पलायन …बर्षों पूर्व बादी समाज ले आया था चेतना के गीत..! गंज्यालि फाड़ीक तौंन छिलकि बणैना। छीलकि फाड़ीक तौंन ऊंमि पकैना।।
(मनोज इष्टवाल)

इसीलिए तो इस समाज को शिब का अनुनय भक्त गंदर्भ कहा जाता है! ऐसा गंदर्भ जिसने श्रृष्टि संरचना में अपने बोलों का अमृतरस घोलकर उसकी संरचना में ब्रह्मा की मदद की! ऐसा गंदर्भ जिसने अपने गीतों को परिभाषित कर लोगों में प्रेम, राग, द्वेष, पाप, ताप सहित असंख्य रसों का सृजन किया और उसका नाम पड़ा बादी-बादीण, बेडावृत्त समाज! जनउपेक्षाओं के चलते इस समाज का बर्चस्व पहाड़ी मूल से समाप्त होने के कगार पर है! आखिर हो भी क्यों नहीं क्या उपेक्षाओं में जीने का ठेका इसी समाज ने ले रखा है? इस बात को हम जानने में जाने क्यों चूक कर रहे हैं कि निरंतर जीव जंतु, अन्न, प्रकृति का ह्रास ही नहीं बल्कि मनुष्य का ह्रास भी इस विकास की अंधी दौड़ में समाप्त हो रहा है! अकेले गढ़वाल में गढ़वाली बोली के असंख्य स्वरूप थे जिनकी प्रभुत्ता का खतरा बढ़ गया है व इस से जितनी तेजी इस इसके रचना संसार के शब्द गायब हो रहे हैं उतनी ही तेजी से हमारी यह बोली-भाषा भी गायब हो रही है! और तो और हमारे समाज के रचे बसे गीत, जागर इत्यादि भी उसी तेजी से मिट रहे हैं जितनी तेजी से इसके रचनाकार व गायक कलाकार! सिर्फ यही नहीं ढोलकी तो यहाँ अब दुर्लभ हो गयी है किसी के पास अगर होगी भी तो वह किसी अँधेरे कोने की धुल फांक रही होगी!
इन सब शब्दों का सार एक ही है और वह है हमें जिस जिस तबके को श्रृष्टि की संरचना के समय जो जो कार्य मिले थे वे सब हमने अपने कर्मों से मिटाने शुरू कर दिए हैं! ब्राह्मण के स्थान पर आज वेदपाठी राजपूत, शिल्पकार और तो और महिला भी हो गयी हैं! राजपूत का जिम्मा आज ब्राह्मण शिल्पकार उठा रहे हैं! शिल्पकार का जिम्मा आज ब्राह्मण, राजपूत उठा रहे हैं! विश्वास न हो तो खुद आत्मचिंतन कीजिये! आपकी आँखों के आगे वह सब दिखाई देगा जिसे हम बहुत हलके में लेना चाहते हैं! आखिर यह सब उल्टा पुल्टा क्यों हुआ? उस सबका दोषी वह प्रबुद्ध समाज है जिसने सिर्फ शिल्पकार की नहीं बल्कि हर उस वर्ग की उपेक्षा की जो जानकार तो था लेकिन गरीब था! आज ब्राह्मण के बेटे ने पोथी रखी छोड़ दी! राजपूत ने खेती करनी व शिल्पकार ने तेली, लोहार, बढ़ई-मिस्त्री या ढोल जागर का काम! सब विकास की अंधी दौड़ के साथ भागते ही जा रहे हैं ताकि वे आसमान पर छेद कर सकें!
सच तो यह है कि हमने जहाँ एक दूसरे की जनभावनाओं को ठेस पहुंचाई वहीँ समाज में विक्राव शुरू हुआ! आपसी समाज के ताने बाने रिश्ते टूटे और अब हम शहरों में गुमनाम पहचान के साथ एक नाम की आलिशान कोठी तक ही सीमित रह गए जबकि गाँवों में मीलों तक हमारे खेत हमारी सरहदें फैली हैं जहाँ स्वछंद प्रकति हमारी हर दम बाँहें फैलाए स्वागत करती है!
उत्तराखंडी समाज के विघटन का अगर सबसे पहले किसी को पता चला तो वह हुआ हमारा सबसे अशिक्षित व गरीब तबका ! जिसने गीतों में उस टूटन चुभन को महसूस कर हमें सतर्क करने के हर सम्भव प्रयास किये और हम शब्दों को सुनने की जगह बस बोलते रहे – वाह बदीण बौs…जरा ठुमका भी लगै देंदी त मजा ऐ जांदू! वाह रे दिदा बद्दी! तेरी तौं अंगुल्यूं म क्य कमाल च भैs! ढुलकी सूणीकि रस्याण ऐग्या भै! लेकिन उनके मन की यह पीड़ा हम तब भी नहीं भांप पाए और आज भी नहीं कि ये श्रृष्टि की रचना में ब्रह्मा जी के सहायक रहे हमें किस बात के लिए इंगित कर रहे हैं! सुनिए पहाड़ी ब्रो द्वारा रिकॉर्ड इस वीडिओ में बादी समाज की इस बेहतरीन प्रस्तुती को!
कनु जमानु आई होलू गरमा गरम।
नंगी मुंडली बेटी ब्वार्यूं की नीच सरामा।।
गंज्यालि फाड़ीक तौंन छिलकि बणैन।
छीलकि फाड़ीक तौंन ऊंमि पकैन।।
घट कू भग्वाड़़ि ओंदु जन ओंदु मखन।
जंदरि सिली भैजी द्यौखण कखन।।
हे.. बड़ा बड़ा द्यबता पूजिन अगरबत्यूंन।
रंग कु बीरंग बणायी नीली ध्वत्यूंन।।
अलु प्याज कि भुजि बणायी बिना त्यौल मा।
दिनेस बीमार होंयुं च दादि की खुद मा।।
यू रेबन केन मंगायि सरा मन मा।
रेबन कु फुल सज्यूं च दिनेसका मुंडे मा।