पलायन पर चोट करती वेद बडोला की कहानी "धीरू का माँ"…!

धीरू की माँ…..(कहानी)

(वेद बडोला)

 राधा एक विधवा औरत है जो अपने इकलोते बेटे को पढ़ा लिखा रही है। उसका मानना है कि बेटा धीरू पढ़ लिखकर वहीँ गाँव में खेती बाड़ी करेगा। धीरू का भी यही सोचना है कि यहीं गाँव में रहकर मां की सेवा करेगा।  धीरू पढ़ लिख जाता है और राधा उसकी शादी जानकी से करवा देती है। जानकी कम पढ़ी लिखी है और वो नहीं चाहती कि उसका पति गाँव में रहे। इसलिए अक्सर जानकी धीरू को शहर जाने के लिए उकसाती रहती है। जानकी भी धीरू के साथ शहर जाने की जिद करती है। हालांकि धीरू कई तर्क देता है और जानकी को समझाता है कि घर में मां अकेली है।  लेकिन जानकी नहीं मानती. उधर, राधा बहु के शहर जाने के तर्कों से छलनी है. मजबूरन धीरू भी जानकी को लेकर शहर चला जाता है।  अपनी मां को गाँव में अकेला छोड़कर इस वायदे के साथ कि वो चिट्ठी के जरिये मां की कुशलक्षेम लेता रहेगा। राधा अपने  बेटे धीरू से इतना दूर कभी नहीं रही. अपने बेटे की खातिर वो चुपचाप इस सदमे को बर्दाश्त करने में जुट जाती है. राधा को अब इन्तजार है तो धीरू के खतों का। दिल्ली आकर धीरू एक कंपनी में छोटी-मोटी नौकरी जिसका इंतजाम गाँव के ही एक शख्स ने कर दिया था, करने लगता है। धीरू भी अपनी मां से इतना दूर कभी नहीं हुआ था. लिहाजा अक्सर वो अपनी मां का जिक्र अपनी पत्नी से करता रहता है।  जानकी को ये सब अच्छा नहीं लगता. उसे ये लगता है कि कहीं उसका पति मां के प्रेम में गाँव वापिस ना लौट जाये। लिहाजा वो धीरू के मन से मां की हर छाप को मिटाने के निश्चय कर लेती है। एक दिन धीरू अपनी मां को चिट्ठी लिखता है. देरी होने के कारण वो चिट्ठी को वहीँ भूल जाता है। जानकी चिट्ठी को खोलकर पढ़ लेती है और फाड़कर फेंक देती है।  शाम को धीरू घर आता है और  चिट्ठी के विषय में पूछताछ करता है। जानकी धीरू को बताती  है कि उसने चिट्ठी पोस्ट कर दी है। ये क्रम चलता रहता है. धीरू अपनी मां को चिट्ठी लिखता रहता है और जानकी वो  चिट्ठी फाड़ती रहती है। उधर गाँव में राधा  परेशान  है कि  आखिर धीरू चिट्ठी क्यों नहीं भेज रहा। वो अपने बच्चे का हालचाल जानने के लिए बेताब है। उधर, राधा का इन्तजार बढ़ता जा रहा है। अब राधा का नित्यक्रम हो गया है पोस्ट ऑफिस जाना। राधा रोजाना दोनों समय आने वाली बस में अपने बेटे धीरू को भी देखने जाया करती है। लेकिन न तो धीरू लौटा और न ही आयी उसकी कोई चिट्ठी
इस बीच गाँव का ही एक बच्चा जो राधा को दादी मानता है राधा के दुःख में शामिल हो जाता है। वो स्कूल के बाद जितना समय बचता है राधा के साथ बिताता है. दोनों अक्सर ऐसे बाते करते हैं जैसे मानों जन्म-जन्म के दोस्त हों. राधा भी अपने दिल का दर्द उसके साथ बांटती रहती है।  
इधर, इस बात से बेखबर कि उसकी मां पर क्या बीत रही है, धीरू समय के कालचक्र में जैसे-तैसे जिंदगी की गाडी खींच रहा है। धीरू शहर आकर खीज गया है। छोटा सा कमरा. कभी बिजली नहीं तो कभी पानी की किचकिच. ऑफिस में अफसरों के ताने. वो अक्सर अपनी पत्नी जानकी से इन सब दिक्कतों का जिक्र करता है और गाँव लौट चलने को कहता है. लेकिन जानकी कहाँ मानने वाली है। छोटी-मोटी नौकरी है इसलिए चाहकर भी उसे छुट्टी नहीं मिल पाती. वो अक्सर चिट्ठी लिखकर ये मान लेता हैं कि वो उसकी मां तक पहुँच रही होगी. लेकिन उसे नहीं मालूम कि उसकी लिखी चिट्ठी और उसकी मां की लिखी चिट्ठी दोनों ही उसकी पत्नी जानकी फाड़ देती है। दोनों, धीरू और उसकी मां राधा परेशान हैं कि आखिर कोई चिट्ठी क्यों नहीं भेज रहा जबकि हकीकत कुछ और ही है।
राधा अपने बेटे के गम में गुमसुम रहने लगी है. उसने अपने को समाज से लगभग काट ही लिया है। सिवाय उस बच्चे के जो उसके हर गम का साझी है। देखभाल के अभाव में राधा अक्सर बीमार रहने लगी है। अब बच्चा रात को भी राधा के साथ रहने लगा है. वो बूढी राधा की सेवा करता है। राधा को उस बच्चे के अन्दर अपने बेटे धीरू का अक्स नजर आता है।
बीमारी के बावजूद राधा अब भी नित्य पोस्ट ऑफिस जाना और बस में ये देखने के लिए जाना कि कहीं धीरू तो नहीं आया भूलती नहीं है। इसी क्रम में अब राधा बीमार रहने लगी है। राधा के दुःख-सुख का साथी छोटा बच्चा उसकी देखभाल कर रहा है। एक दिन अचानक रास्ते में धीरू को अपनें आसपास के गाँव का एक आदमी मिलता है, जो धीरू को उसकी मां के दयनीय हाल की जानकारी देता है। वो बताता है कि कैसे उसकी मां उसके इन्तजार में एक-एक दिन काट रही है। धीरू फैसला करता है कि उसे अपने गाँव लौटना होगा, जहां उसकी मां उसके लौटने का इन्तजार कर रही है। धीरू पहली गाड़ी पकड़ कर अपने गाँव लौटता है। घर पहुंचने पर धीरू देखता है आंगन में उसकी मां पड़ी है मरी हुई और गाँव वाले उसे शमशान ले जाने के तैयारी कर रहे हैं। 
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