पहाड़ की लोकसंस्कृति में समाये हैं नारी के सौ से भी अधिक आभूषण ! आज भी लोग एक नजर देखने को तरसते हैं चंद्राहार! 

पहाड़ की लोकसंस्कृति में समाये हैं नारी के सौ से भी अधिक आभूषण ! आज भी लोग एक नजर देखने को तरसते हैं  नौ लखा चंद्राहार! 

(मनोज इष्टवाल)
मेरी बेटुली मेरी लाड़ी लठयाळी, मेरी चखुली मेरी फूलूं की डाळी….! झुमकी लै जै भीना पांसो की झुमेको…! मेरा भीना सौदेर रे लै छुपकी.., हुन्ग्रा लगान्द भग्यानी नाकै की नथुली, भग्यानी नाकै की नथुली..हाय तेरु रुमाल गुलाबी मुखड़ी, के भली छजीले नाकै की नथुली, गौला गुलोबंद हाथकी धगुली चमचम चमकी रे माथैकी बिंदुली.. गाडू गुलोबंद गुलोबन्द को नगीना, त्वे थैं मेरी सासू ब्वार्युं की अगीना..सहित जाने कितने गीतों को नारी सौन्दर्य व उससे जुड़े आभुषणो में परिभाषित कर हर काल परिस्थिति के अनुसार पहाड़ की माँ बेटी व उनसे जुड़े सौन्दर्य से जांचा परखा गया हो. फिलहाल उत्तराखंड की जनजातीय संस्कृतियों और गढ़ कुमाऊ के जन मानस से जुड़े आभूषणो के बारे में बात की जाय तो हम आश्चर्य चकित रहेगे कि मर्द के पास आभुषण के रूप में जहाँ चार या पांच गिनी चुनी चीजें हुई वहीँ महिलाओं के पास सजने सँवारने के लिए जेवरों का अकूत भण्डार हुआ करता था हुआ करता है. 

अगर आज भी इन सौ से ज्यादा प्रजाति के जेवर पहनकर कोई महिला निकल जाए तो वे कहीं दिखाई भी देंगी कि नहीं ये कह पाना मुश्किल है. बारह महीनो की 12 ऋतुओं के वर्णन के साथ ही यहाँ का लोक पहनावा व आभुषण सज्जा बदलती रही है! नयी नवेली दुल्हन बेटियाँ तो जब अपना श्रृंगार कर रूपवती होती हैं तब उनकी तुलना में चंद्रमा की धवलता भी फीकी दिखाई देती है. श्रृंगार को गहने के रूप में परिभाषित करने वाले स्वर्णकार भी तब हर रोज नए प्रयोग कर आभूषणो के डिजाइन विकसित करते रहे होंगे. वरना इतने आभूषण नित प्रयोग में आयें ये स्वाभाविक नहीं था. एक आभुषण सुंगरजटा के नाम से भी जाना जाता रहा है जिसमें पीछे चांदी की मूठ रहती थी और आगे सुवर के बाल! 

कुमाऊँ गढवाल में पहने जाने वाला चन्दन हार पहला व जौ हार (जऊहार ) दूसरा हुआ यह जानकारी मुझ तक पहूँचाने के लिये रेखा पंचभैय्या जी का हार्दिक आभार ! जौ हार देखने के लिये आप मोबाइल पर फोटो जूम करके देखें यह हार मंगल सूत्र की तरह का होता है ज़िसमें मोतियों के साथ सोने की जौ टाईप लटकन पिरोई जाती है ! इसे कुमाऊ में चम्पाकली के नाम से भी जाना जाता है इस आशय की जानकारी हमें मंजू चौधरी जी से प्राप्त हुई. इसका निर्मांण पिथौरागढ़ की जोहार घाटी से शुरू माना जाता है जबकि चन्दनहार महाराष्ट्र के राजघराने की पहचान रही और वहीं से विकसित होकर पूरे भारत बर्ष में प्रसिध हुई इसे गुजरात में झुमका कहते हैं जबकि कानों में पहने जाने वाले आभुषण को वेदला नाम से गुजराती संबोधित करते हैं लेकिन इसे भी गढवाल के चन्द्राहार से चुराया गया मोडेल कहा जाता है क्योंकि यह हार यहां द्वापर में विकसित किया गया था!

ऐसा माना जाता है इसे गढ कुमाऊँ में चन्द्राहार या चन्द्रिका नाम से पुकारा जाता रहा है ! अंतिम जो माला आप को दिखाई दे रही है उसका प्रचलन कुमाऊं के साह चौधरी परिवारों में बहुतायत रहा है. इसे कुमाऊं में मंतरमाला के नाम से जाना जाता हैं. जिसमें गोल सोने के दानों के मध्य छोटे छोटे स्वर्ण दाने या फिर नागीने पिरोये जाते हैं इसे जंतरमाला याफिर मंतर माला के नाम से जाना जाता है. इसे औरत व मर्द दोनों ही पहनते हैं

वहीँ मुंबई में पेशे से इंजीनियर मनिषा चौधरी जोशी जोकि नैनीताल से हैं, ने भी कुमाऊँ में प्रचलित कुछ आभूषणो की फोटो शेयर की हैं ज़िनमें कान के झुमको के आकार के आभूषण ज़िन्हे कुमाऊँ में गोस्से कहते हैं, जऊमाला, पाऊँची, हाथी कंगन, दोहरगागरी (महिला), दोहर गागरी (पुरूष ) इत्यादी शामिल हैं ! वहीँ अल्मोड़ा से अंजू साह बताती हैं कि कुमाऊ के बड़े घरानों में बिशेषत: नैनीताल में तीन लड़ी, पांच लड़ी व सितारामी तथा रानीहार नामक भारी भरकम सोने के जेवर पहनने का रिवाज पौराणिक समय से चला आ रहा है और आज भी बड़े बड़े घरानों में इसका रिवाज है, लेकिन वर्तमान परिवेश के बदलते ही लोगों ने आभूषणों की शक्ल बदलनी शुरू कर दी क्योंकि तीन लड़ी, पांच लड़ी या सितारामी नामक एकएक जेवर लाखों की कीमत में बनता है.


वहीं देहरादून में रह रही पौड़ी जनपद के गगवाड़स्यूं बलोड़ी गॉव की श्रीमति सरोज बडथ्वाल ने गढवाली मूल में प्रचलित आभूषणो में बढौत्तरी करते हुये इनमें बुजनी(कानों में), बीडीबालैय्य (माथे के चारों ओर), झिंवरा, छड्डा, अनोखी, ईमर्ती (पैरों में), शिशफूल (जूड़े में), स्वल मुंदडी (हाथ के अंगूठे में) इत्यादि और आभूषणो को जोडती हैं |

इस आभूषण को डिजाइन बेहद गोपनीय तरीके से इसलिए किया गया था ताकि मुगल युद्ध के दौरान अकाल मृत्युं मरे मुस्लिम समुदाय के सैय्यद लोगों की नजर से सुरक्षित रहां जा सके जो अक्सर प्रेतआत्मा के रूप में महिलाओं बेटियों पर अक्सर पश्वा रूप में अवतरित हुआ करते थे. इस जेवर को इजाद करने का मुख्य मकसद नक्चोंडी के साथ कान-साफ करने वाले की तरह इसे भी कान में डालकर धुल मिटटी साफ़ करने के प्रयोग में लाये जाने वाले आभुषण के तौर पर बनाया गया लेकिन यह महिलाओं को नहीं बताया गया कि इस पर लगने वाले बाल सूअर के बाल होते हैं. अब भी यह आभुषण जनजाति की महिलाओं में प्रचलित है. 

(नौलखा हार /चन्दनहार )
महिला आभुषणो की अगर बात की जाय तो उनमें चन्द्राहार, शीशफूल, कांडूटी, झुमके, सिरबंदी, कुंडल, तुंगल, कर्णफूल, कांडूडी, उतराई, कंठी, कांगुटा, पोलिया, लच्छा, सौन्ठा, पेठा, लपचा, झांझर, मुनडी, मुंदडी, पौंची, स्यूंदाड, छुपकी,चम्पाकली, लाकेट (नया आभूषण) स्युणी, मटरमाला, कलदारमाला, छयमनंग, सांगल, झप्या, हंसुली, धगुली, पोटा, सुत्ता, पाटी, नंगचा, मुर्खली, बीड़ा, पट्टीदारचूड़ी, मुर्की, तिल्लारी, छडके तिल्लरी, फूली, नथ, कंठा, नौगेटी, बाला, कमरबंद, मांगटिक्का, कंगन, मडवडी, बुलाकी, बुलाक, बिसार, जौ, चन्दनहार, पाउजू, चन्द्रमा, जंतर, नकचुंडी, तिमौणी, मनका, सूच, सुर्ताज, रतदाणी, लालदाणी, चमकदाणी, सतलड़ी, गुलोबंद, चरेयु, पांसों की माला, पत्थरमाला, कनक्वारी, झुल्सा, दांतक्वोन्या, चिमुटी, झंवरी, पट्टबंदी, बिछुवा, पाजेब इत्यादि और ऐसे ही कई अन्य प्रचलन में रहे ! जिनमें कई आज भी दुर्लभ आभूषणो की श्रेणी में आते हैं.

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