पांच देश के विदेशियों के साथ पौड़ी नागदेव-झंडीधार गरुडा पीक का वह वाइल्ड ट्रैक!

(मनोज इष्टवाल/ट्रेवलाग)
सचमुच मेरे लिए यह हैरतअंगेज ट्रेक रूट था क्योंकि जिस पौड़ी शहर में मैंने अपनी जिन्दगी के जाने कितने बर्ष गुजारे होंगे उसी के गर्भ गृह में इतना खूबसूरत वाइल्ड ट्रेक होगा मैं कभी सोच भी नहीं सकता था! यह सफर विगत बर्ष के प्रथम दिवस यानि 1 जनवरी 2017 का है जो चार देशों के विदेशी मेहमानों के साथ गरुडा कैम्प परसुन्ड़ाखाल के मनीष जोशी के सानिध्य में आयोजित किया गया था! आइये एक बर्ष पूर्व की यादों को रिवर्स गेयर में ताजा करते हैं!
31 दिसम्बर 2018, वह शाम मुझे आज भी याद है जब वह शर्म का आँचल ओढे ठिठुरती हुई सूर्य के अस्तांचल की लालिमा के साथ काली हो रही थी! तब मैं परसुंडाखाल बाजार से अपनी सदाबहार बाइक से कंडारा जाने वाली कच्ची सडक के उस तीखे मोड़ से मुड़कर गरुडा कैंप के ढाल पर उतर रहा था! एक जोर की गर्जना हुई तो रोंगटे खड़े होने स्वाभाविक थे! ढाल पर उतरती बाइक के ब्रेक लगने से टायर चिंघाड़ गए! गरुडा कैंप से शोर सुनाई दिया – वो देखिये वो है! अरे उधर उस पेड़ की बगल में देखिये ! अरे हां..हाँ ! अरे दो बच्चे भी साथ हैं! मैं गरुडा कैंप से थोड़ा ऊपर था इसलिए मुझे वह बाघिन स्पष्ट दिखाई दी! बाघिन इसलिए कहूंगा क्योंकि उसके दो बच्चे उसके साथ थे! वह जोशियाणा गाँव के पार कंडारा से पैडुल जाने वाले पुराने पैदल मार्ग से बमुश्किल 300 मीटर ऊपर रही होगी! मुझे लगा वह मुझसे कह रही है – आगन्तुक स्वागत है लेकिन जरा होशियार..!
खैर यह शाम इसलिए मदमस्त रही क्योंकि इस शाम को जिन विदेशी मेहमानों के साथ मैं अपने नए साल का जश्न मना रहा था वह ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड सहित पांच देशों के मेहमान थे जो विश्व प्रसिद्ध दून स्कूल, लॉरेंस स्कूल हिमाचल के साथ न्यू इयर के जश्न में डूबे थे! यह देखना बेहद शुकून भरा था कि सब अपने-अपने देश का जश्न अपनी अपनी देश की घड़ियों के हिसाब से मना रहे थे! और हर बार केक काट रहे थे इस न्यूज़ इयर पार्टी में मिस एलिजाबेथ ग्रे, श्रीमती कैथलीन ग्रे, और मिस्टर पॉल इंग्लैंड, मुल्ली जैक्सन टीचर कनाडा, साइमन और जूली टीचर सिंगापुर, डॉ. माइक और कैरोलिन इंग्लैंड, मिस्टर पीटर और चारमीन इंडोनेशिया, मैं स्वयं अम्बिकेश शुक्ला (डायरेक्टर ऑफ़ सोशल सर्विस एंड एक्टिविटीज दून स्कूल), डॉ. अमर लंका (रेजिडेंशियल डॉक्टर दून स्कूल), आनंद कुमार मंधियन (केमिस्ट्री टीचर दून स्कूल), के सी मौर्या (कम्यूटर असिस्टेंट दून स्कूल), कुमार गौतम (इकोनॉमिक्स टीचर लौरेंस स्कूल सनावर हिमाचल प्रदेश), डॉ. सद्दीक खान (हेड एस.यू.पी.डब्ल्यू. लौरेंस स्कूल सनावर हिमाचल प्रदेश), राखी काला जोशी (टीचर सैंट मैरी कान्वेंट स्कूल नैनीताल) अवनी जोशी (स्टूडेंट सैंट मैरी कान्वेंट स्कूल नैनीताल), मिस्टर जोसेफ (योगा टीचर एंड सोशल एक्टिविस्ट केरल) के अलावा डुंगरी के पूर्व प्रधान ईश्वर सिंह, पोर्टर बीर बहादुर शामिल थे!

1 जनवरी 2017 की वह हाड़ कंपाती ठंड गरुडा एडवेंचर कैंप परसुन्डाखाल जोकि पौड़ी से मात्र 11 किमी. दूरी पर पौड़ी कोटद्वार मार्ग में सरकारी अस्पताल व जोशियाणा गाँव की सरहद में अवस्थित है, में मुझे सुबह लगभग 6 बजे घंटी की आवाज सुनाई दी! विगत बर्ष के अंतिम दिवस की खुमारी यूँहीं आँखों में रह गयी क्योंकि अभी सोये हुए बमुश्किल 5 घंटे हुए थे कि चाय की इस घंटी ने दिव्य लोक के सपनों को झकझोर दिया! मैंने जीरो टेम्प्रेचर के स्लीपिंग बैग में कुनबुनाकर करवट बदली और इन्तजार करने लगा कि अभी बेड टी मिलेगी तभी बेड टी मिलेगी! फिर नींद ने अपने आगोश में ले लिया!

अगली बेल बजी तब समझ आया कि मैं गरुडा एडवेंचर कैंप में हूँ जहाँ नियम फोलो करने जरुरी हैं उठ खड़ा हुआ!  तब अपने अगल बगल के बेड में झाँका तो पाया दोनों बेड खाली थे यानि अम्बिकेश शुक्ला व के सी मौर्या जाने कब अपना बेड छोड़ चुके थे! मुझे लगा मुझे देर हो गयी झट से बिस्तर की गर्माहट छोड़ी और जैसे ही बाहर निकला मेरी दांयीं जांघ की नसों में खिंचाव आ गया! मैं दर्द से कराह उठा फिर दूसरे ही पल कैंप के 8 नम्बर तम्बू से बाहर निकला तो पाया दून स्कूल देहरादून, लौरेंस स्कूल हिमाचल प्रदेश व पांच अन्य देशों के ज्यादात्तर मित्र हरी घास जोकि सर्दियों में अपना रंग बदलने के लिए गुंदमैली सी होने लगी थी के बड़े से आहते में चाय की चुस्कियां ले रहे थे!
मिसेज कैथलीन ग्रे गर्म पानी की बाल्टी हाथ में थामें डुबकी लगाने को तैयार थी जबकि अभी यहाँ कैंप में धूप की किरणें आई नहीं थी लेकिन सूर्य देव ने ऊँची पहाड़ियों का चुम्बन ले लिया था और उसकी बेताब किरणें हमारे कैंप की चाय की चुस्कियों में शामिल होने के लिए छटपटा रही थी! गुड मोर्निंग से सारी फॉर्मेलिटीज पूरी होने के बाद मैं भी चाय के हॉट पॉट की तरफ लपका क्योंकि ठंड से जितनी मुंह की भांप निकल रही थी उससे थोड़ी कम कप में गिरती जा रही चाय से निकल रही थी जो तन की झुरझुरी को मिटाने के लिए काफी थी!
फायर पॉइंट व डिनर एरिया चांदी के हलके से कवर में मढ़ी हुई सी लग रहे थे मानों विगत बर्ष के आखिरी रात कितनी ठंड थी उसका अहसास पाले के जमने से करवा रही हो! गरुडा कैंप के वर्कर्स तेजी से नाश्ता लगवाने के लिए लगभग दौड़ते से दिख रहे थे मानों मैराथन दौड़ में शामिल होने जा रहे हों! इस बार कुछ ग्रामीणों को भी गरुडा कैंप में हाथ बंटाते देख ख़ुशी इस बात की हुई कि चलो अब सिर्फ नेपाली मूल के ही नहीं बल्कि अपने लोगों ने भी कमाने की क्रिया को जानने की कोशिश कर ली है!
ब्रेक फास्ट टेबल पर जब पहुंचा तब तक ज्यादात्तर लोग खा चुके थे राखी काला जोशी ने बढ़कर अपनी चिरपरचित मुस्कान से स्वागत किया और ब्रेक फास्ट का आग्रह किया! यहाँ बता दूँ कि मनीष जोशी व मनोज जोशी जिस सुंदर मैनेजमेंट के साथ कैंप देखते हैं उसका जवाब नहीं! हर एक आगन्तुक के पास जाकर पूछना व उनकी बातों को बेहद ध्यान से सुनना ये उनके सगल में शामिल है. शायद यही कारण भी है कि शहरों की चकाचौंध से दूर ऐसे शांत वातावरण में यह एडवेंचर कैंप अक्सर ठसाठस भरा रहता है! अब जब पता लगा कि टीम नागदेव, झंडीधार ट्रेक पर निकल रही है तब मेरे चेहरे पर मायूसी झलक पड़ी क्योंकि मेरी टांग ने जवाब उठते ही दे दिया था! मनीष जोशी आये और बोले – भाई काश….आप भी चल पाते तो हमें ही नहीं बल्कि आपके नित पाठकों को भी इस ट्रेक रूट की जानकारी मिलती! मैंने असमर्थता व्यक्त करते हुए अपनी लाचारी बखान की! पास खड़े योगा गुरु बोले- नहीं मिस्टर जोशी, आप घबराए नहीं धीरे धीरे चलेंगे देखना दर्द कम हो जाएगा! दरअसल वे मुझे भी जोशी ही समझ रहे थे! अवनि आई और बोली- चलिए न अंकल अच्छा लगेगा! अब राखी भी बोल पड़ी! मिस्टर आनन्द कुमार मंधियन भी बोल पड़े! आखिर मन बनाया तो बन ही गया!

मिस एलिजाबेथ ग्रे, श्रीमती कैथलीन ग्रे, और मिस्टर पॉल इंग्लैंड, मुल्ली जैक्सन टीचर कनाडा, साइमन और जूली टीचर सिंगापुर, डॉ. माइक और कैरोलिन इंग्लैंड, मिस्टर पीटर और चारमीन इंडोनेशिया, मैं स्वयं अम्बिकेश शुक्ला (डायरेक्टर ऑफ़ सोशल सर्विस एंड एक्टिविटीज दून स्कूल), डॉ. अमर लंका (रेजिडेंशियल डॉक्टर दून स्कूल), आनंद कुमार मंधियन (केमिस्ट्री टीचर दून स्कूल), के सी मौर्या (कम्यूटर असिस्टेंट दून स्कूल), कुमार गौतम (इकोनॉमिक्स टीचर लौरेंस स्कूल सनावर हिमाचल प्रदेश), डॉ. सद्दीक खान (हेड एस.यू.पी.डब्ल्यू. लौरेंस स्कूल सनावर हिमाचल प्रदेश), राखी काला जोशी (टीचर सैंट मैरी कान्वेंट स्कूल नैनीताल) अवनी जोशी (स्टूडेंट सैंट मैरी कान्वेंट स्कूल नैनीताल), मिस्टर जोसेफ (योगा टीचर एंड सोशल एक्टिविस्ट केरल) के अलावा डुंगरी के पूर्व प्रधान ईश्वर सिंह, पोर्टर बीर बहादुर के साथ हम सब लगभग 10:30 बजे गरुडा एडवेंचर कैंप से निकल पड़े! मैं अवनि मनीष जोशी डुंगरी के प्रधान मनीष जोशी की गाडी से जबकि बाकी सब दून स्कूल की 22 सीटर गाडी से ट्रेक के लिए निकल पड़े!

बुबाखाल से लगभग 100 मीटर पौड़ी की तरफ ढाल उतरने के बाद हमारी कार ने बांयी तरफ की कंडोलिया वाली सडक पकड़ी और हम सांप सी रेंगती काली सडक के आगोश में समाते चले गए! दोनों और फैले बाँझ बुरांस काफल चीड के उतुंग पेड़ मानों हमारा स्वागत करते हुए कह रहे हों अतिथि आपका स्वागत है! अभी प्रकृति के इस सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाया था कि कार ने हल्का हिचकोला खाया और वह रुक गई! हमारे पीछे दून स्कूल की गाडी के ब्रेक भी चरमरा उठे! मैंने बांयी और देखा चंद सीढ़ियों के साथ नागदेव मंदिर जाने के लिए द्वार बना हुआ था! मन ही मन नागदेव का स्मरण कर इतनी तो ख़ुशी हुई कि मंदिर के लिए एक रास्ता बन है. आज से लगभग 20-22 बर्ष पूर्व यहाँ एक संकरा सा घसियारी मार्ग हुआ करता था जो घास काटने जाने वाली महिलाओं के पदचापों से बना दिखाई देता था. इस घुप्प जंगल में तब अकेले घुसने में भी डर लगता था. हाँ इतना जरुर था कि ज्यादात्तर प्रेमी युगल यहाँ तब छुप-छुपाकर घूमते दिखाई देते थे जिनमें ज्यादात्तर कालेज पढने वाले हुआ करते थे लेकिन वे भी झुण्ड में ही इस ओर रुख करते थे!
गरुडा एडवेंचर कैंप के मनीष जोशी ने बुलंद आवाज में सबको साइलेंस प्लीज के साथ संवोधित करते हुए बताया कि नागदेव का शाब्दिक अर्थ क्या होता है इस में उनकी मदद करते कुछ और भी दिखे जिनमें आनन्द कुमार मंधियन, और कुमार गौतम प्रमुख थे! यहाँ सबने ग्रुप फोटो खिंचवाए और द्वार पर टंगी घंटी बजाते हुए एलिजाबेथ लिज ग्रे का सबने अनुशरण किया! अब यह सडक कंक्रीट या कहें खड़ींजेदार बन चुकी थी जिसे हम कह सकते हैं थोड़ी सी कंजूसी के साथ 6 फिट चौड़ी ! जो कभी हल्की सी खड़ी चढ़ाई और कभी हल्की सी समांतर होती हुई आगे बढ़ रही थी! लगभग 25 से 30 मिनट के अंतराल में हम सब नागदेव मंदिर के दूसरे द्वार तक पहुंचे जहाँ टिन की लम्बी होती छत्त लगभग सौ मीटर हमारे साथ चलती हुई आगे बढ़ी! अंत में मंदिर में सब मत्था टेक आगे बढे! मैं व आनंद कुमार मंधियन पीछे रहे गये थे. मेरी मजबूरी जांघ की नसों में आया तनाव था तो मंधियन जी का धीमी चाल में चढ़ना! मंदिर से लगभग आधा किमी. दूरी पर सब हमारा इन्तजार करते दिखाई दिए! यहाँ से रास्ता अब संकरा होना शुरू हो गया था. कुछ अंग्रेज मित्र आगे बढ़ रहे थे जिनके कदम मनीष जोशी की आवाज से ठिठक गए ! मनीष जोशी ने कहा -यहाँ से अलग अलग रास्ते निकलते हैं इसलिए सब साथ चलेंगे!

तेज धूप के बाबजूद वह धरती पर नहीं रही थी इस से आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह जंगल कितना घुप्प घना होगा! यहाँ भी वह घास फैलनी शुरू हो गयी थी जिसे हम गाजर घास कहते हैं! जो यकीनन हमारे औषधीय पादपों को मिटाने में तुली हुई है! हम लगभग डेढ़ घंटे बाद वाटर टैंक के पास पहुंचे जहाँ से सारे पौड़ी को पानी सप्लाई होता है! यहाँ से रांसी स्टेडियम का नजारा देखते ही बनता है! मैं पीटर, शारमीन थोड़ा पीछे सुस्ताने में लगे थे जबकि यहाँ से आनन्द अपने कैमरे से रांसी का चित्रण उतार रहे थे इसलिए मुझे आईडिया नहीं है कि किसके कहने पर सारी टीम वाटर टैंक की छत्त पर पहुंची! जब मैं टैंक पर चढ़ा तब तक वहां सारी टीम पंक्तिबद्ध खड़ी होकर योगा गुरु जोसेफ को सुन रही थी! थकान के बाबजूद योगा गुरु को जाने क्या सूझी उन्होंने टैंक के ऊपर की छत्त में योगा करवाना शुरू कर दिया जो बेहद अद्भुत था. अद्भुत इसलिए क्योंकि इस से पहले कहीं कभी ऐसा इत्तेफाक आया होगा मुझे नहीं लगता! क्योंकि हम लगभग 6,000 फिट की उंचाई में थे और वो भी वाटर टैंक के ऊपर पांच देशों के लोग योग क्रिया में तलीन हों तो यह समय मेरी दृष्टि में अद्भुत ही है!

सिर्फ मुझे छोड़कर सब योगा में ब्यस्त थे ! नहीं मेरे अलावा शायद डॉ. माइक भी योगा में सम्मिलित नहीं हुए! वे टैंक के ऊपर आये भी कि नहीं मैं नहीं जानता! क्योंकि जब योगा चल रहा था मेरी अंगुलियाँ कैमरे से खेल रही थी और वे वाटर टैंक के नीचे बनी दीवार की मुंडेर पर बैठे हुए थे!

योगा समाप्त हुआ तब सबने अपने पास रखे फल निकालने शुरू कर दिए किन्नू नामक संतरा सबके हाथ में देख मुझे याद आया कि हमारे पोर्टर वीर बहादुर ने जब मुझे देना चाहा था तब मैंने उसे यह कहकर वापस दे दिया था कि मैं रास्ते में मांग लूँगा! मैंने माँगा तो डुंगरी की पूर्व प्रधान जी ने मेरी तरफ उछाल दिया मैं किन्नू छिलने के बाद उसके छिलके उछालकर बाहर फैंकने ही वाला था कि मेरी नजर पास खड़ी कैरोलिन पर जा पड़ी जो छिलकों को वापस अपने बैग की पॉकेट में संभाल रही थी! अब मेरी नजर हर उस व्यक्ति पर गयी जो वहां मौजूद था सबके छिलके यूँहीं बैग में ठुंस रहे थे! मुझे खुद पर आत्मग्लानि होने लगी और मैं टैंक की रेलिंग के किनारे जा पहुंचा! नीचे देखा तो चारों ओर प्लास्टिक की बोतलें, लेज कुरकुरे व प्लास्टिक की पन्नियाँ, बियर की बोतलें इत्यादि दिखाई दी! अब आत्मग्लानि कम हुई और खुद से शर्म आने लगी क्योंकि इन मेहमानों की नजरें भी तो मेरी तरह आस पास बिखरे वातावरण को देखते हुए इस कचरे को घूर रही होंगी! हम सचमुच इन लोगों के आगे कितने गंवार हैं! यह हमें प्रकृति में हमारे द्वारा बिखेरा गया कूड़ा बता रहा था! सचमुच हम इन छोटी बातों पर ध्यान नहीं देते लेकिन यह सच है कि इस खूबसूरत जंगल के आहते में बिखरे ये तरह तरह के कूड़े इसे वैसे ही बदनुमा बनाते नजर आ रहे थे जैसे फटी पैंट पर टल्ले लगे होते हैं!

अब हमारी टीम झंडीधार की और प्रस्थान करने लगी. बमुश्किल हम वाटर टैंक पार कर वहां बने आवास पार किये होंगे कि एक पेड़ पर मुस्कराते खिलखिलाते बुरांश के फूलों ने सबको अचम्भित कर दिया! बेमौसम यूँ बुरांश का खिलना मौसम परिवर्तन का बड़ा संकेत करता नजर आ रहा था! यहाँ से आगे जब हम लगभग ट्रेक की पूरी ऊंचाई चढ़ गए जोकि 3 से साढ़े तीन किमी. की उंचाई पर है तब हम लगभग 6,200 फिट की उंचाई पर झंडीधार आ पहुंचे थे. अब ठंडक ज्यादा थी इसलिए चढ़ाई पर बदन से उतरे अंग्रेजों के कपडे फिर बदन पर चिपकने को बेताब नजर आये!

मुझे याद हो आया कि विगत रात्री झंडीधार पर चर्चा के दौरान गरुडा एडवेंचर कैंप के मनोज जोशी ने बताया था कि उन्हें दीपक जिन्हें ये लोग बघेरा के उपनाम से संबोधित करते हैं ने उन्हें बताया था कि झंडीधार इसलिए इस जगह का नाम पडा था क्योंकि नीति-माणा घाटी से आने वाले लुणयां (मारछे) व तिब्बती अपनी भेड बकरियों में नमक लादकर एक सदी पूर्व ढाकर यहीं से ले जाते थे और उनका रात्री विश्राम इसी स्थल पर होता था. यहाँ जाते वक्त वे लोग अपनी संस्कृति में सम्मिलित झंडियों की लडियां लगाकर जाया करते थे जोकि उनकी देवता की निशानी के रूप में समझी जाती थी और वही उनकी भेड़ बकरियों की रक्षा किया करती थी!
भेड़ बकरियों में राशन लादने की परम्परा सम्पूर्ण गढ़वाल में रही है! मुझे याद आया कि जब मेरे बूढ़े दादा जी की बरसी हुई थी तब उसके बारे में हमारे गाँव के सुबाकी ब्वाड़ा बताते थे कि इतना राशन खडीनों में आया कि एक भेड़ हमारे घर में थी और अंतिम भेड़ डेढ़ किमी. दूर जाखाल में! उस दौर में खडीन यानि दुम्मा भेड़ व सफ़ेद रंग की बालों वाले बकरों में राशन लाइ जाती थी!

यहाँ से अब रास्ता समांतर होता हुआ लगभग शिखर की चोटी-चोटी लेकिन जंगल के अंदर से चौड़े मार्ग के रूप में आगे बुबाखाल की तरफ बढ़ने लगा! साँसे अब धौंकनी से धीरे धीरे शांत हो रही थी! हवा की सरसराहट कम थी लेकिन ऑक्सीजन की कमी रही हो ऐसा कदापि नहीं लगा! उत्पाती जंगली सूअरों ने रास्ते में जगह जगह खोदकर जड़ी बूटी का नाश किया हुआ था! हम लगभग 45 मिनट से एक घंटे के अंतराल में जंगल से बाहर ऐसे खुले स्थान पर आ पहुंचे जहाँ पहुँचते ही सबकी आह वाह में तब्दील हो गई! हरी घास अब अपना रंग मटमैले कलर में अपने कुमरों के साथ हिलहिलाकर ठिठोली कर रही थी! ऐसा लग रहा था मानों उन्हें हमारा ही इन्तजार रहा हो! वे हवा के संगीत में नृत्य करती आपस में एक दूसरे का चुम्बन लेती जैसे प्रकृति प्रेम की मिशाल दे रही हो! हम अब पैडूलस्यूं के उस क्षेत्र की बेपनाह खूबसूरती को निहार रहे थे जो इस मखमली बुग्याल की उतुंग पत्थर की शिलाओं से नीचे घाटी में अपने हुश्न का जलवा बिखेर रही थी!
मुझे लगा यह गाँव निसणी है लेकिन ईश्वर सिंह ने बताया यह केबर्स गाँव है! अहा…यहाँ से दूर तक फैली घाटी सबको अल्हाहित कर रही थी! फरफराती हवा में खूब फोटो खींचने के बाद ज्यादात्तर अंग्रेज यहाँ धूप सेंकने के लिए सुस्ताने लगे! मनीष जोशी मेरे पास आये और बोले- भाई साहब ! इस स्थान का नामकरण करते हैं! क्योंकि यह स्थान वल्चर के बैठने का स्थान है आपने देखा कितने वल्चर यानि गरुड़ हमारे सिर के उपर से मंडरा कर निकल गए हैं! मैंने मनीष जोशी का धन्यवाद करते हुए कहा- मनीष सचमुच अगर राखी फ़ोर्स नहीं करती तो मैं आज यह खूबसूरत ट्रेक मिस कर देता! आपने सचमुच मेरी आँखें खोल दी! मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि पौड़ी के अन्तस् में छुपा ऐसा वाइल्ड लाइफ ट्रेक होगा!
मनीष लम्बी आह लेते बोले- भाई यह हम लोगों का दुर्भाग्य है कि हम इसे प्रमोट नहीं कर पा रहे हैं! मेरे जेहन में इसके आस-पास ऐसे कई ट्रेक हैं जिसे हम अपनी आय का जरिया बना सकते हैं! मैंने बहुत अनुरोध के बाद इस टीम को यहाँ लाने का फैसला इसलिए भी लिया है ताकि जब हमारे ये मेहमान अपने अपने देश जाएँ तो यहाँ का जिक्र जरुर करें और वहां से और विदेशी सैलानी हमारे पौड़ी की आवोहवा में शुकून की सांस लेने पहुंचे!
मैंने मन ही मन मनीष की सोच की प्रशंसा की व एकदम दिमाग ने स्ट्राइक किया कि क्यों न इस स्थान का नाम हम आज ही गरुडा पीक रख दें ! क्योंकि स्थानीय नाम हम जानते नहीं! यहाँ गरुडों की स्वच्छन्दता का साम्राज्य है इसलिए इस से अच्छा और कोई नाम हो ही नहीं सकता! यहाँ बैठकर हमारी चर्चा हुई और रजामंदी भी! मैंने इस स्पॉट को अपनी यादों में सम्मिलित करने के लिए बर्ष के पहले दिवस को अपने आने वाले गीत “पौड़ी अन्थम” से जोड़ते हुए मनीष से अनुरोध किया कि क्या यह टीम दो शब्द “मेरी पौड़ी आआ मेरी पौड़ी, होहो मेरी पौड़ी” एक साथ गा सकती है!

मनीष जोशी ने कहा भाई आईडिया बुरा नहीं है यह ट्रेक हमारी यादों से जुड़ जाएगा. मैं लंच के बाद यहीं कोशिश करता हूँ! लंच करने की घोषणा हुई तो तेज हवा से हटकर हम सब ऐसे स्थान पर आ गए जहाँ हवा शांत थी! पूडी, आलू के गुटके, ब्रोनी, कर्ड, जूस सब निकलकर हर एक की पत्तलों में समाने लगा! मैंने एक पूड़ी व आलू के गुटके बन देवता को समर्पित किये व एक ऊँचे स्थान पर रखे! खाना खाने के बाद बचा हुआ माल हमारे ऊपर रेंगते वल्चरों के लिए रखने की बात किसी ने की तब मनीष ने साफ़ मना कर दिया! बोले – हो न हो यह इनके खान-पान में शामिल न हो और इसे खाकर इनका स्वास्थ्य बिगड़ जाए क्योंकि यह ओइली है! बड़ी मुश्किल से वल्चर यहाँ दिखाई दे रहे हैं! मनीष की बात में दम था क्योंकि गरुड़ वास्तव में दिनों दिन कम होते जा रहे हैं! सारी जूठन पुन: पन्नियों में पैक होकर रखी गयी! अब बारी थी पौड़ी अन्थम की ! मुझे यकीन नहीं था कि सब एक स्वर में इसे स्वीकार लेंगे! मुझे पिछली रात रिजर्व से लगे डॉ. अमर लंका का डर था कि कहीं वे कोई गतिरोध उत्पन्न न कर दें लेकिन यह क्या वे इस ख़ुशी में शिरकत करने को सबसे पहले तैयार हुए! मैंने मन ही मन थैंक्स गॉड कहते हुए अपने कुल देवता को याद किया और इस सुनहरे पल यानि पहली जनवरी 2018 को अपनी पौड़ी की शान में पांच राष्ट्रों के समवेत स्वरों को मेरी पौड़ी में तब्दील कर उसका वीडियो फिल्मांकन शुरू किया! धन्यवाद आनंद कुमार मंधियन जी …आपने मुझे इसमें सहयोग दिया! लेकिन अफ़सोस की आप इस वीडियो फिल्मांकन में शामिल नहीं हो सके!
फिल्मांकन समाप्त ही हुआ था कि गरुडों का एक झुण्ड हमारे ऊपर आकाश में बादलों से अटखेलियां करता कभी हमारे नजदीक से गुजरता तो कभी दूर आकाश को छूता! मानों सूनी गरुड़ कार्य सम्पन्न होने में आशीर्वाद देने आये हों! हमारे विदेशी मेहमानों के कैमरे उन्हें कैद करते रहे उनके लौटते ही हम भी वापसी के लिए ढलान उतरने लगे जो बुबाखाल निकलता है!

मखमली बुग्याल पार करते हुए फिर हम अपनी बांयी और जंगल के लिए मुड़े जहाँ से एक गुफा दिखाई देती है जो बाघ की गुफा हो सकती है. क्योंकि वाइल्ड लाइफ जीने में मैंने अपने जीवन के कई बहुमूल्य बसंत गुजारे हैं इसलिए यह अनुमान कतिपय सही प्रतीत होता है! इससे कुछ ही कदम आगे बढे होंगे कि एक पेड़ में काफल के छोटे छोटे बच्चे नजर आने लगे! मैंने अवनि राखी को बताया तो राखी ने पीटर, शारमीन, कैरोलीन को बताया कि ये बेबी काफल है जो कल रात के गीत “बेडू पाको बारामासा नारैनी काफल पाको चैता” वाले गीत में सम्मिलित था! राखी काला जोशी वास्तव में ब्रीफिंग की बेहद एक्सपर्ट हैं!
यूँ हंसते खिलखिलाते हम जंगल का रास्ता मापते अब बुबाखाल के नजदीक थे कि एक जगह मुझे बाघ की पोटी दिखाई दी! मैंने मनीष को बताया और मनीष ने अपनी बिटिया अवनि को! वास्तव में आज के बच्चे बेहद उत्सुकता के साथ हर बात को बेहद गौर से सोचते समझते हैं! अवनि इस मामले में विलक्षण है! उसने गरुडा पीक में गरुड़ का पंख अपनी यादों में शामिल किया व अनुरोध किया कि उसे सेई का पंख चाहिए जिसे वह स्याही में डुबोकर पेन की तरह इस्तेमाल कर सके! सेई का पंख तो नहीं मिला लेकिन मेरे जेहन में जरुर वह पंख अपनी ट्रेकिंग टीम की सबसे छोटी होनहार गुडिया अवनि के लिए अभी तक शामिल है जिसे मैं कभी न कभी लाकर उसे दूंगा!
 

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