पुरातन संस्कृति का धोतक है हरेला पर्व। जैव विविधता को तरासता पर्वतीय आजीविका उन्नयन, शोध एवं प्रशिक्षण केंद।

(मनोज इष्टवाल)

इसमें कोई दोराय नहीं कि हरेला शुद्ध रूप से कुमाऊनी पर्व है जिसका वहां के लोकसमाज में लंबे समय से प्रचलन रहा है। यह गढ़वाल में भी बर्षा ऋतु काल में लंबे समय से मनाया जाता है लेकिन इसे हरेला के रूप में पूरे प्रदेश में पहचान दिलाने का पूरा श्रेय पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री हरीश रावत को जाता है जिन्होंने इसे लोकोत्सव के रूप में पहचान दिलाने के लिए प्रदेश व्यापी कार्यक्रम आयोजित किये और आज यह हरेला पर्व नहीं बल्कि हरेला क्रांति के रूप में पूरे प्रदेश में जन जन की सहभागिता का माध्यम बन ग़या है।

इस बार पर्वतीय आजीविका उन्नयन, शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र द्वारा बड़ी मात्रा में हरेला पर्व पर विकास खण्ड द्वारीखाल बांघाट स्थित पट्टी लंगूर वल्ला सीला गांव पौड़ी गढ़वाल के केंद्र में पलायन एक चिंतन के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवाल,  वरिष्ठ पत्रकार दिनेश कंडवाल (सम्पादक देहरादून डिस्कवर), मनोज इष्टवाल (प्रभारी सत्ता एक्सप्रेस व सीईओ हिमालयन डिस्कवर डॉट कॉम) गणेश काला (दैनिक जागरण),  पत्रकार अजय रावत (हिंदुस्तान टाइम्स व विचार एक नई सोच), श्रीश काला, भूपेंद्र, विष्णु इत्यादि द्वारा वृहद मात्रा में अमरूद, आम, अनार, कटहल व चीकू के पेड़ लगाए गए।

पर्वतीय आजीविका उन्नयन, शोध प्रशिक्षण केंद्र के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवाल ने कहा कि वे लगातार कई बर्षों से अपने गांव ही नहीं बल्कि आस पास के कई ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों हजार वृक्षारोपण करवा चुके हैं जिनमें ज्यादात्तर फलदार वृक्ष हैं। इस सीजन में उनका लक्ष्य लगभग 400 फलदार वृक्ष लगाने का लक्ष्य है। उन्होंने बताया कि इसमें से 250 फलदार वृक्ष उन्हें हार्क के श्री महेंद्र कुंवर हमें भिजवा रहे हैं जबकि 50 फलदार वृक्ष श्रीमती मीना नेगी अपने पति स्व. स्वरूप नेगी की स्मृति में, 100 पेड़ श्रीमती शांति रावत अपने स्वर्गीय पति जयचंद की स्मृति में हमें भेंट कर रही हैं। 
उन्होंने वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत द्वारा इस मुहिम को जारी रखने की प्रशंसा करते हुए कहा कि सरकारी आंकड़े चाहे लाखों वृक्ष लगाने के क्यों न हों लेकिन वर्तमान सरकार युद्ध स्तर पर जिस तरह हरेला पर्व पर वृक्षारोपण का कार्यक्रम कर रही है, अगर आने वाले कल में उनमें हजारों वृक्ष भी जिंदा रहे तो यह हमारी बड़ी उपलब्धि होगी।

आखिर हरेला क्या है व इसके पीछे पुरातन उत्तराखण्डी संस्कृति में क्या प्रचलन रहा है वह आपको संक्षेप में बताते चलते हैं कि हरेला चैत्र मास में प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।
किन्तु उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है! क्योंकि श्रावण मास शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है।

सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! हरेला लगाने से पूर्व हर घर की रसोई में तेलीय पकवान बनाये जाते हैं जिनमें रोट, प्रसाद, लगड़े, स्वाल,  इत्यादि बनाये जाते हैं जिन्हें अपने अपने भूमिदेवता व कुलदेवता को चढ़ाने के बाद प्रसाद स्वरूप बांटे जाने की परंपरा भी रही है। कहा जाता है कि हरेला के दिन लगाए गए वृक्ष व बीज खूब फलते फूलते हैं।

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