पुरातन काल में प्रचलित थी हिन्दू धर्म में बैल/सांड की बलि देने की परम्परा!

(मनोज इष्टवाल)
हिन्दू धर्म गऊ गंगा और माँ का एक जैसा सम्मान करते हैं लेकिन आश्चर्य यह होता है कि पुरातनकाल में हिन्दू धर्म में सांड की बलि दी जाती रही है! चौंकिएगा मत …क्योंकि यह बलि हर उस प्राणी जैसी है जिसके कानों तक बलि मन्त्र डाले तो जाते हैं लेकिन उसकी इहलीला समाप्त नहीं की जाती! गढ़वाल -कुमाऊँ क्षेत्र में ऐसी ही सांड बलि का प्रचलन था! जिसका वर्णन कई पुस्तकों से प्राप्त होता है लेकिन यह बलि कैसी होती थी इस पर हमने जानने का प्रयत्न नहीं किया बल्कि कुछ सेक्युलरों ने इस बलि को ही मुद्दा बनाकर लिख डाला कि पूर्व में हिन्दू बैल खाया करता था! 

(सांड/बैल पूजा फाइल फोटो)
पुरातन काल की यह सभ्यता आज भी हमारे समाज में वर्णित है लेकिन उसे बलि कहना जरा अटपटा लगता है! अक्सर माँ बहनें अपनी आस-औलाद की प्राप्ति के लिए जहाँ महादेव से प्रार्थना कर उन्हें मन्नत पूरी होने पर उनके नाम का सांड दान करने का वचन देते हैं ठीक वैसे ही पितरों की शान्ति या पितृ दोष निबटारे के लिए बैल बलि का प्रचलन हिन्दू धर्म में रहा है ऐसा कई पुस्तकों में पढने सुनने को मिलता है! अटकिन्सन के हिमालयन गजेटियर में भी इसका वर्णन मिलता है लेकिन उन्होंने बड़ी ईमानदारी के साथ इसका स्पष्ट उल्लेख किया है न कि उन सेक्युलरों की तरह लिख डाला जिन्होंने इसे बलि तो कहा है लेकिन साथ ही यह तोहमत भी लगा दी कि हमारे पूर्वज पूर्व में गौ वंश का मांस खाते थे! राहुल सांस्कृत्यायन नदे तो साफ़-साफ़ लिख दिया कि पूर्व में हिन्दू बैल सांड खाया करते थे लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं लिखा कि सांड/बैल बलि का प्रायोजन आखिर हिन्दू धर्म में कैसा है ?
मुझे याद है कि माँ ने मृत्यु से कुछ बर्ष पूर्व ही अपनी मन्नत पूरी कर अपनी श्रद्धा व विश्वास अपने मायके के महादेव “आळी कु मादियो” (आली गाँव के महादेव) में जाकर हमसे पूरी करवाई! माँ का तर्क था कि लगातार पुत्रियों के जन्म के बाद उन्हें आशा थी कि वह जो अपने मायके के महादेव से मांगेंगे वह उनकी मन्नत अवश्य पूरी करेंगे! मैं माँ के गर्भ में था और माँ ने कहा था कि इस बार पुत्र रत्न हुआ तो वह आकर महादेव को सांड अर्पित करेंगी! मेरे जन्म लेने के बाद भी माँ अपना यह लक्ष्य पूरा नहीं कर सकी क्योंकि मैं या फिर परिस्थितियाँ यह सब नहीं कर पाए! मैं कतई नहीं चाहता था कि एक मूक प्राणी को हम बेवजह महादेव को अर्पित कर दें और वह कहीं भी कभी भी कालग्रास बन जाय आखिर इसका तोड़ ढूंढा गया व हमने पूजा के बाद आली के महादेव को चांदी का सांड अर्पित किया! 
दरअसल वह सांड मंत्रोचारण के बाद ठीक वैसे ही अर्पित किया जाता है जैसे बलि के बकरे के लिए मन्त्र पढ़े जाते हैं! बलि का बकरा जैसे ही अपने बदन में झुरझुरी लेता है उसकी गर्दन उड़ा दी जाती है! ठीक ऐसा ही काली माँ के स्थानों में भैंसे की बली भी होती है लेकिन सांड या बैल की बली ज़रा अलग किस्म की होती है! 
सांड की बलि के लिए मिटटी की वेदिका बनाई जाती है जिसमें अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात सांड या बैल की पूजा की जाती है! इसके पश्चात वेदी का प्रदान होम होता है! सांड या बैल घरपाल (घर में पलने वाला) रखा जाता है ताकि वह कहीं जूठन न खा सके! उसे बेहद पवित्र कर रखा जाता है ठेठ वैसे ही जैसे भैरव/नरसिंह देवता का खाडू! फिर अग्नि कुंड में धृत होम प्रारम्भ होता है – ” ॐ इहरती स्वाहा इदं अग्नये ॐ इहरमध्वं स्वाहा इदं अग्नये ॐ इहधृति स्वाहा इदं अग्नये इहमश्व स्वाहा इदं अग्नये” उसके पश्चात ” ॐ प्रजापतये इन्द्राय अग्नये सोमाय स्वाहा!”  फिर अग्नि कुंड में दही से होम किया जाता है और नौ देवता अग्नि, रूद्र, सर्व, पशुपति, उग्र, असं, भव, महादेव व ईशान को याद किया जाता है! इन पौराणिक देवताओं को याद करने के पश्चात पौष्णचरु होम किया जाता है जिसमें चावल जौ दाल को घी व दही में उबालकर इस मन्त्र के साथ भेंट किया जाता है- ॐ पूषा अन्वेतुन: पूषा रक्षस्व सर्वत्र पूषा वाजान्मनोतुन: स्वाहा” उसके पश्चात फिर मन्त्र पढ़ा जाता है – ॐ अग्नये स्विष्ट कृते स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ भू स्वाहा ॐ भुव: स्वाहा ॐ स्व: स्वाहा” आपको बता दें कि इन मंत्रो स्वे प्राचीन देवता पूषान और अग्नि का आवाहन किया जाता है! 
इन मंत्रोचारण के पश्चात सांड के गले में घंटी व पैर में घुंघुरू बांधे जाते हैं! कहा जाता है कि ऐसा सब करने से यह सांड मृतक आत्मा को परलोक में मुक्ति दिलाता है! व फिर सांड या बिअल के कान में मन्त्र बुदबुदाया जाता है – “बिषेहि भगवान् धर्म: चतुष्पाद: प्रकीर्तित: वृनोमित्तम अहम भक्त्या समान रक्षतु सर्वथा!” तत्पश्चात  मन्त्र पढ़ा जाता है-” ॐ ऋतं च इत्यादि” !
शास्त्रों के अनुसार सांड या बैल को परमात्मा का चौपाया प्रतिनिधि माना जाता है और उस से आग्रह किया जाता है कि वह अपनी भक्त की रक्षा करे! इसके पश्चात बैल गायत्री पढ़ी जाती है- ॐ तीक्ष्ण शृंगाय विधमहे वेदपासायधीमहि तन्नो वृषभ: प्र्च्योदयात!  व हाथ में फिर जौ टिल कुश और पानी लेकर सांड /बैल की पूँछ पकड़कर उसमें जल अर्पित करते हुए मन्त्र पढ़ा जाता है! वहीँ सांड के दांयें कंधे में त्रिशूल व बांयें कंधे में चक्र के निशान बनाए जाते हैं! और तब सांड को किसी निम्न जाति के व्यक्ति को अर्पित किया जाता है! 
यहाँ समाज में दो परम्पराएं रही हैं एक मृत आत्मा की शान्ति के लिए निम्न जाति को सांड अर्पित करना व दूसरा आस-औलाद प्राप्ति के बाद महादेव को सांड अर्पित करना! ये सब मन्त्र बलि मन्त्र कहे जाते हैं! जिनका आशय यह कदापि नहीं है कि सांड की गर्दन उड़ाकर बकरे की तरह बलि देना या फिर किसी की जान लेकर अपनी आत्मा तृप्त करना! यह बलि वह बलि है जो किसी की जान लेकर नहीं दी जाती! आज भी जौनसार बावर व रवाई जौनपुर में ऐसे कई बकरे महासू व अन्य देवताओं को चढ़े हुए हैं जिन्हें देवता का घान्डुआ कहा जाता है! इन्हें भी इसी आशय से देवता महासू या अन्य को समर्पित किया जाता है कि यह उनकी तरफ से तुम्हे अर्पित बलि है अब तू चाहे इसके प्राणों की रक्षा कर या फिर इसके प्राण ले ले! ऐसे बकरे या सांड निश्चिन्त होकर अपनी मौत मरते हैं लेकिन इस परम्परा में हमारा पहाड़ ज़रा अलग हो गया है! यमुना तमसा घाटी में इन बकरों के साथ कभी बेहरमी नहीं दिखाई देती जबकि महादेव में चढ़ाए सांड बाद में कोई निर्बल या निर्धन जाती का व्यक्ति अपना हल जोतने में लगा देता है! वैसे महादेव के सांड गौवंश प्रजजन के लिए भी इस्तेमाल में लाये जाते रहे हैं! 
अत: यह उन सेक्युलर ताकतों के लिए लिखा जाने वाला वह लेख कहा जा सकता है जिन्होंने हिंदुत्व के मायने में उनकी अक्षुण परम्पराओं को अपने हिसाब से बदलते हुए अपनी किताबों में हिन्दू धर्म को पूर्व काल का गौवंश भक्षक तक साबित कर दिया! जिसका दुष्प्रभाव नार्थ ईस्ट में पडा और वहां गौवंश सेक्युलरों की जमात में कतिपय ऐसे हिन्दू भी गाहे-बगाहे शामिल हो गए जिन्हें इनके तर्कों ने मजबूर किया! उत्तराखंड में पूर्व काल में काली माँ को अर्पित्त भैंसे की बलि के बाद उसके मांस खाने में निम्न जातियां गिनी जाती थी ठेठ वैसे ही जैसे नेपाल में हैं लेकिन यह सौ बर्ष से उपर के काल की बात है! शायद तब गरीबी के चलते यह सब अपनी जान रक्षा के लिए होता रहा होगा लेकिन वर्तमान में ऐसा कोई किस्सा देखने सुनने को नहीं मिलता और न ही कभी पौराणिक काल में यहाँ के हिन्दुओं ने गौ वंश भक्षण किया जिसके प्रमाण मिलते हों! हां कतिपय अपवाद ये भी हैं कि गढ़वाल मंडल की कई जातियां आज भी आटे का बैल या हलवे का बैल बनाकर उन्हें अपने चूल्हे के ऊपर चाकू से केक की तरह काटते हैं। यह अलग परम्परा है इसे बैल बलि से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें मंत्रोचारण की यह परिपाटी कहीं भी शामिल नहीं है।

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