पहाड़ बसायेंगे नहीं बल्कि उजाड़ेंगे प्राधिकरण..!
(मनोज इष्टवाल)
उत्तराखंड राज्य की वर्तमान स्थिति से भला कौन वाफ़िक नहीं होगा! सभी जानते हैं कि यह राज्य वर्तमान में बाजार से कर्ज उठाकर जैसे – तैसे कर्मचारियों अधिकारियों व विधायक मंत्रियों का वेतन पूरा कर रहा है! अनुमानत: जो बच्चा आज और अभी पैदा हो वह भी अपने सिर पर लगभग 7 हजार का कर्ज लेकर जन्म ले रहा है ! ऐसे में भी सरकार के मंत्री जाने किन कारणों से ऐसे तुगलकी फैसले ले रहे हैं जो आने वाले दिनों में अरबों का कर्जा और हमारे सिर डालने वाले हैं!
इन्हीं फैसलों में एक फैसला शहरी विकास, आवास, पुनर्गठन एवं निर्वाचन सहित विभिन्न मंत्रालयों का जिम्मा उठा रहे कद्दावर मंत्री मदन कौशिक द्वारा लिया गया है ! उन्होंने पूरे उत्तराखंड के प्रत्येक जिले में एक -एक प्राधिकरण गठित करने का आदेश जारी किया है जिसमें शुरूआती दौर में 573 अधिकारी व कर्मचारियों की नियुक्ति की जायेगी! यानि 13 जिलों में 13 प्राधिकरण व उनमें नियुक्त होने वाले 573 कर्मी!
चलिए ये सब ठीक है लेकिन प्राधिकरण के कार्य भी तो समझ लीजिये! प्राधिकरण अब बिना नक्शा बनाए न आपको मकान बनाने देगा न दुकान ही! ऐसे में पहाड़ के 9 जिलों में जैसे तैसे जीवन यापन कर रहे ग्रामीणों की क्या गत होगी आप समझ सकते हैं! नहीं समझ सकते तो आपको बताये देते हैं कि अब आप छोटे कस्बों, बाजारों में अपने रोजगार के लिए कोई दुकान या आवास निर्माण भी करवाना चाहेंगे तो उनका नक्शा पास करवाने के लिए पहले आप प्राधिकरण के अधिकारियों कर्मियों की परिक्रमा करेंगे तत्पश्चात अगर आपका नक्शा पास भी हो गया तो कम से कम एक लाख तो जाहिर सी बात है कि आपको नक्शा पास करवाने के चुकाने ही पड़ेंगे!
अब आई बात पलायन रोकने की! तब सरकार कहती है कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार हेतु पंडित दीन दयाल उपाध्याय योजना से ऋण आबंटित करेंगे ! वह ऋण आपको लगभग 38 से 40 हजार मिलेगा उसमें भी यह तय नहीं है कि आप इसका कुछ भाग जब तक विभागीय कर्मियों की जेब गरम करने में नहीं भरेंगे तब तक आपको मिल ही जाएगा! ऐसे में कौन ग्रामीण और कौन बेरोजगार कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों के बाजारों में अपना स्वरोजगार तलासेगा यह सोचने वाली बात है! इधर सरकार जोर शोर से कह रही है कि हम पलायन रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं! फिर यह प्रतिबद्धता कैसी…?
क्या पूर्व से प्रचलित नगर पालिकाएं, ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज एक्ट एकदम नपुंसक हैं जो ऊपर से ये प्राधिकरण थोप दिए जा रहे हैं जिनकी अवस्थापना पर करोड़ों का खर्च आयेगा! आज जबकि घोषणा के बाबजूद सरकार एक पलायन निदेशालय खोलने के लिए पौड़ी में भवन नहीं जुटा पा रही है वह प्राधिकरणों का बोझ कैसे झेलेगी यह कह पाना असम्भव सा है! अधिकारी मंत्रियों को ऐसा नाच नचा रहे हैं कि क्या कहने! एनआईटी सुमाड़ी में बनने की कवायद में अभी हम ढाई कदम नहीं चले थे कि रिपोर्ट लगाईं जाती है कि सुमाड़ी एनआईटी के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि वहां पहुँचते पहुँचते अधिकारियों, कर्मियों और विद्यार्थियों का स्वास्थ्य खराब होने लगता है. उन्हें रास्ते में सफर करते समय उल्टियां होनी शुरू हो जाती हैं! क्या पर्वतीय राज्य की परिकल्पना इन्हीं लोगों को देखते हुए की गयी थी जिन्हें पहाड़ के नाम से ही उल्टियां शुरू हो जाती हैं! कहीं ऐसा तो नहीं कि पलायन महानिदेशालय भवन ढूँढने के लिए भी यह स्वांग रचा जा रहा हो ताकि इसे पौड़ी से और कहीं खिसका दिया जाय!
प्रश्न बहुत हैं लेकिन उत्तर एक भी नहीं क्योंकि हम अब सड-खप्प गए हैं! हम इतने ऐशोआराम परस्त हो गए हैं कि हमें अपनी जन्मभूमि के प्रति कोई ममतत्व प्यार रहा ही नहीं. अगर होता तो अब तक ऐसे मामलों में आन्दोलन शुरू हो जाते! गाँव उजाड़ने के लिए ऐसे कई प्रयास हो रहे हैं और हम दिनों-दिन उजड़ते जा रहे हैं! विगत 10 बर्षों में हमारे 19 फीसदी गाँव वीरान हो गए फिर भी हम नहीं चेते हैं! अब प्राधिकरणों के इस खेल की राजनीति हमें कितने दिन और ग्रामीण जीवन दे पाएगी यह सोचना सभी का काम है! कुछ बर्षों बाद यह भी संभव हो सकता है कि जिस स्वछंदता के साथ पहाड़ों की आवोहवा में हम अपनी गुजर कर रहे हैं उसकी हवाओं फिजाओं घटाओं में घुमने उन्हें महसूस करने के लिए भी हमें टैक्स पे करना पड़े! और यह भी संभव है कि हगने मूतने की आजादी पर भी!