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश के सीमान्त गॉव ओसला के लिए मुड़ जाता है जो यहाँ से लगभग ४०० मीटर कि दूरी पर है, लेकिन आप को यहाँ से तंग रास्ते की लगभग २०० मीटर कि खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो आपको ओसला से सीधे हर-की-दून जा रहे रास्ते पर ले जाता है। आगे चलकर कंडारा खड्ड (नदी) पर बने पुल को आप जैसे ही पार करते हैं आपके दाहिनी ओर कंडारा देवी का मंदिर दिखाई देगा। कहा जाता है कि इसमें मन्नत मांगने से सबकी मनोकामना पूर्ण होती हैै। पर्यटक मंदिर में मत्था टेकते हैं और अपनी यात्रा कि सलामती हेतु दुआ मांगते हैं। आगे चलकर आपको एक और नदी मिलेगी जिसका पुल बह गया है लेकिन इसमें तेजी से निर्माण कार्य चल रहा है, इसे उपला खड्ड कहते हैं। जिसे पार कर आप विनाई पहुँचते हैं जहाँ ओसला गॉव के ग्रामीणों की खेती है और वह यहाँ फाफरा और ओगल बोते हैं। वर्तमान में (मई माह) में बुबाई का कार्य चल रहा है। यहाँ आपको सीधे सरल ग्रामीण मिल जायेंगे। हमारे साथ चल रहे फारेस्ट गार्ड को वहां की एक महिला ने कहा कि या तो हमें निवान दे दो या फिर जड़ी खोदने दो। जिनके खेत हैं वो खेती कर अपने बच्चे पाल रहे हैं हम यहाँ भूखे ही मर रहे हैं। मैंने फारेस्ट गार्ड राणा जी से जानकारी चाही तब पता चला कि विगत वर्ष इस क्षेत्र में नागक्षत्री नामक जड़ी का बड़ी संख्या में दोहन हुआ था जिससे यहाँ के लोगों ने लाखों रुपये कमाए। चूंकि अब विभाग ने पाबंदी लगा दी है इसलिए गरीब लोग इस बात से बहुत खफा हैं। विनाई खड्ड (सरी गाड़) पार करने के पश्चात् आगे अगली पहाड़ी गदेरा रींडू गाड़ है जहाँ पर आप ओसला के राम लाल की चाय का आनंद ले सकते हैं। चाय वही पाउडर के दूध वाली मिलेगी। यहाँ से यहाँ वन विश्राम गृह के चैकीदार सरदार सिंह का आतिथ्य लेना मत भूलिए. मुझे ख़ुशी है कि गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क ने यहाँ अतिथि देवो भवरू की परंपरा पर चैकीदार रखे हुए हैं. जिनका व्यवहार आपके मन को अवश्य भायेगा. यहाँ वन विश्राम गृह के चैकीदार सरदार सिंह का आतिथ्य लेना मत भूलिए. मुझे ख़ुशी है कि गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क ने यहाँ अतिथि देवो भवरू की परंपरा पर चैकीदार रखे हुए हैं।जिनका व्यवहार आपके मन को अवश्य भायेगा. हल्की चढ़ाई के बाद आप अलछयूँ तोक पहुँचते हैं। यह ओसला गॉव की आखिरी कास्तकारी सीमा है। यहाँ पूर्व में १०-१५ मकान बताये जाते हैं जो अब घटकर दो रह गए हैं और उनमें भी कोई नहीं रहता। यहाँ से सुपिन नदी से आपकी दूरी धीरे धीरे बढ़नी शुरू हो जाती है। सुपिन नदी के दूसरे छोर पर आपको एक लम्बा समतल मैदान दिखाई देगा जो रुइनसारा ताल के रास्ते में पड़ता है जिसे दयुसू थात के नाम से जाना जाता है। फारेस्ट गार्ड अमी चंद राणा ने जानकारी देते हुए बताया कि इसी रास्ते काला नाग पीक से आप बाली पास पहुँचते हैं। अब शुरू होता है बुग्यालों का सफ़र..? अलछयूँ तोक के बाद आपको बुग्यालों के ढलान दिखाई देंगे जिनमें कई किस्म की वनस्पति व जड़ी बूटियाँ दिखाई देंगी। यहाँ से कलकत्ति धार तक आपको सांस फुलाने वाली चढ़ाई से गुजरना पड़ेगा। कलकत्ति धार में जहाँ आपको पर्यावरणीय सुख देती खुशबूदार हवाएं मिलेंगी वहीँ मौसम ख़राब हो तो यहाँ का सुखद आनंद ज्यादा देर तक मत लीजियेगा क्योंकि कब तेज हवाएं चलनी शुरू हो और कडकती बिजली आपके सर के ऊपर कौंदे पता ही नहीं चलता।
(वनदेवी थान व पार्श्व में फारेस्ट गेस्ट हाउस हर की दून)
उत्तराखंड में और कलकत्ति धार..? यह प्रश्न जरुर आपको परेशान करेगा लेकिन कहा जाता है कि आदिगुरू शंकराचार्य ने यहाँ रूककर कुछ देर विश्राम किया था वहीँ दूसरा तर्क है कि बंगाली मूल के पर्यटक सबसे ज्यादा यहाँ ट्रेक करते हैं उन्होंने ही इसका नामकरण किया। बहरहाल जो भी हो कलकत्ति धार है कमाल की क्योंकि इसके ठीक नाक के नीचे से सुपिन नदी बनती है जो सर्प के मानिंद बहती हुई रुपिन नदी से मिलकर टोंस (तमसा) नदी को नैटवाड में जन्म देती है। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ग्लेशियरों ने नीर से भरी यह नदी कभी भी पर्वत क्षेत्र के लोगों के किसी काम नहीं आई वहीँ दूसरी कहावत है कि १२ वर्ष तक इस नदी का जल पीने से मनुष्य को कोढ़ रोग हो जाता है। इस अदभुत गुत्थी को सुलझाने के लिए फारेस्ट गार्ड अमी चंद राणा ने मेरी सहायता की उन्होंने जानकारी देते हुए कि किंवदंति है कि ऋषि त्रिशंकु जिन्दा ही अपने ताप बल से स्वर्ग जा रहे थे कि उनकी पतिवर्ता पत्नी की आवाज़ सुनकर वो आकाश में उल्टा लटक गए और पत्नी वियोग में निकले उनके दो आंसुओं ने सुपिन और रुपिन नदी को जन्म दिया। कलकत्ति धार के नीचे जन्म लेने वाली सुपिन नदी, रवेस बाड़ नदी (काला नाग पर्वत से निकलने वाली) और हर-की-दून नदी के संगम से बनती है। कलकत्ति धार का तीखा मोड़ बायीं और मिलते ही आपको एक ललाट कि तरह खड़ा पत्थर दिखाई देगा। यहाँ पहुँचते ही आपको हर-की-दून (हरपु) घटी का बिहंगम दृश्य दिखाई देगा। इस ललाट में आप पत्र पुष्प चढ़ाना मत भूलिए स्थानीय लोग इसे ब्रह्मढून्गी के नाम से जानते हैं।
ब्रह्मढून्गी के पार जाते ही प्रकृति का अपार साम्राज्य आपको दिखाई पड़ेगा, दूर-दूर तक हर-की-दून क्षेत्र के हर भरे बुग्याल, और विशाल हिमनदों के साथ फैले हिमालयी उतुंग पहाड़ मन मोह लेने के लिए काफी हैं. प्रकृति के इस जादुई करिश्मे में पर्यटक उलझ से जाते हैं. बहुत देर तक प्रकृति के इस रूप कि अनुपम छटा को निहारने के बाद आप मंत्र मुग्ध हो कह पड़ेंगे बस इतना ही दूर रह गया अब. लेकिन यह सफ़र जितना नजदीक दिखाई देता है उतना है नहीं..? आपको सब्र से काम लेना होगा बस कई जड़ी बूटियों को निहारते हुए आप भोज वृक्षों के उपवन से गुजरते हुए जब मखमली बुग्यालों की ओर पदार्पण करेंगे तब आपको कई भेडाल अपनी सैकड़ों भेड बकरियां चुगाते हुए मिल जायेंगे. जिनके भोटिया नस्ल (जिन्हें ये भेड़िया नाम से पुकारते हैं) के कुत्ते आप पर हर वक्त नजर बनाये रखते हैं. भोज वृक्षों के पार कर आप पोली गाड़ के झरने का लुफ्त उठाये यहाँ से आपको हलकी सी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो आपको हरे समतल बुग्यालों में ले जाति है. एक कंटीली झड़ीनुमा वृक्ष पर खिले सफ़ेद फूल आपका मन मोह लेंगे. वन रक्षक अमी चन्द राणा ने बताया कि इस विक्ष को स्थानीय भाषा में अमलोच कहते हैं, इस पर लाल खट्टे छोटे छोटे फल लगते हैं जिसे यहाँ की स्थानीय महिलाएं विशेषकर बर्फ के साथ मिलकर बड़े शौक से खाते हैं. जिस से पेट की तासीर ठीक होती है. यह फल हिमालयी सफ़ेद भालू का सबसे प्रिय भोजन होता है इसलिए संभल कर रहिये क्योंकि आप गोबिंद वन्य पशु विहार में विचरण कर रहे हैं, आपको ऐसे ही कई वन्य प्राणी मिल जायेंगे जिन्हें देखकर आपकी रूह कांप सकती है इसलिए दल-बल के साथ साथ सफ़र कि निरंतरता बनाये रखें.
(पौरुषवर्द्धक नागक्षत्री हर की दून)
हमें यहाँ रास्ते में कई जगह भोज वृक्ष की अद्जली लकडियाँ दिखाई दी जिसे देख मन को पीड़ा होती है कि जिस भोज वृक्ष की छाल से हमारे धर्म-ग्रन्थ लिखे गए उनका इतना बुरा हश्र हो रखा है. वन रक्षक अमी चंद राणा ने मेरा कौतुहल शांत करते हुए कहा कि यह क्षेत्र के भेडाल जलाते हैं क्योंकि यहाँ के मौसम का पता नहीं लगता कि कब धुप लगे कब बादल आयें और कब बारिश ओले या बर्फ गिरनी शुरू हो जाए. ऐसे में सिर्फ भोज वृक्ष की छाल ही आग जला सकती है वरना कोई भी लकड़ी जलाई नहीं जा सकती. यह वास्तव में ट्रैकिंग से जुड़े मेरे सभी अनुभवों में सबसे निराला अनुभव था. पोली खड्ड एक के बाद एक दो पहाड़ी नदी के रूप में तेजी से बहने वाली बर्फीले जल की लघु सरिता का पानी जब आपके पैरों का स्पर्श पता है तब आपको पता चल जाता है कि ये हिमखंडो से निकल रहा जल कितनी शीतलता लिए हुए है. इन दोनों पहाड़ी नदियों के पार बुग्यालों का साम्राज्य शुरू हो जाता है जो कोसों दूर तक आदि तक फैले हुए हैं. बुग्यालों में उगी हरी वनस्पतीय घास में सैकड़ों प्रजाति के पुष्पों की सुगंध और भाँती-भांति के फूल आपको समोहित से कर देते हैं जिनकी ताजगी से आपमें मदहोशी या बेहोशी सी छाने लगती है, इन फूलों की खुशबू के बीच आपकी साँसों में भी तेजी आना शुरू हो जाती है जिसका सीधा मतलब है कि अब ऑक्सीजन की कमी होनी शुरू हो गयी है.इन विशाल बुग्यालों में सैकड़ों भेड बकरियां चुगाते भेडाल (भेड़-बकरियों के चरवाह) आपको अपनी ही धुन में ऊँचे सुर में लामण या छोड़े गाते सुनाई देंगे जिनकी पीड़ा आपके दिल में उतर कर कह उठेगी कि काश- थोडा और पास होते तो इनकी अनूठी संस्कृति से रूबरू जरुर होते. पोली खड्ड से तीन किलोमीटर चलने के बाद हर-की-दून की पहाड़ियां ऊँचे विभिन्न प्रजाति के वृक्षों से ऐसे ढक जाता है माना प्रकृति ने रंगमंच पर पर्दा डाल दिया हो. आपको अब अपनी धमनियों की में तेजी महसूस होगी सांस फूलनी शुरू हो जायेगी क्योंकि हलकी चढ़ाई शुरू होते ही आपको प्रकृति का भव्य लोक जो देखना है.
चढ़ाई समाप्त होते ही एक विशालकाय पत्थर की ओट में न चाहते हुए भी आपको अपनी साँसे नियंत्रित करनी पड़ती हैं और जैसे ही आप दो कदम समान्तर बढाते हुए आगे नजर दौडायेगे तो आप हतप्रभ रह जायेंगे और आपके मुंह से अचानक ही यह शब्द निकलने शुरू हो जायेंगे ‘‘धराधामभूतम सदा वन्दनीयम मृगैरू सिन्ह्व्याघ्रेरू सदाशोभनीयम। हिमाच्छादितम पादपैरू शोभितं च नमामि हरि हरि दून नित्यं‘‘।। क्योंकि फूलों से लकदक बुग्याल के ठीक बीच से मनिन्दा ताल से निकलने वाली मनिन्दा खड्ड (नदी) उछलती कूदती ऐसे दिखाई देती है जैसे विरह मिलन की पीड़ा को मिटाने के लिए वह आपको अपने आगोश में लेकर पूछना चाह रही हो कि कैसा रहा सफ़र..? कहीं कोई तकलीफ तो नहीं हुयी। सच मानिए तब आप हिम-शिखरों के मध्य खड़े होकर हरपु (हर-की-दून) के अलौकिक स्वरुप में ऐसे खो जाते हैं जैसे पृथ्वी के स्वर्ग में आ गए हों। आप का थक शरीर और पसीने की बूंदे एकाएक गायब हो जाती हैं, आपको लगने लगता है मानो अभी अभी आपने अपनी यात्रा प्रारम्भ की हो।
मनिन्दा नदी पर गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के कर्मियों ने एक छोटा सा खूबसूरत लकड़ी का पुल निर्मित किया है जिसे पार करते ही उनका वन विश्राम गृह आपका स्वागत करता नजर आएगा। मनिन्दा नदी और वन विश्राम गृह के आस-पास पर्यटक उचित स्थान देखते हुए तम्बू गाड़ देते हैं। वन विश्राम गृह के चैकीदार चंदराम अपने अजीबोगरीब हुक्के के साथ हमारा स्वागत करते दिखाई दिए। जैसे ही उन्हें ध्यान आया कि उनके हाथ में हुक्का है वह उसे अन्दर रख कर आये और हाथ जोड़कर अतिथि सत्कार में जुट गए। उनके हुक्के की खासियत इसलिए भी बताना चाहूँगा कि ऐसा हुक्का मैंने शायद ही अपनी जिंदगी में पहली बार देखा हो। हाल ही में विभाग ने अपने तालुका, सीमा (ओसला), एवं हर-की-दून के बंगलों की दिशा और दशा बदलने के लिए जहाँ नये बेड और फर्नीचर भेजा है वहीँ उनकी रंगाई भी बहुत तरीके से करायी गयी है। उसी रंगाई के खली डिब्बे में ढक्कन की ओर से छेद करके बीच में प्लास्टिक के पाइप के ऊपर आधी टूटी साज और फिर हुक्का गुडगुडाने के लिए जिस तरह उन्होंने दो तीन पाइप के टुकड़ों का इस्तेमाल किया था उसे देखकर आपकी भी हंसी छूट जायेगी।
हमारा फर्ज बनता है कि हम गोबिंद वन्य पशु विहार के डी.एफ.ओ. ,निदेशक, उप-निदेशक से लेकर हर उस छोटे कर्मी का शुक्रिया अदा करें जिन्होंने अपने महकमे की शान को इतनी ऊँचाईयों तक बनाये रखा है। यहाँ से लगभग १०० मीटर की दूरी पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का बंगला भी है जो रख रखाव की कमी के कारण व विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों की उदासीनता के कारण अपनी आखिरी सांसें गिनता नजर आ रहा है। गढ़वाल मंडल विकास निगम के तालुका, सीमा और हर-की-दून स्थित तीनों बंगलो का एक सा हश्र है जबकि ट्रैकिंग साइड पर गढ़वाल मंडल विकास निगम ही उत्तराखंड का परिचय करवाता नजर आएगा। इस बात पर हमें गंभीर होना जरुरी है ताकि दुनिया भर के पर्यटक निराश होकर न लौटें।
मनिन्दा नदी के सहारे आप बुग्यालों को लांघते हुए अगली सुबह अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दो ढाई घंटे में मनिन्दा ताल की खूबसूरती निहारने जा सकते हैं। यहीं से बदासू पास को रास्ता जाता है जहाँ हमारी फौज चीन सीमा से अपनी सीमाओं की रक्षा में मुस्तैद है। वहीँ अगली सुबह आप जौंधार (ज्यूँधार) ग्लेशियर हेतु मीलों फैले बुग्याल के साथ साथ स्वर्गारोहिणी पर्वत के विपरीत व बन्दर पूछ श्रृंखलाओं के पादप क्षेत्र से गुजर कर जा सकते हैं। जहाँ की सुन्दरता आपका मन मोह लेगी और आप सोचने लगेंगे कि काश इसी स्वर्ग में अपना बिछौना होता जहाँ न कोई फिकर है न कोई द्वेष।
कथाओं कहानियों और किवंदंतियों की अगर हम बात करें तो आपको यहाँ तीन चार दिन अवश्य रखना होगा तब आप यहाँ के असर को समझ सकेंगे। अपने अनुभवों का ब्याख्यान करते हुए मुझे ख़ुशी है कि मुझे वहां के ग्रामीणों व वन कर्मियों का सानिध्य प्राप्त हुवा जिनके माध्यम से मैंने हर हिम खंड हर पुष्प, हर पत्थर व हर हिम शिखर की जानकारी प्राप्त की।
सबसे कारुणिक कहानी यहाँ ओसला के हरपु नामक बाजगी (ढोल वादक) की है। दरअसल वन विश्राम गृह में रात्री विश्राम कर रहे मैं और मेरे सहयोगी उस समय अजीबोगरीब स्थिति में थे जब हमें प्रातरू ४ बजे अचानक ढोल की आवाज में नौबत बजने के सुर सुनाई दिए। सुबह जब मैंने बंगले के चैकीदार चंदराम से जानकारी चाही तो पहले वह टालने लगे लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था। उनके पास वहां के भेडाल और पोर्टर हुक्का पीने के लिए बैठे हुए थे। जब वन रक्षक अमी चन्द राणा ने उन्हें उनकी भाषा में हरपु की कहानी को बताने की बात कही तो क हैण्ड राम बोल ही पड़े- साब मैं इसलिए नहीं बताता कि कहें लोग ये न कहें कि पागल है कपोल कल्पित बातों से हमें बहलाने की कोशिश कर रहा है। मैंने कई बार लोगों से पूछा भी कि क्या तुमने भी ढोल की आवाज़ सुनी तब सबने मेरा मजाक ही बनाया। अब तक मेरे सहयोगी संजय चैहान, प्रशांत नैथानी, गौरव इष्ट्वाल भी चाय की चुश्कियाँ लेते पहुँच गए थे।
हरपु की जो कहानी सामने आई वह यह थी कि हरपु नामक बाजगी हर वर्ष भेडालों से ऊँन मांगने यहाँ आया करता था क्योंकि सारे भेडाल एक नियत तिथि पर ही भेड़ों के बाल काटा करते थे। उस वर्ष भी हरपु ढोल लेकर आया और नौबत बजाकर भेडालों के पुरखों का गुणगान करता रहा वह ढोल सागर की धुन में ऐसे उलझा कि उसने अपना सारा ज्ञान उसी में झोंक दिया। कहा जाता है कि मात्रियों (पर्वत में निवास करने वाली अप्सराओं/परियों) को हरपु का ढोल इतना पसंद आया कि वे उसे ढोल सहित उड़ाकर बन्दरपूँछ पर्वत की काली छोटी पर ले गयी तब से हरपु का सिर्फ ढोल ही सुनाई देता है वह भी किसी किसी को। इसीलिए हर-की-दून को यहाँ के स्थानीय लोग हरपु नाम से पुकारते हैं। हम भाग्यशाली थे कि हमें हरपु के ढोल की नौबत सुनाई दी वरना हम भी इस कहानी से महफूज रह जाते।
यहाँ हर शीला खंड के नीचे कोई न कोई कथा कहानी या किंवदंती छुपी हुई है शायद इसलिए इसे देव लोक या पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है। हर-की-दून का यह लेख बहुत विस्तृत हो जाएगा अगर मैं यहाँ की जानकारी देने लगूं। हरपु के जिन्दा देव लोक जाने की गवाह जहां बन्दरपूँछ के दायीं ओर की आटा पीक की पहाड़ियां हैं जिसके दूसरी ओर चीन का लाल साम्राज्य है वहीँ बायीं ओर पांडवों को जिन्दा स्वर्ग पहुंचाने की गवाह स्वर्गारोहिणी की पर्वत श्रृंखलाएं भी हैं!
बुग्याल धरा पर बिखरे प्रकृति के रत्न स्वरूपी सैकड़ों पुष्पों की प्रजातियाँ जिनमें लेसर, फ़र, जयाण, ब्रह्मकमल,भेड-फूलुड़ी,भेड़गदा, जयरी, बुरांस, सिमरु,सफ़ेद कमल,विश्कंदारी,सुन्फुलुदी इत्यादि सैकड़ो पुष्प हैं जो नित देवताओं और प्रकृति का श्रृंगार कर पर्यटकों से कहते नजर आते हैं. ‘‘श्रद्धापूर्णरू सर्वधर्मारू मनोरथफलप्रदारू।श्रद्दयाम साध्यते सर्वश्रद्दया तुष्यते हरिरू‘‘।। अर्थात् श्रद्धा पूर्वक सभी धर्मों के आचरण करने वाले मनुष्यों को मनोरथ प्रदान हो,यही श्रद्धा सबके प्रेम में बसी हो तो उससे श्री हरि प्रसन्न रहते हैं.