पहाड़ों में अमावस्या के रोज मनाई जाती है बग्वाली गौ-धीत !
पहाड़ों में अमावस्या के रोज मनाई जाती है बग्वाली गौ-धीत !
(मनोज इष्टवाल)
यह सचमुच मुझे विस्मित कर देने वाला लगा कि मैंने अपनी सोशल साईट पर सुबह फोटो डालकर उत्तराखंड वासियों से जिज्ञासावश प्रश्न किया था कि इन फोटो को देखते हुए आप बता पायेंगे कि यह दीपावली में पहाड़ में क्यों मनाया जाता है? लेकिन अफ़सोस कि किसी के पास भी इसका जवाब नहीं था! हर कोई यह जानता था कि इस दिन गाय बैल या अन्य जानवरों को घर के अन्न से बने पकवान खिलाए जाते हैं लेकिन इसका नाम क्या है कोई नहीं जानता!
आइये आपको बता देते हैं कि दीपावली के दूसरे दिन यानी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन और गौ पूजा का क्यों विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन गाय की पूजा करने के बाद गाय पालक को उपहार एवं अन्न वस्त्र देना चाहिए। ऐसा करने से घर में सुख समृद्धि आती है। देश के कई हिस्सों में इस दिन गोवर्धन पर्वत और गौ माता की पूजा की जाती है और अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है।
इसे मुख्यतः गोवर्धन पूजा के रूप में लोग मनाते हैं जबकि पहाड़ों में बग्वाल की सुबह यानि अमावस्या के रोज यह त्यौहार मनाया जाता है जिसे बग्वाली गौ-धीत के नाम से जाना जाता है! कहीं-कहीं कोई इसे गौ-पिंडी के नाम से भी पुकारते हैं! वहीँ कुमाऊं क्षेत्र में भी यह त्यौहार प्रचुर मात्रा में मनाया जाता है! पिथौरागढ़ की लोक संस्कृति व लोक समाज की वकालत करने वाले पंकज सिंह महर बताते हैं कि इस त्यौहार को हमारे पहाड़ में पशुधन सेवा से जोड़ा गया है। आज के दिन सारे जानवरों को नहला-धुलाकर पकवान खिलाये जाते हैं, उनके पुट्ठों पर पीतल के गिलास को कमेट में डूबाकर ठप्पे लगाये जाते हैं, बैलों के सींगों पर तेल चुपड़ा जाता है और उन पर रंग बिरंगे फुँने/फूंदे बांधे जाते हैं, गोठ की सफाई की जाती है। घर आदि की सफाई के बाद पशुधन से प्रेम को और प्रगाढ़ रखने के लिए यह त्यार/त्यौहार मनाया है।
यही सब तो गढ़वाल क्षेत्र में भी होता है लेकिन थोड़ा बहुत अंतर के साथ! गढ़वाल में जहाँ अमावस्या की सुबह 4 बजे से माँ-बहने अपने चूल्हे में तैsका (लोहे की कड़ाई में तेल) चढा देती हैं व दाल के पकोड़े, भरी स्वाली (पूड़ी) मीठी स्वाळई इत्यादि बनाती हैं वहीँ दूसरी और गौ धन के लिए झंगोरा, बाड़ी, जौ के आटे के डिंडे (गोले) चावल का भात बनाकर उनके साथ फूल मालाएं व स्वाली-पकोड़ी शामिल कर सुबह सबेरे गाय को टीका कर उनके गले में फूल मालाएं डालकर उनकी साज सज्जा करते हैं! गाय व बैलों के सींगों में तेल, भैंस भी इस बहाने सींगों में तेल धारण कर लेती है! उनकी पूजा के समय गृहणी अक्सर कहती सुनाई देती हैं- “गौ-माता खावा-खावा, बग्वळया गोरुं धीत ल्यावा!” अर्थात गाय माता खाओ खाओ, बग्वाल के पशुओं छककर खाओ!
यह दिन सचमुच गौ-धन के लिए एक त्यौहार होता है और कहा तो ये भी जाता है कि यही दिन है जब गौ-माता पूरे साल भर के लिए पूरे परिवार को अन्नपूर्णा बन आशीर्वाद देती है कि जब तक मैं तेरे आँगन में हूँ तुझे व तेरे परिवार को भूखे नहीं मरने दूंगी! वहीँ मुंडै (गेहूं की बुवाई) से थके हारे बैल भी मस्त मगन होकर आशीर्वाद देते हैं कि तेरे खेतों में इस बार फसल हमारे परिश्रम से ज्यादा लहलहाए! यकीन मानिए यही कारण भी है कि इगास आते-आते मात्र 11 दिनों में ही गेहूं के बीजों में अंकुर फूट आते हैं और वे दो पत्तियों के साथ खेतों में अंगडाई लेते नजर आते है! बग्वाली भैलो के बाद इगास का भैलो इन्हीं खेतों की मेंड़ों में खड़े होकर ग्रामीण उत्साह के साथ इसलिए खेलते हैं क्योंकि उनके अंकुरित बीज अब पौधे में तब्दील हो गए हैं! जिस सार (छोर/क्षेत्र) में बग्वाली या इगासी भैलो खेला जाता है उधर उस बर्ष ज्यादा अन्न होता है ऐसा लोगों का मानना है!
इसीलिए कहावत है कि “आळी मूडैs सूखी फगुणसि” अर्थात नमी वाली फसल (आळी मुंडै/कार्तिक मास) व सूखा खेत (सूखी फगुणसि/फाल्गुन मास) कहा जाता है ! फाल्गुन की हलजोत के दिन भी बैलों को सजाया संवारा जाता है व उन्हें भी पिंडी के रूप में यह सब पकवान खिलाये जाते हैं! इसीलिए गौ-धीत और गोवर्धन पूजा को एक साथ जोड़कर देखना जहाँ तक मेरा तर्क है सही नहीं होगा क्योंकि गोवर्धन पूजा इस पूजा के ठीक दुसरे दिन शुरू होती है! उसका भी लगभग यही स्वरूप है! पहाड़ की संस्कृति में पक्षी, पशु, इंसान व पर्यावरण सब का आपस में बेजोड़ संगम रहा है और ये सब हमेशा एक दूसरे के पूरक रहे हैं! शायद इसीलिए इसे देवभूमि कहा जाता रहा है! बग्वाली-गौ धीत त्यौहार भी दीपावली के अवसर पर मनाया जाने वाला शुद्ध पर्यावरणीय त्यौहार है!