पूरा पहाड़ समाया है हिमालयन समीर के मसूरी स्थित म्यूजियम में! लोककला, लोकसमाज, लोकसंस्कृति का अनोखा उदाहरण! ….एक यात्रा वृत्त!

पूरा पहाड़ समाया है हिमालयन समीर के मसूरी स्थित म्यूजियम में! लोककला, लोकसमाज, लोकसंस्कृति का अनोखा उदाहरण! ….एक यात्रा वृत्त!
(मनोज इष्टवाल)
उस दिन मुझे विकास नगर स्थित शनि धाम के महान ज्योतिष बिनायक बडोनी बरबस याद आ गए जब मैं सोहम में पहुंचा! सोहम यानि एक ऐसा सपनों का संसार जिसकी संरचना में एक पति पत्नी ने अपनी उम्र के वो बीस बसंत यूँहीं गुजार दिए जिन्हें यौवन काल की अंगडाई कहा जा सकता है! उनके इस कठिन तप को देखकर वास्तव में उनके कार्य के आगे अंतर्रात्मा नतमस्तक हो जाती है!

(सोहम द हिमालयन म्यूजियम मसूरी)
आप सोच रहे हैं कि सोहम की बात में शनिधाम के ज्योतिषाचार्य बिनायक बडोनी का क्या काम! तो सुनिए बिनायक बडोनी की परिकल्पना भी अपने शनि धाम में पूरे पहाड़ को उकेरने की है! उन्होंने इस कार्य के लिए मेरा भी चयन किया लेकिन अब मुझे लगता है कि मेरा चयन गलत साबित हो रहा है क्योंकि मैं उन्हें स्वयं को साबित करने में अभी कामयाब नहीं समझ पा रहा हूँ! लम्बी दास्ताँ है लेकिन पहाड़ प्रेम की जो परिकल्पना मैंने बिनायक बडोनी जी की स्वप्निल आँखों से उतरकर अंतर्मन को छूने की देखी वही परिकल्पना के तार जब मैंने हिमालयन समीर यानि समीर शुक्ला और उनकी अर्धांगनी श्रीमती कविता शुक्ला के सोहम म्यूजियम में देखी तो हैरत में पड गया !
28 दिसम्बर 2017 की शाम अचानक हाई फीड के निदेशक उदित घिल्डियाल का फोन आता है कि कल सुबह तैयार होकर 11 बजे तक आप वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी के घर पहुँच जाइए हमें कहीं निकलना है ! इट्स अर्जेंट..! बस इतनी बात हुई कि फोन कट गया और कटते ही राजेन्द्र जोशी जी का फोन आ गया – अपनी चिरपरिचित गाली देने वाली भाषा में बोले- कल सुबह घर आ जा! यहीं नाश्ता करना है! ज़रा कहीं चलना है सुबह..! मैंने बताया उदित का भी फोन आया था लेकिन जाना कहाँ है बताया नहीं!  उन्होंने जबाब दिया – तू आ जा फिर प्लान करेंगे!
मुझे वह दिन याद आ गया जब वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत व राजेन्द्र जोशी  मुझे प्रेम नगर तक चलने के बहाने जौनसार के सहायक निदेशक सूचना कलम सिंह चौहान जी की बहन की शादी में ले गए थे! अत: इन गुरु घंटालों ने इतना तो सिखा ही दिया था कि कहीं चलना है मतलब अपनी व्यवस्था से आना!

(हाई फीड के निदेशक उदित घिल्डियाल)
मैंने अगले दिन सुबह कैमरा वगैरह तैयार किया और पहुँच गया  राजेन्द्र जोशी के घर! अहा जबर्दस्त नाश्ता! कैमरे की बैटरी देखी तो दोनों ही जीरो परसेंट! वही चार्ज पर एक लगाईं और दूसरी निकाली! वह बैटरी मैंने मसूरी छोड़ी या फिर कहीं रास्ते में गिरी आज तक पता नहीं लग पाया! खैर हम दोनों इतना छककर गए थे कि पेट में जगह नहीं थी! मसूरी पहुंचे तो उदित की नाक में पकवानों की खुशबु ने उनके पेट का हाजमा और बढ़ा दिया! इस स्टाल पर ये उस स्टाल पर ये..! अहा गुरु मजा आ गया!  उदित अपनी रौ में थे और हम दोनों के लिए वे पकवान व्यर्थ ! क्योंकि पेट के किसी कोने पर कोई जगह नहीं! यहाँ फ़ूड फेस्टिवल चल रहा था जिसमें मसूरी के नामी होटल्स अपने स्टाल सड़क पर लगाए हुए थे जिसमें गढ़वाली पकवानों व्यंजनों की भी भरमार थी!

(समीर शुक्ला अपनी आर्ट गैलरी में)
मसूरी की एक ही खासियत मुझे पसंद है! और वह यह कि यहाँ का प्रजेंटेशन अन्य हिल स्टेशनों से अलग होता है! मैं अपने पौड़ी की परिकल्पना करता हूँ कि आने वाले पांच से सात सालों के अंदर जब श्रीनगर तक रेल पहुंचेगी तब यह तो तय है कि पर्यटन के क्षेत्र में हमारा पौड़ी एक नई कहानी रचने को तैयार होगा लेकिन क्या पौड़ी के होटलिस्ट अपने व्यवहार में लचीलापन ला पायेंगे यही यक्ष प्रश्न मुझे खाए जाता है!

(वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी, उदित घिल्डियाल व लेखक)
उदित बस खाए जा रहे थे और हम दोनों के पास उनको देखने के अलावा कोई काम नहीं!  राजेन्द्र जोशी बोर होने लगे थे उन्हें वापस जाने की जल्दी थी और मैं असमंजस में था कि हम आये क्यों हैं मसूरी! अचानक मुझे हिमालयन समीर तक याद आये जब उदित के सिर पर उनकी प्रयोग वाली टोपी देखी! मैंने उन्हें फोन मिलाया और उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की! वे ख़ुशी –ख़ुशी मिलने को तैयार हो गए! बमुश्किल एक घंटे बाद हम “सोहम द हिमालयन म्यूजियम” में जा पहुंचे जहाँ चिरपरिचित अंदाज में समीर शुक्ला हमारे इन्तजार करते दिखाई दिए!

(ठेठ पहाड़ की बानगी! ऊनि त्यूंखा, चिलम हुक्का इत्यादि)
बमुश्किल पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी थी कि सोहम म्यूजियम में पत्थर पर तरासी गयी बोलती सी प्रतिमाओं ने हमारे कदम रोक लिए ! मेरा कैमरा क्लिक करता तो इन दोनों के मोबाइल! समीर शुक्ला एक-एक आकृति पर अपना दृष्टांत देते जा रहे थे! सीढियां चढ़ते ही हम बांयी तरफ बनी आर्ट गैलरी में जब घुसे तो हतप्रभ रह गए ! पेन्सिल, कूची और रंगों से निर्मित हर फोटो में पहाड़ के तीज त्यौहार, माँ गंगा का पृथ्वी अवतरण, माँ नंदा का खाडू, ढोलक के बोलों पर गायन करती महिला, या फिर ढोल पर सामूहिक नृत्य, प्रकृतिलोक, सतलोक, रूप विन्हास सहित पहाड़ का वह सब साज श्रृंगार उकेरा हुआ था जो दो सौ बर्ष से भी अधिक पुरातन से वर्तमान परिवेश तक व्याप्त है!

(समीर शुक्ला व कविता शुक्ला)
मैं ही नहीं हम तीनों सचमुच समीर और कविता के मुरीद हो गए! यह अनूठा लोक कैसे तैयार हुआ इस पर समीर शुक्ला कहते हैं कि ज्यादात्तर स्केच आर्ट कविता का है मेरा तो सिर्फ 20 प्रतिशत है! वहीँ कविता कहती हैं यह सब समीर की देन है! सचमुच इस वार्तालाप का अलग ही रस था जिसका निचोड़ यह निकला कि वे किसी भी सब्जेक्ट पर पहले बैठकर चर्चा करते हैं तब उसकी स्केचिंग से लेकर पेंटिंग तक में उसे ढालते हैं. उनकी कोशिश रहती है कि हर काम में एक दूसरे की सलाह जरुर ली जाय और बाद में जो रिजल्ट निकलता है वह सामने दिखता है!

(म्यूजियम में खेत खलिहान की बानगी)
अब हम दूसरे माले पर आ पहुंचे थे जहाँ एक सुसज्जित चौखम्बा तिबारी हमारे दर्शनों के लिए उत्सुकता से हमें निहारती नजर आई! हमारी नजर पड़ते ही उसकी महक ने अन्तस् में कोहराम मचा दिया! उसके तन पर पुते क्रीम पाउडर ने उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाये हुए थे! बस मानों हमारे स्पर्श मात्र से वह खिलखिला पड़े. मानों उसका तन मन झूम उठे! मेरे कैमरे की फ्लेश ने उसका फ्लाइंग किश लिया तो लगा वह शरमाकर और सुर्ख हो गयी है जैसे नई नवेली दुल्हन हो!
अब जब हमारा स्पर्श मिला तो हम ठगे रह गए क्योंकि यह चौखम्बा तिबारी व्यंग कसती सी दिखाई दी – मानों प्रश्न कर रही हो! वाह रे मेरे पहाड़ी शेरों! तुम्हारे पुरखों ने मुझे अपनी आन-बान शान का प्रतीक मान बर्षों मेरी देहरी में जाने कितने पतझड़ सावन और बसंत देखे! तुम बाहर क्या गए कि शमशान की रेत और मेरे ही पत्थरों की सीमेंट के मकान खड़े कर मुझे ऐसे कोने पर डाल दिया माना मेरी कोई इज्जत न हो! अब देखो मैं एक ऐसे जौहरी की बीबी की अमानत हूँ जिसने मेरे श्रृंगार के लिए जाने कितनी कठिनाई झेली है! अरे देख क्या रहे हो! महसूस तो करो तुमसे कहाँ गलती हुई है!

(लेटर बॉक्स की तरह लटकाए गए चिड़ियों के घोंसले)
औरों की तो नहीं जानता लेकिन मैं सचमुच इस तिबारी की मूक बातें सुन भी रहा था और समझ भी रहा था! फिर अन्तस् मुझे मेरे उस अतीत की तरफ ले गया जिसने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व पौड़ी के वर्तमान सांसद मेजर जनरल (से.नि.) भुवन चंद खंडूरी के गाँव की तिबारी से लेकर जाने कितनी चौखम्बा, नौखम्बा तिबारियों को मटियामेट होते देखा है! मेरे गाँव में तिबारी तो नहीं लेकिन तिबारीनुमा मुझे चार-पांच घर याद आ गए जिनकी लकड़ी अतीत में भस्म हो चुकी है!
अब यही तिबारियाँ दिल्ली कनाट प्लेस सहित कही महानगरों की शान हैं! ऐसा लगता है मानों हमारी अस्मत उनके साथ पहाड़ से शिफ्ट हो गयी हो! फिर पापी दिल कुमाऊं की वादियों में सैर करने लगा तो थोड़ा ढांढस बंधा कि चलो वहां बंद मकान ही सही लेकिन आज भी वहां के नक्कासीदार बड़े बड़े मकान अपनी गरिमा के साथ खड़े हैं! लेकिन फिर कलुषित मन कहता है कि आखिर कब तक!

(जन्दरी व सिलोटी)
अहोभाग्य…कि समीर शुक्ला अपने गाँव से अपनी तिबारी अपने साथ अपनी यादों को जोड़ते हुए ले आये ! मन ने यही परिकल्पना की और खुद को खुद से संतुष्ट किया ! मैं तिबारी से बतियाता रहा और समीर शुक्ला, राजेन्द्र जोशी व उदित उसकी चौखट लांघते उसके गृह प्रवेश में शामिल हो गए! अब मेरा कैमरा मैं और चौखम्बा तिबारी की डंडयाळी!
तिबारी के अंदरूनी भाग को देखा तो अचम्भित रह गया! पहाड़ का एक किसान एक लोक समाज ठहाके लगा रहा था! मेरे कैमरे की क्लिक ने वहां भी हाय हेल्लो की!  तिबारी के पृष्ठभाग में हल, बैलों के खांकर, कूटळई (कुदाल), थमाळी (बड़ी दरांती), दथडी (दरांती), ज्यू (जुवा) सब ऐसे टंगे हुए थे जैसे समीर शुक्ला पूरे मसूरी में हल लगाने वाले हों और कविता शुक्ला गुड़ाई निलाई करने वाली हों! अहा पहाड़ इस से ज्यादा जीवंत हो भी कहाँ सकता था!

(सारा घर एक जगह)
मैं यह बताना शायद भूल ही गया कि रसोई का सारा सामान जिसमें अंगीठी, पर्या (दही मथने का),कितली (केतली), डडूलो (करछी), कडैs (कड़ाई), सन्यसु (एक प्रकार का चिमटा), डिबली (दीया), टुपरो (टोकरी), कद्दूकस, झाम्पा (छेद वाला झरना), तव्वा, सिलोटू (सिलबट्टा), जन्दरू (हाथ चक्की) इत्यादि सब मौजूद थे! ये सब इतनी जल्दी में देखे कि इनसे बात करने का मौक़ा नहीं मिला! लेकिन वे इतना तो जरुर कर रहे थे कि मुझे अपनी औकात बता रहे थे कि बेटे तेरे टूटे मकान के अंदर दफन ज्यादात्तर हमारे भाई बंध भले ही कराह रहे हों लेकिन एक वक्त जरुर आयेगा जब वह तेरे से अपना हिसाब पूछेंगे!
खैर तिबारी से अभी बातें ही चल रही थी कि उदित की आवाज आई- अरे इष्टवाल जी आप भी कहाँ कहाँ रह जाते हो यार! जरा अंदर आकर ये फोटो कलेक्शन तो देखो! मैं बमुश्किल दो लपाक दूर था सिर नवाकर कमरे में घुस गया क्योंकि हमारे घरों की यही तो शिष्टता थी कि व्यक्ति अपने कद, वजन या धन वैभव से कितना भी सम्पन्न क्यों न हो उसका घर ही उसका मन मंदिर है जहाँ उसका शीश झुकेगा ही झुकेगा!

(देवताओं के प्रतीक व प्रतिमाएं)
वास्तव में समीर शुक्ला के सोहम म्यूजियम का कलेक्शन अपने आप में अद्भुत है ! यहाँ आपको फोटो युग की शुरुआत से लेकर वर्तमान तक सभी तरह के कलेक्शन दिखने को मिल जायेंगे! आभूषण हो या पहनावा! बदलते परिवेश का हर मुखौटा यह कमरा आपकी आँखों के आगे रख रहा था अब यह आपकी आँखों को सोचना है कि क्या क्या वे देख पाई!

(समीर शुक्ला अपनी गैलरी में)
यहाँ से बाहर आये तो सामने गणेश जी की मुखाकृति के आगे दो व्यक्ति मानों अध्ययन में रत स्वाध्याय का पाठ पढ़ा रहे हों! सामने गांधी जी व उनके बंदर दिखे और बाएं मुड़े तो समीर शुक्ला के आवास पर बने कई लेटर बॉक्स एक साथ टंगे दिख गए ! जो मुझसे बोले- क्या देख रहा है बे! ये लेटर बॉक्स नहीं चिड़िया आवास हैं तभी इतनी उंचाई पर हम टंगे हैं! अब तक कविता शुक्ला भी बाहर आ गयी थी! आँखों में चश्मा व चेहरे पर सौम्यता! अभिवादन के साथ परिचय भी! सोशल साईट ने इतना तो कर ही दिया है कि लम्बे परिचय की आवश्यकता नहीं होती! कविता जी सोशल साईट पर मेरी पूर्व से ही मित्र हैं इसलिए उन्हें पहचानने में दिक्कत न हुई! समीर जी राजेन्द्र जोशी और उदित घिल्डियाल से मुखातिब इसलिए थे क्योंकि उन्हें जरा समझाने समझने का समय था. मैं ठहरा यायावर अपने आप में कुछ अलग ढूंढ रहा था! अब कविता शुक्ला भी हमारी मुहीम में शामिल हो गयी! सचमुच इस स्थान में देव कृपा जरुर होगी क्योंकि यहाँ आकर तन बदन बहुत रिलेक्स महसूस कर रहा था!

आगे बढ़ते हुए समीर शुक्ला ने जब एक कमरे का ताला खोला तो एक साथ सबके मुंह से फूट पडा वाह..! सचमुच यह मुझे भी विस्मित कर देने वाला क्षण था! पहाड़ की कौन सी वस्तु ऐसी है जो यहाँ करीने से न सजी हो! चाहे देव मूर्तियाँ हों या फिर ढोल-दमाऊ! मेरा काम सबसे बातें करने का था तो मैं एक सिरे से वही कर रहा था! ढोल मिले तो मैं बोला- उस्ताद बिजैसार, ताम्बासार, कुंडलिका, कन्दोटी  सब है लेकिन डोरी बदल गयी! उसके साथ डमरू और दमाऊं भी हंस पड़ा! ढोल बोला – अपने गाँव जाकर देख तो वहां मेरे क्या हाल हैं! वहां तो हमारे ऐसे पुतले तैयार हो गये हैं जिनमें न बिजैसार दिखेगी न कुंडलिका, दमाऊ बोला – वहां तुझे प्लास्टिक की पूडा में मैं भी दिख जाऊँगा! तुम बदल सकते हो हम नहीं? मैंने आगे खिसकने में भला समझा! क्योंकि अब मुझे लग गया था कि तेरी यहाँ दाल नहीं गलने वाली!

(उत्तराखंड के वाद यंत्र)
समीर ने माशुकबीन, खंजरी,हारमोनियम, ढोलक, तुर्री, भंकोर, सिणाई, डोंर-थाली, पिपडी,नागफनी,तुतरी, रणसिंघा, पुराने कटोरी, ग्लास, चमच, थाली, भड्डू, पतीला, परात, टोपली, टोपला, कनपुडिया, बंठा-परात, सुप्पा, ग्याडा, डवारा, पर्या, कंडी, साज श्रृंगार के सभी प्रसाधन, ज्योतिष सम्बन्धी सभी वस्तु, मुखौटे, बद्रिकेदारनाथ, महासू, कर्ण, द्रोयधन मंदिरों की आकृतियाँ इत्यादि सभी को यहाँ बेहद तरीके से ग्लास के पीछे सजाकर रखा हुआ है!

अब तक चाय आ गयी थी और चाय के चुस्कियों के साथ इन दोनों व्यक्तित्वों से जानकारी लेने का समय! मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि समीर शुक्ला का गढ़वाल से कोई वास्ता नहीं था वे बेसिकली लखनऊ से हैं व कविता शुक्ला यानि उनकी अर्धांगनी कानपुर से ! देवभूमि की माटी से उन्हें इतना अगाध प्यार हुआ कि वे यहीं आकर बस गए! यूँ तो बसने के लिए हर कोई आकर यहाँ मकान बनाकर रहने लगा है लेकिन पहाड़ को इस तरह अपने में बसाना वास्तव में दुर्लभ है! जहाँ गढ़वाल को इन्होने अन्तस् में बसाया वहीँ कुमाऊ की ऐपण रंगोली इनकी दीवारों पर अपनी खुशबु बिखेरती नजर आती है! प्रथम दृष्टा तो यह लगता है कि दुल्हा यानि समीर शुक्ला गढ़वाली है और दुल्हन यानि कविता शुक्ला कुमाउनी! लेकिन यह गजब जब सुना तो ईर्ष्या होने लगी ! वह इस बात की नहीं कि ये लोग कैसे यह सब कर गए बल्कि इस बात की कि हम क्यों मर गए? कहाँ एक हिमालयन समीर की टोपी लेने यहाँ आये थे कहाँ पूरा पहाड़ कंधे पर लाध लिए! सिर्फ देहरादून से मात्र 35 से 40 किमी. दूरी तय करने के बाद!

(ये बर्तन अभी ज़िंदा हैं लेकिन आगामी 20 साल बाद पाषाणकालीन कहला सकते हैं)
जीना इसी का नाम है! यह म्यूजियम कभी उत्तराखंड सरकार की नजर में आयेगा कि नहीं मैं नहीं जानता लेकिन इतना कहूंगा कि जिस भी पहाड़ी ने अपने वर्तमान को सुधारने के लिए पहाड़ छोड़ा और अब वह पहाड़ नहीं जा पाता क्योंकि वहां के खेत खलिहान बंजर है व मकान खंडहर ! उसे खुद बिसरानी है तो वह एक बार मसूरी सोहम म्यूजियम जरुर आये! उसकी मनोदशा न बदले तो जो मर्जी कहना! सचमुच वह अपना गाँव बसाना शुरू कर देगा यह मेरी गारंटी है! बस एक बात सालती रही! सोहम म्यूजियम में बसे माँ चामुंडा के दर्शन नहीं कर पाए! शायद राजेन्द्र जोशी इसके लिए अंदर से तैयार नहीं थे! उन्होंने कहा माँ का आशीर्वाद लेने फिर कभी आयेंगे! माँ के द्वार से यूँ वापस लौटना शायद माँ का ही आदेश न रहा हो! समीर शुक्ला और कविता शुक्ला जी से विदा ली माँ चामुंडा को प्रणाम किया और लौट आये अपने गणतब्य को!

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