पहाड़ में घास की 185 प्रजातियां होंगी संरक्षित।

(मनोज इष्टवाल)

वन अनुसंधान केंद्र पहाड़ के समुद्र तल 500 मीटर से 5000 मीटर ऊंचाई तक उगने वाली घासों के संरक्षण की तैयारी पर जुट गया है, और तो और वन अनुसन्धान केंद्र रानीखेत की द्वारसों नर्सरी में कई किस्म की घासों का रोपण भी किया जा रहा है ताकि वन पर्यावरण व औषधीय पादपों के साथ प्रदेश की घास जैव विविधता, इत्यादि बनाये रखने में संतुलन स्थापित करती है।

वन अनुसंधान केंद्र में वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रदेश की कई घासों की प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। ऐसे में इन घासों का पता लगाकर एक स्थान पर इसकी नर्सरी तैयार की जा रही है। ऐसी ही 25 प्रजाति की घास द्वारसों नर्सरी में लगाई जा रही है।

हिमालयन डिस्कवर न्यूज़ पोर्टल इस द्वारा इस सम्बन्ध में 27 जून 2017 में ही चेता दिया था कि इस पर शीघ्र कार्य नहीं किया गया तो हम अपनी अमूल्य धरोहरों में घास की कई प्रजातियां खो देंगे। आपको जानकारी दे दें कि 225 वंशों की 1225 घास मिलती हैं जिसमें हिमालयी क्षेत्र में सबसे अधिक प्रजाति की घासें पाई जाती हैं लेकिन इस पर आज भी ढंग से रिसर्च नहीं हो पाया है और वन अनुसंधान केंद्र गढ़-कुमाऊँ क्षेत्र की अभी भी मात्र 185 किस्म की घास प्रजातियां ढूंढ सका है जबकि इसकी काफी ज्यादा अधिकता हो सकती है।

हिमालयन डिस्कवर न्यूज़ पोर्टल में मेरे द्वारा 16 दिसम्बर 2016 को लिखा गया फेसबुक आर्टिकल 27 जून 2017 को प्रकाशित किया गया। यह उसका असर है कि नहीं यह कहना ठीक नहीं रहेगा लेकिन वन अनुसंधान केंद्र की यह पहल स्वागत योग्य है जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

क्या था 27 जून 2017 का लेख लीजिये आप भी पढिये:-

घास के प्रकार और घास पर रिसर्च के लिए रिसर्च टीम हिमालयी क्षेत्रों का रुख करे।

(मनोज इष्टवाल)
इसमें कोई शक नहीं क़ि उत्तर प्रदेश को पहली बार समाजवाद के रूप में समाजवादी पार्टी ने एक ऐसा मुख्यमंत्री दिया है जिसके दामन के धब्बे अभी तक नहीं दिखाई दिए। पाक साफ छवि वाला यह व्यक्तित्व अखिलेश यादव अगर उस गुंडई पर भी लगाम लगा देता जो समाजवादी पार्टी के सत्ता में आते ही होनी शुरू होती है तो इसमें कोई असमंजस नहीं होता क़ि यू पी पर पुनः समाजवादी पार्टी का कब्जा होता लेकिन चुनाव दरवाजे पर हैं और अब देर हो चुकी है।
कल एक जनसभा में किसानों को संबोधित करते हुए जब अखिलेश यह कह रहे थे क़ि एक टीम या एन जी ओ घास पर ही रिसर्च कर रही है । आप सोच भी नहीं सकते कि घास पर भी रिसर्च हो सकती है।

मैं तब दुकान में सामान खरीद रहा था और बस इतना ही सुन पाया लेकिन घर आने के बाद जब अखिलेश के वे शब्द याद आये तब विधान सभा सत्र गैरसैण से लौटते वक्त अपनी मातृशक्ति की वह छवि याद आ गयी जो अपने ही कद के घास के बोझ को ढो कर अपने गॉव की ओर बढ़ रही थी वो भी चेहरे पर थकान का नामोनिशान नहीं था।

ऐसे में मुझे भी अपना दिमागी कम्प्यूटर कई साल बैक करना पडा। गॉव के खेतों से लेकर सरहदों पर स्थित पेड़ व तीखे ढालों पर उगी घास की प्रजातियां याद करने के लिए मैंने कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया पहले डळ घास- गींठी, भ्यूंलू, तुसरु, छँछरी, असींन, सांधण, पुलऊ, फरसेई,धौडु, रवीणा, बैरूडु, बुदलू, ख़ैणा, बेडु, तिमला, पय्याँ, कुर्री, खडीक, मालु, ग्वीराळ, बांस, बेडु, कंदला,बाँझ, धौलु,टिमरिया व पत्तघास-ऊळऊ, तछील, मुसलू, धिवड़ा, मर्च्या, कुम्रिया, लिंजडु, बबलू, रैम्वडू, अल्मोडु, पराळ, खगसा, चुपल्या, नलौ, चिलौ, लव-कुुुश, नेपियर, बबलू,गुच्छी,कांस, नलिका, जैई, गुईना, जंगली क्वादु, मसाण, चित्रा, गोड़िया, राई, कंडली,कुमरिया, दोलनी, गिन्नी, अंगोरा, औंस, सीता,ब्रूम इत्यादि दर्जनों घास की प्रजातियां याद आ गयी।

ये तो सिर्फ आधे घण्टे की मेमोरी फीड बैक है अगर इस पर सचमुच रिसर्च करनी हो तो हिमालयी क्षेत्र की माँ बहनों से जाने कितनी और प्रजातियां यहाँ घास की मिल जाएंगी।
काश…मुख्यमंत्री अखिलेश की तरह हमारे प्रदेश के मुखिया भी इस पर रिसर्च करवाते। मुख्यमंत्री हरीश रावत आगामी समय में मुख्यमंत्री बनते हैं या नहीं लेकिन उन्होंने जो लोक त्यौहार व पहाड़ी व्यंजन प्रमोट किये हैं वे इस प्रदेश में कालांतर तक याद किये जॉयेंगे।

आईए हम भी हिमालयी प्रदेश के जनधन, गौ धन, कृषिधन के लिए ऐसी ही घास की विभिन्न प्रजातियों पर शोध कार्य करें ताकि विदेशों से गेहूं के साथ यहाँ भेजी गयी कई किस्म की बेकार वनस्पति(लैंटना, जंगली पालक, जंगली कुर्री इत्यादि) से उनका संरक्षण किया जा सके।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *