पहाड़ की काष्ठ व पाषाण शिल्प का बखान करती ये सजीव वास्तुकला। खास पट्टी के दिनेश ने उकेरी पर्वतीय संस्कृति की बेमिशाल छटा।

पहाड़ की काष्ठ व पाषाण शिल्प का बखान करती ये सजीव वास्तुकला। खास पट्टी के दिनेश ने उकेरी पर्वतीय संस्कृति की बेमिशाल छटा।
(मनोज इष्टवाल)

टिहरी गढ़वाल की एक ऐसी पट्टी का बखान करने से पूर्व जाने लोगों में ऐसी क्या भ्रांतियां हैं कि उसके उदाहरण गढ़वाल मंडल में आम से खास हैं। पट्टी खास का नाम लोग अपनी जुबान पर क्यों नहीं लाना चाहते यह कहना जरा अलग होगा लेकिन यह भी सच है कि इस पट्टी को शायद खास इसलिए कहा गया क्योंकि श्रीनगर राज दरबार में यहां का दबदबा कुछ खास ही था।
इसी पट्टी के एक होनहार ने अपनी इंजीनियरिंग के ऐसे मॉडल गढ़ शिल्प के उतारे हैं कि लोग दाँतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हैं।

खासपट्टी के लामणि धार निवासी दिनेश ने उत्तराखण्ड की लगभग 400 बर्ष पुरानी विरासत को संजोने की मुहिम तैयार की है जिसमें हमें वहां का लोकसमाज व वास्तुकला का अनूठा संगम देखने को मिलता है।
भले ही आज राजवाड़े समाप्त हो गए हों लेकिन कई ग्रामों में आज भी थोकदारी क्वाठा व चौखम्बा, नौखम्बा, बारह खम्बा तिबारियां अपने वजूद की गाथा गाती दिखाई देती हैं। ऐसे कई बहुमूल्य विशालकाय मकान इसलिए जमींदोज हो गए क्योंकि उनके अपने उन्हें ताले लगाकर कब के पहाड़ छोड़कर रफ्फूचक्कर हो गए।

और अगर कोई बचे हुए भी हैं वे तब भी उन्हें किसी ग्रामीण, संस्था या व्यवसायी को किराए पर या यूँहीं रहने के लिए देते नहीं हैं क्योंकि उन्हें डर सताता है कि कहीं कोई कब्जा न कर बैठे। भले ही ये मकान धीरे धीरे टूटकर खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं लेकिन इनकी सुध लेने वाले इनके अपनों की यह बेरुखी न सिर्फ वह मकान खण्डहर कर रही है बल्कि उसके साथ वह शिल्प भी खत्म हो रहा है जो उन इमारतों के काष्ठ व पाषाण पर बेहद जी तोड़ मेहनत के साथ उस काल के राज मिस्त्रियों द्वारा छेनी, हथौड़ी, बाँसुली, सुम्मा से उकेरी गई अद्भुत शिल्प कला है।

अब जबकि दिनेश ने इन डिज़ाइन को मॉडल के रूप में उकेरकर हम सबके समक्ष रखा है तो यकीन मानिए आधे से ज्यादा धनाढ्य लोग इस वास्तुकला शिल्प कला को अपने आवास में उतारने को बेहद कौतूहलता से सोच रहे होंगे।

इन तिबारियों। के निर्माण का काल काम से कम उस दौर में तीन बर्ष और अधिकतम 12 बर्ष माना जाता था। यानि ऐसे मकान बनाने के लिए इतने साल लग जाते थे क्योंकि ज्यादातर धनासेठ इसमें उड़द की दाल की चुनवाई करवाया करते थे वे कटुवा व करारे पत्थर की तलाश में मिस्त्री भटका करते थे जिसके फलस्वरूप मकान निर्माण में काफी समय लग जाता था। तब संसाधनों की कमी हुआ करती थी और ऐसा भी होता था कि पिता ने मकान शुरु तो करवाया लेखक इनका निर्माण काल पोते के होने तक चला जाता था।

आज संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन वे राजमिस्त्री नहीं रहे जिनके हाथों में शिल्प की ऐसी छेनी हथौड़ी हुआ करती थी।
चौखम्बा तिबारी को अपने सम्मान व वजूद का हिस्सा समझने वाले हिमालयन समीर के नाम से विख्यात मसूरी वासी समीर शुक्ला व उनकी अर्धांगिनी कविता शुक्ला पहाड़ के एक उजाड़े मकान से जैसे तैसे खरीदकर लाये एक तिबारी को मसूरी तो ले आये लेकिन यहाँ उसके जोड़ मिलाने वाले मिस्त्री नहीं मिल पाए। समीर शुक्ला कहते हैं कि जब वे हताश हो गए तो उन्होंने स्वयं ही उसके जोड़ मिलाकर तिबारी तो खड़ी के दी लेमिन उसके ऊपरी हिस्से को काफी मशक्कत के बाद भी नहीं जोड़ सके।
यही बात देहरादून की लक्कड़मंडी के काष्ठ कला के धनी शिल्पी भी कहते हैं कि वे लकड़ी है हूबहू डिज़ाइन तो तैयार कर देंगे लेकिन इसका ऊपरी हिस्सा जोड़ना महाभारत है।
उत्तराखण्ड सरकार की ग्रामीण पर्यटन योजना जिस दिन कारगर साबित हो गयी तो समझ लिए पहाड़ फिर से अपने भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए ऐसे क्वाठानुमा बनाना शुरू कर देंगे जोकि व्यवसायिक रूप से कारगर ही साबित नहीं होगा बल्कि फिर से गांव बसाने में भी सक्षम होगा।
फोटो साभार : विक्रम सिंह नेगी

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